रविवार, 6 जून 2021

इंद्रधनुष

सुनो 
तुम जो आँखों में काजल लगाती हो ना 
वो मेरी शाम को और रूमानी कर जाती है 
जो तुम्हारी साँसों की खुशबु है 
वो फ़िज़ा को रूहानी कर जाती है 

तुम जो यूं छलकती सी चलती हो 
वो मुझे असंयमित कर जाती है 
तुम्हारी उन पाज़ेब की रुनझुन रुनझुन 
सूने से मेरे जीवन में सरगम छेड़ जाती है 

तेरा दुपट्टा जो बलखा कर उड़ता है 
और जो तुम उन्हें झट से पकड़ती हो 
वो उड़कर मेरे अंतर्मन में तरंग फैला जाती है 
जिन्हे पकड़ में आ जाता हूँ तुम्हारे तीरे 

तुम जो यूं मुस्कुराती हो 
दिन को मेरे और रोशन कर जाती हो 
तेरी आँखों की चमक जो फैलती है 
जहाँ मेरा तिलस्म से भर जाता है 

तुम जादू हो मेरे जीवन की 
जो हर पल नए रंग फैलाती है जीवन में 
मैं सराबोर उन रंगों में 
इंद्रधनुष बन निकल जाता हूँ 


- अमितेश 

शुक्रवार, 4 जून 2021

ताजान्या

"ताजू देखना मैं तुम्हारे लिए ऐसी संगतराशी करूंगा कि दुनिया देखती रह जाएगी। कुछ ऐसा बनाऊंगा जो तुझसा दिखे। तुम्हारे जैसा कई रंग लिए हो। एक ऐसा महल बनाऊंगा तुम्हारे लिए जिसे देखने भर से दुनिया की आह निकल जाये। दुनिया जो आज मुझे नाकारा कहती है, तुम्हारे उस महल को देख उनका नज़रिए बदल जायेगा मेरे लिए, हमारे प्यार के लिए।" तुबतेन उस भरी दुपहरी ताजान्या को बाहों में भरे भविष्य के रुपहले रंग दिखा रहा था। चारो ओर बर्फ की चादर सूरज से मिल और भी झक सफ़ेद हुए जा रहे थे। ताजान्या तुबतेन की बातें सुन गुलाबी हुई जा रही थी। सारा मंजर जैसे और रूमानी हुआ जा रहा था।

तिब्बत का एक छोटा सा गांव था रानव्यू। यह गाँव पुरे वर्ष बर्फ की चादर ओढ़े रहता था। वैसे तो बर्फ की चादर ओढ़े पहाड़ कुछ समय के बाद उबाऊ से दिखने लगते हैं, पर रानव्यू में बर्फ भी खूबसूरती की चरम पर दिखाई देता। इतना खूबसूरत की लगे बस ये बर्फीली मंजर ख़तम ही ना हो। यह गांव पहाड़ों की उस ऊंचाई पर थी की वहाँ पहुँच पाना भी मुश्किल हो। पर ये मुश्किल तराई के लोगों के लिए थी। यहाँ के बाशिंदे तो उंचाईओं के अभ्यस्त थे। यहाँ के बच्चे और बकरियां भी पहाड़ों पे कुचाले मारते चलते। कुल चालीस घरों का गांव था रानव्यू। सब एक दूसरे को भली - भांति जानते थे। इन्ही चालीस घरों में एक घर ताजान्या और एक तुबतेन का था। सब जानते थे की तुबतेन ताजान्या को पसंद करता है। दोनों एक साथ दिखते भी ठीक ही थे। बस मुश्किल इतनी थी की जहाँ गांव के सारे मर्द पहाड़ों के गिर्द कुछ ना कुछ काम कर अपनी जीविका चला रहे थे, तुबतेन अपनी छेनी हथौड़ी लिए दिन भर पहाड़ों को मूरत देने में लगा रहता था। दिनभर संगतराशी करता रहता। अब इससे घर की दाल - रोटी तो नहीं चल सकती थी ना। सो ताजान्या का परिवार इस रिश्ते के काफी खिलाफ थे। वाजिब भी थी उनकी ये सोंच। भला प्यार पेट थोड़े ही भर सकता है। जब भूख लगती है तो खाना ही खाना पड़ता है, पत्थर, बर्फ और प्यार तो काम नहीं ही आते हैं। 

पर तुबतेन था की पत्थरों से ही दिल लगाए बैठा था। जहाँ लोग पहाड़ और पत्थर देखते, तुबतेन उनमे मूरत देखता। रानव्यू के पास के गुलमुल पहाड़ पर तो उसने ताजान्या की कई मूर्तियां बना डाली थी उन काले - लाल पत्थरों को काट कर। वहीं पत्थर काटते काटते उसे एक फ़िरोज़ा मिला था। मुट्ठी के आकार का पत्थर था वो। लोगों ने कहा कि इसे तिब्बत के राजा मिफाम वांग्युर को भेंट कर दे। बड़ा ही प्रेमी राजा है वो बहुमूल्य पत्थरों का। ईनाम में जो कुछ अशर्फियाँ मिल जाए तो उसे ताजान्या के बाप को दिखा कर शादी के लिए मनाया जा सकता है। पर तुबतेन की लगन तो कहीं और ही थी। उसे बस प्यार और शादी तक ताजान्या का साथ नहीं चाहिए था। उसने अपने प्रेम की कुछ और ही मंजिल तय कर रखी थी। उसे अपने प्रेम को अमर करना था। पूरी दुनिया के पत्थरों को तराश कर ताजान्या की मूरत बनानी थी। उसकी कला उसके प्यार के पागलपन में घुलती जा रही थी। फर्क करना मुश्किल था कहाँ उसका प्यार ख़तम होता और कहाँ उसकी कला शुरू होती है। 


***

"तुबतेन, सुना है हिंदुस्तान का राजा ख़ुर्रम अपनी बेग़म अर्जुमंद की याद में कोई इमारत बनवाना चाहता है। पूरी इमारत लाल पत्थर से बनायी जा रही है। तुम तो पत्थरों के पैरोकार हो। तुमसे अच्छी संगतराशी कौन कर सकता है। तू आगरे चला जा। शायद तुम्हारा काम बादशाह को पसंद आ जाये। तुम्हे अपने पास रोजगार को रख ले। अर्जुमंद की इमारत के बहाने तू ताजान्या के लिए कुछ बना पायेगा। फिर ताजान्या से ब्याह करने से तुझे कोई नहीं रोक पायेगा। ताजान्या का बाप भी नहीं।" डाम्पा तुबतेन में जानकारियाँ भर रहा था। डाम्पा तुबतेन का पक्का दोस्त था। ताजान्या का चचेरा भाई भी था वो। उसने तो ताजान्या के पति के रूप में तुबतेन का वरण भी कर लिया था। उसे अक्सर लगता कि ये दोनों एक  दूसरे के लिए ही इस जहाँ में आये हैं, आसमान से उतर कर। वो भी हर संभव कोशिश कर रहा था इन दोनों का ब्याह करवाने की। पर उसका चाचा था की ज़िद लिए बैठा था। अब जो ज़िद आड़े आ जाये तो कौन उसे समझा सकता है। हालाँकि केवल डाम्पा ही नहीं, ताजान्या का बाप भी जानता था की उसकी बेटी को तुबतेन से ज्यादा खुश कोई नहीं रख सकता, शायद वो भी नहीं। प्यार भले ही हमारा दिल भर दे पर पेट भरने के लिए रकम और राशन ही लगता है। पैसा आत्मविश्वाश भी ले कर आता है। कुछ समय तो जैसे तैसे निकल सकता है। लेकिन ज़िन्दगी कुछ समय की तो होती नहीं है। जो गर पैसे ना हो तो प्यार भी बोझ लगने लगता है। और वो ये जान कर भी अपनी बेटी को जलालत में तो नहीं रख सकता है ना। ताजान्या का बाप गलत तो नहीं था। 

बहरहाल तुबतेन के मन में ये बात बैठ गयी की बादशाह ख़ुर्रम कोई इमारत बनवा रहा है पत्थर की। यही तो वो चाह रहा था। हालांकि प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए पत्थरों का सहारा लेना बड़ा ही अजीब लगता है, पर तुबतेन एक संगतराश था। उसे आता था पत्थरों से भी प्यार की अभिव्यक्ति करवाना। उसने ठान लिया कि अब आगरे जायेगा वो। ख़ुर्रम के बहाने अपनी ताजान्या के लिए शायद कोई महान कृति बना पाए वो। 

***

"तुबे, मत जाओ मेरे हमदम। मुझे कोई कृति नहीं चाहिए अनंत के लिए। मैं तो आज में जीना चाहती हूँ। तुम्हारे संग रहना चाहती हूँ... अनंत तक। फिर आगरे तो कई पहाड़ों के पार है। अरसे लग जायेंगे वहाँ पहुंचने में। मैं तो तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊं, ये अरसे कैसे बीतेंगे। मत जाओ तुबे, मुझे तुम्हारी जरुरत है। फिर तुमने अपनी कला तो गुलमुल के पहाड़ो पे बिखेर ही रखी है ना। वो काफी है मेरे लिए।" ताजान्या तुबतेन के बालों को सहलाते हुए मनुहार कर रही थी। 

"मेरी जान, यह परीक्षा है हमारे प्यार, हमारे रिश्ते की। जो नाम ना बना पाऊं तो तुम्हारा बाप कभी हमारे रिश्ते को मान्यता नहीं देगा। क्या पता ईश्वर मुझे जानबूझ कर यह मौका देना चाहता हो। जाने दो मुझे। यह हमदोनों के लिए जरुरी है। हमारे सुनहरे भविष्य के लिए यह बहुत जरुरी है।" तुबतेन उसकी गोद में सिर रखे उस बर्फीली शाम में उसे जी भर के निहार रहा था। नेपथ्य में खड़े सफ़ेद पहाड़ और चाँद उनके इस प्यार पे भीतर ही भीतर कोफ़्त खा रहे थे। भले ही चेहरे पर मुस्कान बिखेरे था वो उस पल में, दिल में कई भावनाएं हिलोरे मार रही थी। शायद यही हिलोरे ताजान्या भी महसुस कर रही थी अपने सीने में। 


"ताजू, देखना एक ऐसी इमारत बनाऊंगा आगरे में की सारी दुनिया युगों तक याद रखेगी हमारी - तुम्हारी प्रेम कहानी को। इन पहाड़ों सा सफ़ेद इमारत बनाऊंगा - झक सफेद की किसी की भी आँखें उसे देख चौंधिया जाये और जो तुम्हारी चमक लिए हो। जैसे चाँद की रौशनी तुममे और भी खूबसूरती भर देती है, वो इमारत भी पूर्णमासी की रात में अलग छठा बिखेरेगी। जो तुम सुबह गुलाबी सी हुई जाती हो, ये इमारत भी अहले सुबह तुमसे तुम्हारा रंग ले गुलाबी हो जायेगा। कहने को तो ये इमारत होगी दुनिया की नजर में, पर वो तुम्हारी प्रतिकृति होगी इमारत की शक्ल लिए।" तुबतेन अपनी बातों से जैसे पूरी इमारत वहीं गुलमुल की तराई में बना देना चाहता था, ताजान्या की आँखों के सामने। 

"जो यही आरजू है तुम्हारी तो मैं नहीं रोकूंगी तुम्हे। पर याद रखना, ताजान्या तुम्हारी है और तुम्हारी ही रहेगी सदा। जो तुम ना आये तो यहीं बर्फ में दफ़न हो जाऊंगी पर हमेशा तुम्हारा ही नाम पुकारूंगी। इन पहाड़ों में मेरी आवाज़ सुनाई देगी तुम्हें। उस इमारत में भी मेरी आवाज़ की प्रतिध्वनि सुनाई देगी तुम्हे... तुबे... मेरे तुबे... यह ताजू तुम्हारी है और सिर्फ तुम्हारी है... इस जन्म में भी और जन्मजन्मांतर में भी... ।"बोलते बोलते ताजान्या के दो मोती उसी बर्फ में जम से गए... शायद जमा हो गए इन वादियों में। तुबतेन एकटक उस बर्फ को देखे जा रहा था, जैसे वो मोती ढूंढ रहा हो जो ताजान्या ने अभी जमा किये थे। 

