रविवार, 18 मार्च 2012

तन्हाई

जब शाम शर्म से सुर्ख हो जाती थी,
जब हवाएं मद्धम हो सरसराती थी,
जब सूखे पत्ते अपनी ख़ामोशी की हद तक खामोश हो जाती थी,
हम तुम अपने धड़कते दिलों की धड़कन से सरगम बनाते थे.

जब चाँद अपनी चांदनी पर इतराता था,
और उसको तुम्हारे चेहरे से मै चिढाता था,
जब सर्दी की सर्द सुबह में,
धुंधलका ओढ़े हुए तुम मुझसे मिलती थी,
और उस धुंधलके में मै सिहर सा जाता था,

जब तुम खिलखिलाकर बसंत ले आया करती थी,
मै खुद में सकुचाया करता था तुम्हारे इस रूप को देख कर.

आज भी हवाए सरसराती है,
शाम भी शर्म से सुर्ख हो जाती है,
पत्ते भी ख़ामोशी से खरखराते है आज,
और चाँद आज भी इतराता है अपनी चांदनी पर,
बस बदलाव आ गया है वक़्त में कहीं
की आज मै चाँद को चिढ़ा नहीं पाता तुम्हारे चेहरे से,
शायद तुम खो गयी हो उस सर्द धुंधलके में कहीं...

- अमितेश   

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