"झुमुरु आ इधर. बदमाश उस तरफ कहाँ भाग रहा है। पकड़ में आ जा फिर बताता हूँ तुम्हे"।
हामिद चिल्लाते हुए भागा जा रहा था उस बकरे के पीछे। आखिर पकड़ ही लिया उसने उस चितकबरे बकरे को। तीन चार चपत, प्यार भरी चपत लगाई हामिद ने झुमरू को। झुमरू भी एक सभ्य बच्चे की तरह चुप चाप मार खा गया। शायद वह भी जानता था कि हामिद को तंग करने की इतनी प्यारी सजा तो उसे मिलनी ही चाहिए।
पिछले चार-पांच महीनो से यही सिलसिला चला आ रहा था। जब से झुमरू को हामिद के अब्बा ज़मींदार चौधरी बिलकिस बेग के घर से ले कर आये थे, हामिद को जैसे अपना छोटा भाई मिल गया था। वह उसे कभी बड़े भाई, कभी बाप की तरह प्यार करता। आखिर आठ बरस उम्र का फासला भी तो था हामिद और झुमरू में।
हामिद को झुमरू के साथ खेलते देख उसके अब्बा को बड़ा रस्क होता।उनका अपना बचपन हामिद कि शक्ल में लौटता नज़र आता।
हामिद कभी झुमरू के लिए घुंघरुओं वाला गले का पट्टा अम्मी से बनवाता कभी उसके अगले पैरों में घुंघरुओं का पाजेब। छन - छन कर के जब झुमरू पुरे घर में उचल-कूद मचाता तो लगता पुरे घर में ईद सी रौनक आ गई हो। हामिद उसके बगैर तो एक पल भी नहीं रह पाता। साथ खाता, साथ घूमता, साथ में ही उसे ले कर सोता। हामिद के अब्बा को भी एक सुकून था कि उसका बच्चा झुमरू के साथ मन लगाता है, कम - से - कम गाँव के आवारा लड़कों के साथ कंचे तो नहीं खेलता।
इन पांच महीनो में झुमरू भी जैसे परिवार का सदस्य सा हो गया था. जैसे वह भी इस बात को समझता था। सुबह - सुबह जब अब्बा बेग साहेब की कोठी कि और निकलते तो झुमरू उन्हें बाहर तक छोड़ने आता और मै - मै की आवाज़ निकल कर शाम को आते समय हरी हरी घांस लाने की फरमाईश कर देता। अब्बा भी उसकी भाषा समझ कर जवाब देते - "हां, हां लेता आऊंगा हरी घांस तेरे लिए"।
अम्मी जब कुएं पर बर्तन धो रही होती, वह कभी उनका दुपट्टा अपने मुंह से खिचता कभी बर्तन। अम्मी भी चार - छह गालियां चस्पा कर उसे दूर भागती। गालियां सुन कर वह मस्ती में भर कर कुचाले भरता हामिद के पास पहुच जाता।
कभी कभी इंसानों से भरा - पूरा परिवार भी घर की खुशियों को बढ़ा नहीं पाता और कई दफा महज एक जानवर जो न तो इंसानी जुबान बोल सकता है न ही समझ सकता है, भी ज़िन्दगी को मुकम्मल बना देता है। झुमरू भी ऐसे ही एक जहाँ का प्राणी था, खुदा की दी हुई एक नेमत जिसने हामिद और उसके परिवार में फरिश्तों सी खुशियाँ बिखेर दी थी।
वक़्त यूँहीं हसते खेलते कट रही थी। हामिद झुमरू के साथ बड़ा होता जा रहा था। चौधरी बिलकिस बेग की मिलकियत बढती जा रही थी और हामिद के अब्बा की जिम्मेदारियां भी। कल तक जो उनके बागों में फूलों की क्यारियां लगाया करता था, आज वही हामिद के अब्बा चौधरी साहब के खेतों का सुपर्वाएज़र हो गया था।
