मैं सतत नीर की सलिला
तुम सैलाब उस सागर का हो
मैं अपार विस्तृत विस्मृत आकाश
तुम बेलौस उसका बादल हो
मैं उन्मुक्त खग सा उड़ता फिरता
तुम मेरे वाज का परवाज़ हो
मैं सुदृढ़ उस पर्वत सा खड़ा
तुम कलकल झरनों की आवाज हो
मेरा होना भी तुमसे ही
मिट जाना भी तुम ही से है
मेरी पहचान भी तुम से ही
मेरी अज़ान भी तुम से है
मैं सघन वृक्ष सा अटल अचल
तुम मेघशुन्य उसकी प्रतिछाया
मैं शीतल श्वास वायु सा
तुम अविरल सरस समीर हो
मैं तान भैरवी सा सुमधुर
तुम सप्तक उस संगीत के हो
मेरा वजूद भी तुमसे है
मेरी सिद्धि भी है तुमसे
मेरा मैं भी तुमसे ही
तेरा मैं भी है तुमसे
मैं सुघड़ शरीर इस यौवन का
तुम आत्मा इस जीवन का हो
मैं काया इस संसार में हूं
तुम इस काया का कारण हो
- अमितेश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें