हे चक्रधर तुम फिर आ जाओ
अप्रतिम धरा के दुःख हर जाओ।
प्रलय धरा पर दस्तक देता
तारतम्य में प्राणत्व हर लेता
नभचर - जलचर भयभीत पड़े हैं
रचना तेरी हिरदयद्रावित हो रहे हैं
आस में तेरी सब करबद्ध खड़े हैं
हे चक्रधर फिर से आ जाओ
संताप से मुक्ति हमें दिलाओ।
सुख धरती से विरक्त हो रहे
दुःखद संदेशे पुर्नावृत्त हो रहे
सर्वदिक फैल रहा संताप है
मानव भी अब अक्षम हो रहा
पतन की अपनी राह तक रहा
अब तो फिर प्रकट हो जाओ
स्तुति बिना ही अब हमें बचाओ।
वाटिका में बौर लग नहीं पाते
अरुणोदय कालिमा लिए हुए है
नवयौवन वसुधा जीर्ण हो रही
मधुमास भी अब पतझड़ लगते हैं
आशान्वित नेत्र निस्तेज हो रहे
प्रलय पूर्व उद्भव हो चक्रधर
उषाकाल पूणः प्रतिस्थापित कर जाओ।
माना लोलुपता पराकाष्ठा पा रही
माना संवेदना भी महज दिखावा
लौकिक संबंध सापेक्षित हो रहे
मानव मानव रिपु बन बैठे हैं
अवचेतन वसुंधरा को चैतन्य फिर कर दो
हे चक्रधर तुम फिर आ जाओ
अप्रतिम धरा के दुःख हर जाओ।
अब आना तो आदियोगी संग
साथ अश्विन कुमार भी आये
जो अब अधर्म फिर बढ़ने पाए
त्रिनेत्र खोल तुम तांडव करना
पर धर्मपर्यन्त जो जीवन होवे
अश्विन युग्म की शरण को पायें।
- अमितेश
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