रविवार, 24 जुलाई 2011

मैं और मुझमे मैं

सुरज
जब सात घोड़ों पे सवार
जहाँ को रोशन करता है
और मैं
उस रोशनी मे
अपने आप को धुला सा महसूस करता हूँ
तब एहसास होता है 
मेरे होने का. 

जब मेरी परछाइयाँ यु ही 
मेरा अनुशरण करती हैं
अपनी काली काया ले कर,
एहसास होता है मेरे भीतर छुपे 
मेरे मैं के होने का.

जब
अपनी उम्मीदों में,
बादल के खुरदरे सीने पर 
अपने पैरों के अनदिखे निशान छोड़ता हूँ 
आभास होता है 
जहाँ के ज़र्रे ज़र्रे मे मैं हूँ, 
ज़र्रा ज़र्रा ज़हाँ का
मुझमे आत्मसात है.

शायद मैं न लिखा जाऊं 
इतिहास के सुनहरे पन्नों पर
फिर भी
हाँ वज़ूद है मेरा इस जहां में कहीं.
मैं हूँ इस जहां  में कहीं
अपनी एक छोटी-सी दुनियां को समेटे
अपने आप में कहीं.

हाँ मेरा भी वज़ूद है 
इस जहाँ में कहीं.

-अमितेश