रविवार, 23 दिसंबर 2012

क़ाश तुम बेटा होती

जब तुम्हारी किलकारी गूंजी थी
लगा मेरी सदियों की इच्छा पूरी हो गयी हो।
जब पहली दफा देखा था तुमने मुझे
अपनी अधखुली तिलस्मी आँखों से
ह्रदय के किसी कोने में
जैसे एक नयी सुबह का अहसास हुआ था।

तुम परियों सी मुस्काती थी
मुझे देख कर
और तुम्हारी वो निर्मल मुस्कान
मेरे सारे विषाद धो देता।

तुम्हारा यूँ ठुमक ठुमक के चलना
और फिर शरमा के मुझ से लिपट जाना
तुम्हारी नन्ही हाथों की मेहंदी
जैसे सारे जहाँ के इन्द्रधनुष को
तुम्हारी हथेलियों में समेट लेता।

गर्वित महसूस करता हर पल
तुम्हारी छोटी छोटी खुशियों को पूरा कर।

तुम्हारी हर मुस्कान
मुझे कई जन्मों की खुशियाँ दे जाती।

तुम मेरे आँगन की तिलस्मी परी हो।

हालाँकि
दिल के किसी स्याह से कोने में
अक्सर एक डर पैदा हो जाता
जब जब मैं सुनता
कन्या भ्रूण हत्या
या दहेज़ दहन की बातें।
तब तुम्हे अपने सीने से,
कस के चिपका लेता
और तुम
अचरज से मुझे देखती रहती
मेरे अनजाने भय से अनजान होकर।

जब सुनता
कि शहर में लड़कियों का चलना भी
अब सहज नहीं रह गया
कि लोगों की कुंठित मानसिकता
कन्या और वस्तु में भेद ना कर पाती
कि लड़की होना ही एक अपराध बोध पैदा करता
मेरी अंतरात्मा कांप सी उठती
भय सा लगने लगता तुम्हे देख कर
और तुम फिर
अपनी निर्मल मुस्कान से
मेरे सारे भय हर लेती।

पर
बिटिया
अक्सर सोंचता हूँ
कि  काश तुम बेटा होती
तो शायद बेफिक्र हो
घुमती शहर के चप्पे चप्पे पर
अपने घर के आँगन की तरह।

यह जान कर भी
कि तुम्हे पाने की लालसा
मेरी सदियों की थी
दिल अक्सर सोंचता
क़ाश तुम बेटा होती।


-अमितेश