"ताजू मैं आऊंगा जरूर। मेरा इंतज़ार करना। मैं तुम्हारे लिए महल जरूर बनाऊंगा और वापस आऊंगा। मेरी जान बस तुम भी मेरा इंतज़ार करना। मरना मत। हाँ मैं वापस जरूर आऊंगा।" कहते कहते तुबतेन ने भी कई मोती वहीं दफ़न कर दिए थे। जो वादी हमेशा इन दोनों को रूमानी लगता था, आज इतना गमगीन था कि जैसे इसकी झक सफेदी भी स्याह सी लग रही थी, उस पूर्णमासी की रात। 

***

"आलमग़ीर जहाँपनाह ख़ुर्रम का इस्तेक़बाल हमेशा बुलंद रहे। यह लड़का "रोज़ा - ए - मुनव्वरा" के बावत कुछ बात कहना चाहता है। कहता है कि इसे पत्थरों में जान डालना आता है। उस्ताद ईशा भी इसकी हुनर के मुरीद हो गए हैं। इसकी छेनी पत्थरों पे कूची की तरह चलती है। जैसे कोई बारीक तस्वीर बना रहा हो यह। जो मजाल की इसकी छेनी इसकी इजाज़त के बिना पत्थरों का एक सूता भी ज्यादा जमींदोज़ करे। बादशाह - ए - हिंदुस्तान जो आप एक बार आप इस लड़के का हुनर देख लें तो आप भी इसकी कला के मुरीद हो जाएं।" मीर अब्दुल करीम एक ही सांस में एक औसत से दिखने वाले लड़के की तारीफों के कसीदे गढ़े जा रहा था। 

मीर अब्दुल करीम "रोज़ा - ए - मुनव्वरा" का निरीक्षक था और उसकी जिम्मेदारी में सही कारीगरों की पहचान कर इमारत के काम में लगवाना था। उस वक़्त बादशाह के दरबार में कई प्रबुद्ध व्यक्ति बैठे थे। सब के सब एक - टक उस बीसेक बरस के लड़के को देखे जा रहे थे, और मीर की अल्फाजों का इस लड़के के व्यक्तित्व से मिलान करने की कोशिश में लगे थे। खुद बादशाह ख़ुर्रम भौचक थे कि मियां मीर को हो क्या गया है। कहाँ तो उसे अपने काम से खुश कर पाना ईद के चाँद का दीदार करने की मियाद सा है और कहाँ ये इस लड़के की तारीफ़ करते थक नहीं रहे हैं। 

बादशाह ख़ुर्रम ने मुस्करा कर कहा - "क्या नाम है तुम्हारा लड़के? कहाँ से आये हो? क्या कर सकते हो मेरे लिए?"

"जहाँपनाह, मैं तिब्बत का तुबतेन हूँ। संगतराशी मेरा जुनून है। पत्थरों से निकाह पढ़ रखा है। जो दिल में प्यार ना हो तो लोग संगदिल कहलाते हैं, मैंने तो दिल पत्थरों से लगा रखा है। गौर से सुने तो इन पत्थरों में भी दिल धड़कता है। बस सुनने के लिए कान नहीं, दिल होना चाहिए।" तुबतेन जितना अच्छा बोल सकता था बोलने की कोशिश कर रहा था। 

"लड़के, तुम्हारा काम तो हम बाद में देखेंगे। तुम्हारी बातें बहुत दिलक़श हैं।" बादशाह बातों में ही बह गया था। 

मीर अब्दुल करीम ने कुछ मूर्तियां रख दी दरबार में। कई रंग के पत्थरों की मूर्तियां थी जिसमे तुबतेन ने जान डाल दी थीं। एक मूर्ति तो लाल - काले - सफ़ेद पत्थरों को यूँ तराश कर बनाया गया था की ये तीन रंग के पत्थर मानो एक ही पत्थर दिख रहे थे। क्या बारीक काम था। क्या हुनर पाई थी इस लड़के ने। जैसे खुदा ने खुद संगतराशी की इबारत लिख दी हो इसके हाथ में। बादशाह और सारे दरबारी मुँह खोले तुबतेन की कृतियों को देख रहे थे। तुबतेन ने अपने झोले से एक डब्बा निकाल कर बादशाह के क़दमों में रख दिया। बहुत ही खुबसूरत पत्थर का डब्बा था वो जिसपे बड़ी महीन जालीदार नक्काशी की हुई थी। बादशाह पहली बार इतना बेहतरीन पत्थर का डब्बा देख रहा था। उसने डब्बे को खोला तो और भी भौचक रह गया। डब्बे में एक बड़ा ही खुबसूरत और काफी बड़ा फ़िरोज़ा रखा था। एक पल को बादशाह को लगने लगा की भले ही वो बादशाह - ए - हिंद है पर तुबतेन उससे कहीं ज्यादा अमीर है। क्या उम्दा कलाकार था वो और ये तोहफा भी लाजवाब था। खुर्रम ने उठ कर तुबतेन को गले से लगा लिया। अचानक ही ख़ुर्रम को "रोज़ा - ए - मुनव्वरा" साकार होता दिखने लगा, वो भी अपने बेमिशाल स्वरुप में। पूरा दरबार इस लड़के की हुनर का कायल हो गया था। मियाँ मीर को बादशाह ने अपने गले में पड़ी मोतियों की बेशकीमती हार ईनाम में दे दिया, इसलिए की मीर ने इस हुनरमंद लड़के को बादशाह से मिलवाया था। तुबतेन की कला के आगे तो शायद ऐसे कई बेशकीमती हार भी बेमानी हो। 

*** 

एक कमरे में ईमारत के शिल्पकार उस्ताद ईशा खान साथ के लोगों को "रोज़ा - ए - मुनव्वरा" की रुपरेखा और संभावित परिवर्तनों को समझा रहा था। उसी पल तुबतेन ने कमरे में प्रवेश किया। वो मक़बरे के एक हिस्से पे काम कर रहा था। उसे पत्थरों को काट कर खिड़कियों के जालीदार जंगले बनाने थे। वो जानना चाहता था की सारे जंगले एक से ही बनाने हैं या थोड़ी रचनात्मक स्वतंत्रता ली जा सकती है। ईशा एक गहरे सलाह मसविरा में व्यस्त था। सो इशारे से उसे बैठने को बोला। तुबतेन वही एक कोने में रखी मेज पर बैठ गया। वहां बैठे बैठे तुबतेन ईशा की उस सभा का अप्रत्यक्ष हिस्सा बना हुआ था। अप्रत्यक्ष होने की एक समस्या है कि आप अदृश्य होते हैं। अमूमन आप पृष्ठभूमि का हिस्सा हो जाते हैं। तुबतेन उन पलों में इन सारी वार्तालाप में पृष्ठभूमि ही बना हुआ था। कई बार उसके मन में आया कि वो उस्ताद को रोके और अपने आप को अभिव्यक्त करे। पर उसे उस सलाह मुहासिबे का हिस्सा होने का मौका नहीं मिल पा रहा था। वह अपनी सारी भावनाओं को अपने मन में ही दफ़न किये जा रहा था। एक वक़्त आया की जब उसके दफ़न विचार उसकी संचयन क्षमताओं से पार पा गए। आखिरकार सारी हिम्मत जुटा उस्ताद से बोल बैठा - "उस्ताद जो गुस्ताख़ी माफ़ हो तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ। इजाज़त है। "

हालाँकि उस्ताद ईशा खान पूरी ईमारत को मक़बरा और ईमारत के बीच संघटित करने में माथापच्ची कर रहा था। इस अनचाही दखलंदाजी के लिए तैयार नहीं था। पर लगा की शायद कुछ योजना निकल कर आ जाये तुबतेन की बातों से। भरोसा तो था ही उसे तुबतेन की प्रतिभा पर। 

"हाँ बोलो, क्या बोलना चाहते हो।" अनमने ही सही ईशा खान ने कहा। 

"उस्ताद अभी तो बस चबुतरा ही बना है ईमारत का इन लाल पत्थरों से। मुझे लगता है कि बादशाह सलामत जब अपने प्यार की एक बेहतरीन निशानी बनाना चाहते है तो क्यों ना इसे सफ़ेद संगमरमर से बनाया जाए। एक तो यह मुग़लों के चिर-परिचित लाल पत्थर की परंपरा से परे होगा, दूजा इस इस ईमारत का नाम 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' रखा है जिसके मायने हैं 'बेमिशाल'। सो अगर हमने इसे सफ़ेद संगमरमर सा सफ़ेद बनाया तो सच में यह बेमिशाल दिखेगा। फिर संगमरमर की खासियत है कि रोशनी के मुन्तसब्बिर रंग बदलता है। अहले सुबह जो सूरज अपनी पीली रोशनी बिखेरेगा, यह ईमारत गुलाबी हो जाएगी शर्म से। सूरज की ताप पूरी दुपहरी इसे सफेदी से नहलाये रखेगा। शाम की चाँद अपनी शीतल सफ़ेद रोशनी बिखेरेगी तो यह सुनहरी हो लुभाएगी। बादशाह सलामत को इसके रंग में बेग़म साहब का अक्स दिखेगा। गुस्ताख़ी माफ़ हो उस्ताद जो गर अपनी हैसियत से ज्यादा बोल गया हो।" पुरे प्रवाह में था तुबतेन। हालाँकि एक डर भी था उसके मन में कि कहीं उस्ताद ईशा ये ना समझे की कल का छोकरा उसे ईमारत बनाने पर ज्ञान दे रहा है। वो ईशा खान जो पर्शिया से ख़ास इस ईमारत के लिए आया है हिंदुस्तान की सरजमीं पर। वो ईशा खान जिसके नाम तक़रीबन आधी पर्शिया की रुपरेखा बनाने का श्रेय है। पर्शिया के कई ईमारत उसकी कलात्मक कल्पनाशीलता को सम्हाले है। 

उस्ताद ईशा कमाल का शिल्पकार था। उसे पत्थरों को देख कर उसके अंदर की क्षमताओं का अंदाजा हो जाता था। उसे पत्थरों को तराशना भली भांति आता था। इंसानो के हुनर की भी परख थी। तुबतेन की बातें उसे बड़ी तार्किक लगी। पिछले ३ बरस से वो हज़ारों लोगों के साथ एक मक़बरा की रुपरेखा बनाने में लगा था। उस समय तक की सोंच कुछ यूँ थी की एक आलिशान मक़बरा बनाया जायेगा जहाँ अर्जुमंद बेगम की दफनपुर्सी की जाएगी। पास ही एक मस्जिद बनायी जाएगी। इस मस्जिद में बैठ शहंशाह बेग़म की यादों को खुदा को बताएँगे। मक़बरा कुछ इतना ऊँचा बनाने की योजना थी की वहां पहुंच कर कोई भी अपने आप को बौना सा महसूस करे। सैकड़ो हाथियों का इंतज़ाम किया गया था, कि भारी पत्थरों को उठा कर आसानी से मकबरे की जगह तक पहुंचाया जा सके। मेवाड़ के महाराणा को इस बाबत लाल पत्थर भिजवाने का संदेशा भी भेज दिया गया था। कई जवाहरात हिंदुस्तान के अलग - अलग हिस्सों से मंगवाए गए थे। बादशाह ख़ुर्रम अपनी बेग़म - ए - ख़ास से चाँदनी चौक के बाज़ार में मिला था जहाँ वो कीमती पत्थर बेचा करती थीं। उसे पत्थरों की खासी पहचान थी और उन्हें जमा करने का बड़ा शौक था। सो ख़ुर्रम चाहता था की उसके मक़बरे को कीमती पत्थरों से मढ़ा जाये। 

आज जब तुबतेन ने कहा कि क्यों ना इसे झक संगमरमर सा बनाया जाये तो ये बात ईशा को भा गयी। उसी वक़्त उसने अपनी ये सभा स्थगित कर दी और बादशाह ख़ुर्रम के पास संदेसा पहुंचवाया गया। बताया गया की अर्जुमंद बेगम साहेब की मक़बरे के बाबत मिलना है। थोड़ी ज्यादा जरुरी है।  बादशाह ख़ुर्रम वैसे भी अर्जुमंद बानू के इन्तेकाल के बाद अपने आपे में नहीं था। उसकी दिन रात बस 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' और अर्जुमंद के ख्यालों में ही बीतता था। वो तुरंत तैयार हो गया ईशा से मिलने को। 


***

"जहाँपनाह यह तुबतेन है। कुछ वक़्त पहले यह दरबार में आपसे मिला था।"

"हाँ - हाँ मुझे याद है। उम्दा दर्जे का हुनर है इसकी हाथों में। बताओ क्या बातें करनी है।" बादशाह ने अपनी नज़रे तुबतेन पर गड़ाते हुए सा पूछा। 

"जहाँपनाह, अगर इजाज़त हो तो मैं कुछ बोल सकता हूँ! हालाँकि मेरी हैसियत नहीं है कि बंदापरवर के आगे मुँह भी खोल पाऊं। जो आप हुकुम करें और मेरी गुस्ताख़ी माफ़ करने का वचन दे तो मैं आपके ख्वाबों के अरमान 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' के बारे में कुछ बात रखना चाहता हूँ।" तुबतेन सब कुछ एक साथ बोल देने की हड़बड़ाहट में था।

बादशाह ख़ुर्रम ने उस्ताद ईशा की ओर देखा। दरबार में उस्ताद लाहौरी भी मौजूद थे जो 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' के साथ लाल किला के निर्माण का भी काम देख रहे थे। उन दोनों ने आँखों के इशारों से बात सुन लेने की दरख्वास्त की। बादशाह ने अर्जी कुबूल कर ली। 

बादशाह ने हाथ के इशारों से तुबतेन को बोलने की इजाजत दी। 

"जहाँपनाह, मेरी राय में बेगम साहिबा आज भी आपकी यादों में जिन्दा हैं। तो मक़बरा नहीं, महल बनाना चाहिए उनकी याद में। अगर गुस्ताख़ी माफ़ हो तो उसे ताजमहल कहें तो अच्छा। यह उनके पाक नाम से मेल खाता है सो उनके लिए इससे ज्यादा बेहतर श्रद्धांजलि और क्या होगी की उनका आरामगाह उनके नाम से जाना जाए।" तुबतेन अपनी अब तक की बातों की प्रतिक्रिया जानना चाहता था। वो एक पल की चुप्पी लगा गया। इस एक पल की चुप्पी ने बादशाह खुर्रम को बेकरार कर दिया। उसे मक़बरे और महल वाली बात काफी तर्कसंगत लगी। हाँ, अर्जुमंद बेगम तो उसकी यादों में, उसके ख्यालों में जिन्दा है और आजन्म जिन्दा ही रहेगी। जो गर पुनर्जन्म का फलसफा हो तो अगले जन्म भी वो हीं मेरी बेगम बनेंगी। उसका इन्तेकाल कहाँ हुआ है, मर तो मैं गया हूँ। हाँ मैं अपनी बेगम के लिए मक़बरा नहीं महल बनवाऊंगा। अब से उसे ताजमहल ही कहा जायेगा, 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' नहीं। 

बादशाह अपने ख्यालों में था और उसकी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी कि जाने और क्या है इसकी कल्पना में। बादशाह की बेकरारी उसकी चेहरे से साफ़ झलक रही थी। तुबतेन समझ चुका था कि उसका पहला तीर सही निशाने पर जा लगा है। उसमे अब पूरी बात कहने का आत्मविश्वास आ गया था। अब तो जैसे वो बहने लगा था, निर्बाध - "जहाँपनाह क्यों ना इसे सफ़ेद संगमरमर से बनाया जाये। इतना ऊँचा सफ़ेद संगमरमर का महल कि लोग यहाँ आकर अपना वज़ूद ढूंढने लगे। संगमरमर की खाशियत है कि रोशनी की तीव्रता के अनुसार अपना रंग बदलता है। उसके कई रंग इस जहाँ को और लुभाएगी।"

अब तो बादशाह खुर्रम कि बेसब्री और बढ़ गयी। उस्ताद ईशा और लाहौरी तो पहले ही प्रभावित थे तुबतेन के ताजमहल की इस नयी व्याख्या से। पूरा प्रारूप भी उन्हें खासा प्रभावशाली लग रहा था। 

उस्ताद ईशा ने कहा -"जहाँपनाह, इस लड़के कि बातों में दम है। जो जहाँपनाह को ये सारा प्रारूप पसंद आया हो तो आगे की बात की जाये।"

बादशाह खुर्रम अभी भी हाथ के इशारों से ही अपना इकरार कर रहा था। 

"जहाँपनाह जो लाल पत्थर हमने मंगवाए हैं, उसे देहली भेज देंगे। उस्ताद लाहौरी का मानना है कि यह लाल किला के काम को तेज करने में मदद करेगा। हम मेवाड़ के महाराणा से संगमरमर भिजवाने का आग्रह कर सकते हैं। इस नए प्रारूप पर काम करने में हमें शायद महल पूरा करने में थोड़ा ज्यादा वक़्त लगे। सो कुछ और वक़्त तक बेग़म साहिबा को बुरहानपुर में रहना पड़ेगा।" उस्ताद ईशा ने अपनी बात पूरी की। 

बादशाह ख़ुर्रम कुछ पल को गंभीर मुद्रा में चला गया। दरबार में बादशाह की गंभीरता ने ख़ामोशी तिर डाली थी।  इस ख़ामोशी ने पुरे दरबार में अपना आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया था। तुबतेन की अधीरता बढ़ती जा रही थी। कहीं कुछ खल तो नहीं गया बादशाह को! बादशाह वैसे भी अर्जुमंद बेग़म की मौत के बाद दिवाने हो गए थे। 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' पर बात करना दोधारी तलवार पर चलने जैसा था। एक गलती इहलीला समाप्त कर सकती थी। इस ख़ामोशी के लम्हे में पहली बार तुबतेन को लगने लगा था कि काश ताजान्या की बात सुन कर अपने गांव में ही रुक जाता तो अच्छा था। अच्छा भला तो 'रोज़ा - ए - मुनव्वरा' का काम चल रहा था। क्या ज़रूरत थी उसे ताजान्या की ताज बनाने की। जो कभी बादशाह को पता चला तो वो वक़्त नहीं लगाएगा मेरा सर धड़ से अलग करने में। धीरे धीरे तुबतेन के मन में भय व्याप्त होने लगा था। यही हाल उस्ताद ईशा और लाहौरी का था। कहाँ कल के छोकरे की बात में आ गए। दोनों उस्ताद को लगने लगा की जन्म भले पर्शिया में हुआ हो, मौत हिंदुस्तान खींच कर ले आयी उन्हें।

बादशाह खड़ा हो कर दरबार से मुख़ातिब हुआ - "लड़के, तुम्हारे इस सारे विचार ने मुझे बड़ा प्रभावित किया है। मैं मानता हूँ की मेरी बेग़म आज भी ज़िंदा है तो मक़बरा ज़िंदा लोगों के लिए कैसे बना सकते हैं। अब से उसे मक़बरा नहीं, महल कहा करेंगे ... ताजमहल। वो मेरी बेगम का आरामगाह बनेगा। हाँ, इससे संगमरमरी ही बनाना, हमारी बेगम की तरह।"

यह सुन पुरे दरबार को जैसे पुनर्जन्म मिल गया हो। जैसे जन्म के बाद सब ने पहली बार सांस ली हो। जो ख़ामोशी दरबार को बोझिल बनाये हुए था, बादशाह की बातों ने खुशियाँ बरपा दिया। 

बादशाह ख़ुर्रम तुबतेन से मुख़ातिब हो बोला -"लड़के तुमने मेरा दिल जीत लिया है। मांगो क्या मांगते हो। आज जो तुम मांगो तो हिंदुस्तान का तख्तोताज़ तुम्हारे नाम कर दूं। मांगो क्या मांगते हो।"

"बादशाह सलामत, मुझे कुछ नहीं चाहिए। ये महल मुझे भी मेरे ख्वाबों के करीब ले जायेगा। मेरी महबूबा मेरा इंतज़ार कर रही है तिब्बत में। बस एक दफा इस महल को पूर्ण आकार में देख लूं तो मेरी सारी मुराद पूरी हो जाये। फिर मैं भी अपनी जानेबहार से शादी कर लूंगा। बस यही ख्वाहिश है मेरी। मैं इस महल को आपके सपनो सा महल बनाने में अपनी जान लगा दूंगा।" तुबतेन अपनी नयी साँसों में जान भरता हुआ बोला। 

आज तुबतेन को ऐसा लग रहा था कि मुमताज़ के बहाने वो ताजान्या का ताज बनाने जा रहा है। वो अपनी ताजान्या का ताज बनाने के लिए अपनी सारी सृजनशीलता, सारी रचनात्मकता लगा देगा। ऐसा महल बनाएगा की सदियों दुनिया इसे देख कर रश्क़ करेगी। मोहब्बत की ऐसी मिसाल लिखेगा इस महल के बहाने की दुनिया देखती रह जाएगी। आज बादशाह ने उसकी बात मान कर उसकी सारी मुराद पूरी कर दी थी। एक बार ताज पूरा हो जाये तो वो ताजान्या को अपनी बाहों में भर कर उसके ताजमहल को दिखायेगा। 

बादशाह ख़ुर्रम को यकीन था कि ईशा, लाहौरी के साथ - साथ तुबतेन अपनी पूरी जान लगा देंगे इस ताजमहल को बेमिशाल बनाने में। आज पहली बार बादशाह ख़ुर्रम को लगा जैसे उसकी बेगम - ए  - ख़ास को दिया वादा जब अपने आकार में आएगा तो लोगों के मुँह से आह सी निकल जाएगी। शायद बेगम भी जन्नत से अपने महल को देख ख़ुशी से भर जाएगी। 

बादशाह ने तुबतेन को शाहजहांनाबाद के एक कस्बे का दीवान बनाने का वादा किया और कहा की जब वो अपनी हमदम के साथ निकाह कर आगरे आएगा तो खुद बादशाह उसकी ताज़पोशी करेंगे। 

दरबार बर्ख़ास्त कर दी गयी थी। आज ताजमहल का अभ्युदय हुआ था। आज हिंदुस्तान के इतिहास की एक बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय की शुरुआत हुई थी। इस अध्याय का सूत्रधार बादशाह ख़ुर्रम बनने जा रहा था। दुनिया सदियों तक शायद इस महल को अपनी यादों में संजोये रखे। 


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यूँ ही दिन, महिने और वर्षों के फासले जुड़ कर महल को आकार दे रहे थे। उस्ताद ईशा और उस्ताद लाहौरी ने आपस में निर्णय लिया लिया कि जो चबूतरा लाल पत्थर से बन गयी है उसे यूँ ही रहने देंगे। जिन तकनीक का प्रयोग किया गया था ताज की ऊंचाई को सम्बल देने के लिए वो शायद चबूतरे को तोड़ने पर उतनी मजबूती ना दे पाए। तुबतेन को पुरे ताजमहल की नक्काशी की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। वो तो वैसे भी इस कार्य में सिद्धहस्त था। पूरी तल्लीनता से अपने काम में लगा रहा। बस एक ही जुनून था कि जितनी जल्दी हो यह ताज पूरा हो और वो अपनी ताजान्या को बाहों में भर कर इसका दीदार करवाए। वो उसे बताए कि बादशाह ख़ुर्रम के बहाने उसने भी अपनी ताजान्या के लिए एक महल बनाया है, ताजमहल... ताजान्या का ताजमहल... ऐसा महल जो पूरी दुनिया, दुनिया के रहने तक याद रखेगी। 

बादशाह ख़ुर्रम तक़रीबन हर रोज ताज के कार्य की प्रगति को देखने यमुना किनारे पहुंच जाता। काम तो भले ही अपने रफ़्तार पर चल रही थी, ख़ुर्रम रोज उसे अपनी कल्पनाओं में पूरा कर रहा था। ताजमहल बनवाना इतना भी आसान नहीं था बादशाह के लिए। वो तो ऐसे भी अर्जुमंद बेग़म के मरहूम होने के बाद बावला सा हो गया था। राज - काज दूसरे लोग और उसके बेटे - बेटियां देख रहे थे। पर जैसा रहा है, मुग़लों का इतिहास हमेशा रक्तरंजित ही रहा है। जहाँ भाई - भाई में सत्ता का संघर्ष और छल - प्रपंच अक्सर होती रहती थी और सत्ता उसी के हाथ होता जो सबसे ज्यादा ताकतवर और युक्तिपरक होता। फिर सत्ता भी तब तक ही उसके हाथ होती जबतक उसमे शासक बने रहने की ताकत होती। सत्ता संघर्ष इन पंद्रह वर्षों में देहली - आगरे में भी शुरू हो गयी थी। कई दफा ताजमहल के बनाये जाने और लाखों रुपये वहाँ खर्च किये जाने पर सवाल उठाये जाने लगे थे। ख़ुर्रम को उसके दो बेटों, दारा सिकोह और शाह सुजा का साथ मिला था जो अपने अब्बा के सपने को पूरा करने के लिए हर मुमकिन कदम उठा रहे थे। औरंगजेब इसके सख्त खिलाफ था। वो इस सत्ता - संघर्ष में शायद हिंदुस्तान की तख़्त का सबसे मजबूत दावेदार था। हर बार जब ताजमहल के निर्माण कार्य में अड़ंगा लगाने की कोशिश की जाती, सबसे ज्यादा बेचैनी तुबतेन की ही बढ़ती थी। जो बीसेक हज़ार लोग इस ताज को बनाने में महज अपनी दी गई जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे  थे,तुबतेन बादशाह ख़ुर्रम सा इस ईमारत में अपने ख्वाब तलाश रहा था। 

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बीसियों वर्षों के अथक मेहनत और उतार चढ़ाव के बाद आज ताजमहल पूरी तरह तैयार था। जिन जवान हाथों ने इसके निर्माण की शुरुआत की थी वो अब बूढ़े हो चुके थे। कई ने तो अपने जीवन की डोर छोड़ दी थी। जो बीस बरस का तुबतेन एक ख्वाब लिए आगरे आया था, आज ख्वाब तो उसका जवानी के परवाने चढ़ रहा था, बस उसकी जवानी ने उससे मुँह मोड़ लिया था। लेकिन जो ताज आज तैयार हुआ था वो सच में एक बेमिशाल मिसाल बन कर उभरा था। देखने वाले तो क्या, इसे बनाने वाले भी जब इसे देखते तो एक आह सी निकल जाती। ऐसा लगता जैसे किसी ने ख़ुदा के आसमानी महल को जमीं पे उतार दिया हो। उसकी वो ऊँची मेहराबें, वो मीनार, वो नक्काशी, वो जन्नत सी सफेदी लगता जैसे देखने वाले खुली आँखों से कोई ख्वाब देख रहा हो। 

इन बीस वर्षों में न तो तुबतेन ने कभी खबर ली थी ताजान्या की ना हीं वहाँ से कोई खबर आई थी। बस एक वादे के भरोसे तुबतेन लगा रहा था अपने और शायद ताजान्या के ख्वाब को पूरा करने में। कि एक दिन ताजान्या का ताज बन कर तैयार होगा और फिर वो अपनी मासूका को पूनम की रात में इस ताज का दिदार करवाएगा, हाथों में हाथ लिए। 


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डाम्पा कई दिनों के लगातार सफर के बाद आखिरकार आज आगरे पहुंचा था। थोड़ी खोज - खबर में उसे तुबतेन का पता मिल गया। जैसे कई दिन वो आगरे के लिए भागा - भागा फिर रहा था, बदहवास वैसे ही वो तुबतेन के घर पहुंच गया। तुबतेन अपने सारे सामान उस छोटे से कमरे में समेट रहा था। सोचा कि एक - दो दिन में वो अब वापस अपने गांव चला जायेगा। दिन देख कर अपनी ताजान्या से शादी कर लेगा। अब वैसे भी तुबतेन ने इन बीस वर्षों में थोड़े पैसे बना लिए थे। फिर उसे यहाँ एक कस्बे का दीवान बनने का इनाम भी मिला हुआ था बादशाह से। सो कम से कम रानव्यू के लोग यह तो नहीं कहेंगे कि तुबतेन आज भी नाकारा है। हाँ यहाँ वापस आना है या नहीं, यह निर्णय ताजान्या का होगा। 

डाम्पा को अचानक अपने दरवाजे पर देख तुबतेन अवाक रह गया। उसने कभी सोंचा भी नहीं था कि उससे मिलने को डाम्पा आगरे तक पहुँच जायेगा। वह दौड़ कर डाम्पा के गले लग गया। आज अरसे बाद तुबतेन को अपनेपन की गर्मी महसूस हुई थी डाम्पा के गले लग कर। ऐसा लग रहा था कि जैसे उसने डाम्पा को नहीं, पुरे रानव्यू, पुरे तिब्बत को गले लगा लिया हो। उस सौहार्दपूर्ण आलिंगन ने दोनों के ही भीतर जमी भावनाओं को पिघला दिया था। दोनों एक दूसरे से लिपटे जार - बेज़ार रो रहे थे। कुछ पल तक यही मंजर चलता रहा। जैसे तैसे दोनों ने अपनी भावनाओं को काबू किया। 

"डाम्पा कैसे आना हुआ? कब निकले थे रानव्यू से? कैसी है मेरी ताजान्या? मुझे तो बहुत याद करती होगी ना? क्या गुलमुल की पहाड़ियां अभी भी उसे लुभाती है? ओह, मैं भी दो - एक दिन में रानव्यू के लिए निकलने की सोंच रहा था। चलो अच्छा है अब तुम आ गए। दोनों साथ में चलेंगे। बहुत बाते करनी है तुमसे। बहुत कहानियां सुनानी है तुम्हे। सफर आसान हो जायेगा।" बीस बरस की सारी बातें एक क्षण में कर देना चाह रहा था तुबतेन। डाम्पा सारी बातें सुन रहा था। पर ना कोई जवाब दे रहा था ना प्रतिक्रिया। 

कुछ और बातें और सवाल तुबतेन ने किया पर जब उसे लगने लगा कि डाम्पा दिवार बना बस सुन रहा है तो तुबतेन ने पूछा -"सब ठीक है ना रानव्यू में डाम्पा? तुम्हारी चुप्पी मुझे व्यथित कर रही है। मेरी ताजान्या मेरा इंतज़ार कर रही है ना आज भी। उसने किसी और से शादी तो नहीं कर ली मेरे इंतज़ार में। नहीं नहीं वो किसी और से शादी कर ही नहीं सकती। वो तो मुझे मेरे से भी ज्यादा प्यार करती है। मर जाएगी वो पर किसी और से शादी कर ही नहीं सकती। मैं जानता हूँ... "

"हाँ... तुम्हारे इंतज़ार में वो मर गयी..." बीच में ही तुबतेन की बात काट कर डाम्पा ने कहा। 

"क्या... तुम पागल तो नहीं हो गए। बुड्ढे होने पर तुम सठिया गए हो लगता है। मेरी ताजान्या मर कैसे सकती है। उसने तो मुझसे वादा किया था कि मेरा इंतज़ार करेगी। नहीं... नहीं... वो मर नहीं सकती। तुम कुछ भी बोल रहे हो। देखो मैं जा ही तो रहा हूँ उससे मिलने।" तुबतेन लगातार बड़बड़ाता जा रहा था। 

डाम्पा ने उसे कंधे से पकड़ कर झकझोरा -"हाँ वो मर चुकी है। सुन रहे हो तुम। ताजान्या मर चुकी है। वो अब इस दुनिया में नहीं है। वो तुम्हारे इंतज़ार में हमेशा गुलमुल पहाड़ की तरफ देखती रहती थी। कि तुम अब आओगे पहाड़ के उस पार से। कि तुमने उससे वादा किया था की वापस आओगे। बीस बरस तक इंतज़ार करती रही वो। जब उसपे विवाह का दवाब उसकी क्षमताओं के परे हो गया तो उसने उसी गुलमुल पहाड़ी से लुढ़क जाना बेहतर समझा। समझ रहे हो तुम। अब हमारी ताजान्या इस दुनिया में नहीं है। तुम्हारी दुनिया में नहीं है।" डाम्पा लगभग एक सांस में सारी बातें बोल गया था। 

तुबतेन वहीं जमीन पर बैठ गया। वो गुम हो गया। जैसे कभी वो बोलता भी ना हो। डाम्पा को लगा शायद बहुत गहरी वेदना कि वजह से वो चुप हो गया है। हो भी क्यों ना, ताजान्या से वो बेइंतेहा प्यार करता था। पिछले बीस वर्षों से उसे पाने के लिए तपस्या कर रहा था। उसने तो ताजान्या के प्रेम में गुलमुल पहाड़ के एक हिस्से पर ना जाने कितनी ही आकृतियां ताजान्या की उकेरी थी। तुबतेन की वेदना को शायद सिर्फ डाम्पा ही समझ सकता था। वही था उन दोनों का राज़दार। 

उस पूरी शाम दोनों चुप, अपने ही ख़यालों में थे। आज पूर्णमासी की रात थी। चाँद जैसे इसी कसमसाहट में था कि कब शाम हो और कब वो अपनी पूर्णाकार में दुनिया के सामने प्रकट हो। ये चाँद भी ताज की खूबसूरती पर अपना दिल दे बैठा था। वो भी इसी इंतज़ार में रहता कि कब पूर्णमासी आये और वो ताज को अपनी रोशनी में सराबोर कर सुनहरा कर दे। तक़रीबन आधी रात बीत चुकी थी। जो ताज अपने बनने की बाट जोहते कई क़दमों की आहटों से दिनभर आबाद रहा करता था, आज यहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। चारो ओर पहरेदार फैले हुए थे। कई दफा चीजे खूबसूरत बन जाए तो उसे जहाँ से बचाने की जद्दोजहद बढ़ जाती है। अगली पूर्णमासी को इसकी मालकिन अर्जुमंद बेग़म को यहाँ लाना मुक़र्रर किया गया था। सारी तैयारियां पूरी की जा रही थी। कुछ जो बची थी उसका काम दिन के उजाले में पूरा किया जा रहा था। तुबतेन आज जैसे आखरी बार ताज को अपनी आँखों में भर लेना चाहता था। वो वहीं चबूतरे पर बैठा ताज को अपलक निहार रहा था। ताज भी मानो अपनी बेहतरीन खूबसूरती में था। चाँद की दूधिया रोशनी उसे छूकर सुनहरा किये जा रही थी। यमुना की ओर से आती ठंडी हवाएं शाम को बेहतरीन बनाये हुए थी। ताज के सारे चौकीदार तुबतेन को भली - भांति जानते थे। लिहाजा किसी ने भी उसे वहां बैठने से नहीं रोका।

रात के तीसरे प्रहर में चौकीदार आपस में बैठे बातें कर रहे थे कि तभी एक तेज आवाज सुनाई दी।  जैसे कोई भारी चीज ऊंचाई से गिर गयी हो। सारे चौकीदार आवाज की दिशा में भागे। वहां का नज़ारा बड़ा ही हृदयविदारक था। तुबतेन खून से लथपथ अपने ही खून के समुन्दर में ताज के चबूतरे पर पड़ा था। पश्चिम की मीनार से चढ़ कर शायद उसने छलांग लगा ली थी।  थोड़ी सांस अभी भी बाकी थी उसमे। सांसों की डोर को छोड़ते छोड़ते तुबतेन बस एक ही बात दुहरा रहा था -"ताजू,मैं आ रहा हूँ तुम्हारे पास। देखो वादा किया था ना तुमसे कि तुम्हारे लिए एक बेहतरीन कृति बनाऊंगा। देख रही हो ना तुम। है ना ये तुम्हारी तरह, बेहतरीन और खूबसूरत। आ रहा हूँ मैं ताजू। हमदोनो साथ आएंगे यहाँ, अगली पूनम की रात। मेरी ताजू..." 

तुबतेन ताज से लिपट कर मर चुका था। आनन फानन में उसे वहां से हटाया गया। वहां फैले उसके रक्त के धब्बे मिटाये गए। बस जो नहीं मिट पायी थी वो थी उसकी आखरी साँसे जो वहां की हवाओं में घुलती जा रही थी और अपने ताज के चारो ओर चक्कर काट रही थी। 


***

कहते हैं आज भी पूर्णमासी की रात गुलमुल पहाड़ी से तुबतेन... तुबतेन... की आवाज़ें आती है। और जो ध्यान से सुनो तो पूर्णमासी की रात जब चाँद ताज को अपलक निहारता है तो ताजू... मेरी ताजू... तुम आ गयी... की आवाज़ें सुनाई देती है। पूर्णमासी की रात चलती हवाएं वहां आने वालों से यूँ टकराती है जैसे दीवाना हुआ तुबतेन... अपनी ताजू को ढूंढते हुए किसी से टकरा गया हो... 


अमितेश