वक़्त गुजरता गया और साल का सबसे पाक महिना आ गया - रमज़ान का महिना। चारो ओर एक अजीब सी रौनक थी। लोग भूखे रह कर भी कैसे खुशियाँ मना लेते हैं यह नायब सा माजरा इस महीने में ही देखने को मिलता है। खुशियाँ हमेशा भरे पेट ही नहीं मनाई जाती है। जब दिल में अल्लाह और दिमाग में इबादत की आयतें भरी हो तो फर्क नहीं पड़ता की पेट खाली है या भरी। फिर इसी रौनक में यह महिना भी निकल गया और आ गया बलिदान वाला दिन। हामिद के अब्बा जानते थे ये दिन तो आना हीं था। शायद झुमरू को भी इस बात का सुबहा था की अल्लाह ने उसे ज़मी पर इसी इरादे से भेजा है की किसी दिन उसे किसी नेक काम के लिए अपनी बलि देनी पड़े। आखिर बलिदान को तो मुसलमानों में सबसे पाक काम माना गया है, धर्म की सबसे बड़ी परीक्षा और काम।
हामिद के अब्बा ईद के ठीक एक दिन पहले झुमरू को बेग साहेब की कोठी पर ले जाने लगे। हामिद ने कहा की मैं भी साथ में चलता हूँ। उनकी कोठी पर हम दोनों खूब खेलेंगे और फिर मैं इसे ले कर वापस आ जाऊँगा। अब अब्बा हामिद को कैसे समझाए की झुमरू को वापस लाने के लिए नहीं ले जा रहे हैं वो। उसका तो दिन मुक़र्रर कर दिया गया है खुदा के पास जाने का।
अब्बा ने फिर हामिद को पहले तो बलिदान की कहानियाँ सुनाई। उसका मजहब में महत्व समझाया। फिर बताया की झुमरू तो इस दुनिया में इसी नेक काम के लिए आया था। कल इसे खुदा के पास वापस जाना है।
हामिद बोल पड़ा - "ठीक है अब्बा। मैं और झुमरू दोनों इस नेक काम को करेंगे. मेरी भी बलिदान दे दो खुदा को।"
अब्बा सन्न से रह गए। उन्हें समझ नहीं आया क्या जवाब दे इस नादाँ बच्चे को।
ठीक ही तो था। इतना ही पाक है तो अपने बच्चे की बलि क्यों न कर दी जाए उस परवरदिगार के नाम पर। पर झुमरू कौन सा बेगाना था उनका। ज़रूरी तो नहीं की कोंख से पैदा होंने पर ही कोई अपनी औलाद कहलाये। यह भी तो ज़रूरी नहीं की अपनी औलाद कहलाने के लिए इंसानी शक्ल अख्तियार करना पड़े. बाप - बेटे का रिश्ता तो रूह का रिश्ता होता है। फिर क्या फर्क पड़ता है की यह रूह एक इंसान के शरीर में अपना ठिकाना बनाता है ये किसी झुमरू जैसे बकरे के शरीर में। मुसलमानों में पुनर्जन्म का हिन्दुई फलसफा तो नहीं होता पर अब्बा को अभी न जाने क्यों ऐसा लग रहा था की झुमरू उसका अपना ही कोई हिस्सा है जो इस जन्म में बकरे का रूप अख्तियार कर के आया है।
अब्बा अभी भी शब्दों को गढ़ने की कोशिश कर रहे थे। हामिद अभी भी झुमरू को पकड़ कर खड़ा था। आखिरकार अब्बा ने जबरदस्ती झुमरू को हामिद की पकड़ से छूड़वाया और चल दिए बेग साहेब की कोठी की ओर। दरवाज़े के बाहर खड़े हामिद को कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करे, रोये या खुश हो। उसे बार - बार अब्बा की कही बलिदान की कहानी याद आ रही थी। जैसे अब्बा झुमरू को ले कर बेग साहेब की कोठी की ओर नहीं जा रहे थे, हज़रत इब्राहिम अपने बेटे इस्माईल को ले कर मीना, मक्का की ओर जा रहे हो, अपने धर्म को पूरा करने के लिए, सारे सांसारिक मोह - माया को छोड़ कर।
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