अँधेरी रात की नि: स्तब्ध कालिमा में
जब खामोशी भी खामोश हो जाती है
बातें की है मैंने खामोशी से, खामोश हो कर।
जब दोपहर, दोपहर से भी लम्बी लगने लगती है
और हवाएँ गुमशुम सी, किसी झरोखे में बैठी होती है,
गुमशुम बातें की है मैंने, गुमशुम-सी दोपहर से।
पत्ते भी जब अपनी ही बोझ से दब कर
बैठे होते हैं दिन के किसी एक हिस्से में
दुःख-सुख बांटा है मैंने, पत्तों की स्थिरता से।
प्रकृति की महान निर्जीव रचनाएँ भी बोलती हैं
बातें करती हैं आपस में चुप्पी के साथ
और मैं समझने की कोशिश करता हूँ प्रति पल
इन चुप्पी की भाषा को, चुप्पी से।
नहीं जानता,
यह ठहराव है मेरे जीवन का
या प्रगति की पहली पहल।
-अमितेश
जब खामोशी भी खामोश हो जाती है
बातें की है मैंने खामोशी से, खामोश हो कर।
जब दोपहर, दोपहर से भी लम्बी लगने लगती है
और हवाएँ गुमशुम सी, किसी झरोखे में बैठी होती है,
गुमशुम बातें की है मैंने, गुमशुम-सी दोपहर से।
पत्ते भी जब अपनी ही बोझ से दब कर
बैठे होते हैं दिन के किसी एक हिस्से में
दुःख-सुख बांटा है मैंने, पत्तों की स्थिरता से।
प्रकृति की महान निर्जीव रचनाएँ भी बोलती हैं
बातें करती हैं आपस में चुप्पी के साथ
और मैं समझने की कोशिश करता हूँ प्रति पल
इन चुप्पी की भाषा को, चुप्पी से।
नहीं जानता,
यह ठहराव है मेरे जीवन का
या प्रगति की पहली पहल।
-अमितेश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें