बुधवार, 25 दिसंबर 2019

वो लड़की

हाँ ये मैं हूँ। मेरा कोई भी नाम हो सकता है। अगर नाम होना अपने होने के एहसास को जीवित रखता है तो मेरा नाम कामना है। हालाँकि इन दिनों नाम को आत्मसात करने की भावना अब मर चुकी है मुझमें।  ऐसा नहीं कि ये हमेशा से था।  पर अब बस मर गई सो मर गई।  

क्यों... 

इसका जवाब नहीं है मेरे पास। मैं ढूँढना भी नहीं चाहती। पता नहीं मेरी जीवन से क्या अभिलाषा है। नहीं जानती मैं हर एक व्यक्ति से क्या चाहती हूँ। पता नहीं मेरी हर क्षण से क्या अपेक्षाएं हैं। कभी - कभी लगता है कि  मैं सच में जीवित हूँ भी या बस ऐसे हीं एक मृत शरीर और मृत मन लिए घूम रही हूँ। ऐसा लगता कि मैं अदृष्य हूँ इस जहाँ में। किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता मेरे होने और ना होने से। शायद मुझे भी फ़र्क़ नहीं पड़ता इस बात से अब। 

ऐसा भी नहीं कि मैं हमेशा एक मृत देह, मृत मन हुआ करती थी। मेरे भीतर भी जीवन था कभी। एक सतरंगी जीवन... सौ रंगों वाला जीवन। कामनाओं से भरा जीवन। कामनायें इतना कि लगता एक जीवन थोड़ा कम हीं पड़ेगा मुझे। माँ भी मुस्करा देती ये सुन कर। हाँ तब मैं बस 15 की थी। एक उम्र जो बचपन और जवानी के बीच की दहलीज़ होती है। जब लड़की अपने लड़कपन और परिपक़्वता के बीच झूलती रहती है। कई दफा अल्हड़पन में भी परिपक़्वता दिख जाती तो कभी परिपक़्वता भी अल्हड़ लगती। माँ जानती थी इस अवस्था को। अनुभव था उन्हें इस बात का। हां मैं भले नहीं समझ पाती उस समय इन बातों को।

अक्सर माँ से कहती - "माँ तुम बहुत भोली हो, बिलकुल भी नासमझ हो।"

आज समझती हूँ इस बात को जब मेरी बेटी मुझे ये सुना जाती। हाँ मैं भी अब बस मुस्करा देती उसकी इस बात पे। शायद मैं भी अब अनुभवी हो गई हूँ।

हमेशा लगता कि एक रिक्तता है मेरे जीवन में। पापा और माँ की मैं लाड़ली थी। उनकी अपनी जान से भी ज्यादा अनमोल। शायद इसी वजह से मैं उनकी अकेली संतान थी। वो अपना प्यार किसी से भी बांटना नहीं चाहते थे। ऐसा नहीं कि मुझे इस बात का इल्म नहीं था। पर पता नहीं क्यों हमेशा ऐसा लगता की मैं इससे भी कहीं ज्यादा की हकदार हूँ। शायद यही वजह थी कि मेरा नाम माँ - पापा ने कामना रखा था। हालांकि मुझे लगता है कि मेरा नाम कामना है इसलिए मैं ऐसी हूँ।

ओह ऐसी ही सारी बातें मुझे दिन भर घेरे रहती। इसका मतलब ये नहीं कि मैं पागल हूँ या पागलपन की ओर उन्मुख हूँ। बस अपेक्षाएं थोड़ी ज्यादा हैं मेरी... हर चीज से।

***

15 की उमर बड़ी खतरनाक होती है। मैं दिखने में ठीक - ठाक सी थी, सो अक्सर कॉलेज में चर्चा में रहती। मुझे चर्चा में बने रहना अच्छा भी लगता। कि मैं जहाँ से गुजरूं, हज़ारो आँखे मेरे रस्ते फूलों से भर दे। कि मैं मदमाती, लुभाती उन फूलों से भरे रस्ते पर बलखाती चलूँ। इसका मतलब ये नहीं की मैं चरित्रहीन हूँ। बस थोड़ी ज्यादा तवज्जो की चाहत थी। मिली भी।

वो तो जैसे मेरे रस्ते पर अपनी निगाहों के पुष्प हमेशा से ही बिछा कर रखता था। बहुत प्यार करता था मुझे। शायद मैं भी। शायद इसलिए की ये मेरा पहला प्यार था और मैं प्यार सीख रही थी। माँ - पापा का तो आपस में स्नेह ही देखा था... प्यार नहीं।

ऐसे ही हम रोज कॉलेज में मिलते। वो मुझे खूब हँसाता। मैं भी खुब ठठा कर हंसती। लगता कि शायद ये ख़ुशी मुझे पहली बार मिली है। वो मुझे हँसते देख कर किसी और ही लोक में चला जाता। कई दफा चुप हो कर, कभी शर्मा कर उसे वापस लाती उसके स्वप्नलोक से। 

दूसरा साल आते - आते ऐसा लगने लगा कि उसकी सारी बातें पुरानी हो गयी है। उसकी हर नयी बात में मैं पुराने शब्द तलासती। अब उसकी हर हरकत पहचानी सी लगती।  यहाँ तक की उसकी आवाज़ की तरंगों तक का मिलान करने लगी पिछले साल से। वो बड़ा ही पूर्वानुमानित हो गया था मेरे लिए।

जब रिश्ते इतनी हद तक पुनरावृत्तिक लगने लगे तो उसकी गर्माहट कमजोर होती जाती है। यही वह क्षण होता है जब वो रिश्ता बस एक पहचान भर बन कर रह जाती है। सो कल का प्यार आज एक पहचान बन गया था हमारे लिए। उसे भी ये बात समझ में आने लगी थी। वो भी अब मिलने - बैठने - बातें  करने और हंसाने की आवृत्ति को कम करता गया। फिर तो उसका मिलना इतना कम हो गया कि वो अब एक अजनबी हो गया था मेरे लिए। हालाँकि मैं इस परिस्थिति से पूर्णतः सहमत थी। बस एक असहमति कचोटती थी... ख़त्म मुझे करना था, उसने कर दी।

कॉलेज के 5 सालों में भी मुझे कोई मंजिल मय्यसर नहीं हो पायी। भागी तो हर बार मैं। जैसे पूरी दुनिया रेगिस्तान बनी हो मेरे लिए और मैं अकेली हिरणी, मृगतृष्णा के पीछे भागती फिर रही थी। पता हीं न चला कि मुझे क्या चाहिए, किस मंजिल की कामना कर रही हूँ मैं।

***

यह सिलसिला आज भी बद्दस्तूर चला आ रहा है। पति तो बहुत प्यार करता है मुझे। मेरे अतीत को भी जानता है फिर भी मुझे प्यार करने में कोई कमी नहीं छोड़ता है। कई दफा... करीब - करीब हर बार मैं उसकी हर बात से असहमत होती, तब भी। पता नहीं वो कौन है जो अक्सर मुझपर हावी रहता है और मुझसे ऐसे काम करवाता रहता है। कई बार... कई कई बार लगता कि मेरी असहमति बेमानी है, अनावश्यक है, फिर भी मेरी अपेक्षाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ती।

पता नहीं मेरी ये अतृप्ति कब शांत होगी। पता नहीं मेरा ये बेचैन मन कब तक यूं हीं बेचैन रहेगा। एक अनाम मंजिल की तलाश कभी इस जन्म में पूरी हो पायेगी या ये जन्म भी व्यर्थ ही चला जायेगा।

पता नहीं ऐसी सोंच के साथ मैं अकेले ही पैदा हुई थी या कई और हैं मेरे जैसे। बस अपूर्ण जीवन जिए जा रही हूँ इन्ही जवाबों की आस में।




- अमितेश 

सोमवार, 23 दिसंबर 2019

बूटी

थांजिंग पहाड़ी की तराई का  छोटा सा गांव था मोइरांग। छोटा सा गांव जहाँ प्रकृति ने अपनी सबसे बेहतरीन खूबसूरती बिखेरी थी।  कहते हैं ये गांव द्वितीय विश्वयुद्ध के समय योद्धाओं के गांव के नाम से जाना जाता था।  कई युवा जय हिन्द का उद्घोष लिए आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती हुए थे उस दौरान।  दीवानों का गांव था ये।  फर्क नहीं पड़ता कि किस देश की सेना से वो लड़े, पर मर मिटे वो अपने देश पर ही।  

सामजाई ऐसा ही एक दीवाना था। दिनभर खेतों में काम करता और दोपहर बाद अपनी छोटी नांव में खु - इचिंगवा लिए लोकटक तालाब में पहुंच जाता। रोज़ इतनी मछली तो पकड़ ही लाता कि दो वक़्त का खाना हो जाये और थोड़ी मछलियां सूखने को डाल दे - बाद के दिनों के लिए। उसकी पत्नी नाउतन तो थोड़ी सूखी मछलियां हाट में बेच भी आती, कि कुछ ऊपर की जरूरतों के पैसे बन जाते। जिंदगी खुशहाल और अच्छी चल रही थी उनकी। उनका खेत भी लोकटक तालाब के पास था सो ढ़ाई फसल निकाल लेता था वो अपने खेतों से। तब भी जब गांव में पानी की थोड़ी कमी हो जाती। सामजाइ अक्सर कहता की उसकी खेत अगर उसकी माँ है तो लोकटक उसके पिता की तरह है जो उसकी खेत को कभी बंजर होने नहीं देता। 

जिंदगी यूँ ही चल रही थी। सामजाई और नाउतन यूं ही जिंदगी की जद्दोजहद में खपते जा रहे थे।  पता नहीं कोई उमंग उनकी ज़िन्दगी की डोर को बेहतर बना रहा था या जीवन जीने की जिजीविषा। पर ज़िन्दगी बेहतर ही थी उनकी। अक्सर सामजाई बातों बातों में कहता कि मेरा बेटा अरूज़वान इम्फाल में पढ़ाई करेगा, बेहतरीन योद्धा बनेगा और भारतीय सेना में जायेगा। अरूज़वान हालाँकि अभी पैदा भी नहीं हुआ था। वो एक भरोसे में था कि जब नाउतन माँ बनेगी तो अरूज़वान ही होगा। 

***

नया दौर लोगों में नए तौर तरीके ले आता है। मोइरांग इस से अछूता नहीं था। नई तकनीक ने मोइरांग को वृहत्त पटल पे ला कर रख दिया था।  उसने इनका इस्तेमाल कर खेती शुरू कर दी थी। अब पैदावार और भी बेहतर हो गयी थी।

सामजाई उन कुछ लोगों में था जिसने आरंभ से ही नए तरीकों का प्रयोग शुरू कर दिया था। वो अब ना सिर्फ मछलियां पकड़ता बल्कि मछलियों के अच्छे बीज भी लोकटक में डालता। बेहतर नस्ल की मछलियों के बीज। इस वजह से वो कई दफा इम्फाल भी घूम आया था। अब उसकी मछलियां ज्यादा बेहतर होती और ज्यादा मछलियां भी पकड़ पाता। नाउतन ने भी अपनी पुरखों की मछलियों के अचार बनाने की कला का सदुपयोग करना शुरू कर दिया था। अब वो कई किस्म की मछलियों के अचार छोटे - छोटे मर्तबान में पैक कर पास के बाजार में बेचने लगी थी। उसकी कला ने उसे पहचान और पैसा, दोनों ही देना शुरू कर दिया था। सामजाई ने अब स्मार्ट फ़ोन खरीद लिया था। सो जो समय अपने सारे काम करने के बाद वो अपने परिवार और नाउतन को देता था, अब अपने फ़ोन को देना शुरू कर दिया था। उनसे इंटरनेट पर जैविक खेती के बारे में पढ़ा और देखा की एक छोटा सा कुनबा काफी तेजी से इसे अपना रहा है। धीरे - धीरे उसके उत्पादों का बाजार भी बड़ा होता जा रहा है। उसने भी जैविक खेती के तरीके को अपनाने का सोंचा। शुरू भी कर दिया और सफलता मिलनी भी शुरू हो गयी। तो पैसे और भी बढ़ने लगे घर में। कुल मिला कर वो कर तो आज भी वही रहा था, बस करने का तरीका बदल डाला था। घर की आमदनी में लगातार इजाफा होने लगा था। हालाँकि ज्यादा पैसे की उसकी या नाउतन की जरुरत नहीं थी पर अगर ये बढ़ रहा है तो इसमें हर्ज़ क्या है। सो दोनों जो अब तक ज़िन्दगी कमा रहे थे, अब पैसे कमाने लगे थे। 

कहते हैं ज्यादा पैसा नयी विसंगतियाँ लाता है। वो विसंगतियाँ कैसी भी हों, उनसे निकल पाना मुश्किल ही होता है।  सामजाई और नाउतन भी इसके शिकार होने से अपने आप को बचा नहीं पाए। उनमे ज्यादा पैसे कमाने का उन्माद पैदा होने लगा था। अब वो ज्यादा समय पैसे बनाने के तरीकों को देने लगे बजाय एक दूसरे को देने के। और पैसा था कि और बढ़ता जा रहा था, उन्हें अपने मजबूत पाश में और भी जकड़ता जा रहा था। अब द्वितीय विश्वयुद्ध के एक वीर योद्धा का बेटा सामजाई एक व्यापारी बन गया था। और भी बड़ा बनने होड़ में उसने रंगून जाने का निर्णय लिया। उसे अपनी मछलियों और जैविक उत्पाद के लिए और भी बड़ा बाजार चाहिए था। इम्फाल उसे अब बड़ा बाजार नहीं लगने लगा था। एक बार तो नाउतन ने उसे समझाया भी की अरूज़वान अब आने ही वाला है। शायद अगले दो महीने में वो कोख की काली लेकिन ममतामयी दुनिया से इस नयी रुपहली दुनियाँ में अपनी किलकारियां भरना शुरू कर देगा। सो थोड़ा रुक कर रंगून जाये। पर जब पैसा नशे की तरह चढ़ना शुरू हो जाये तो इतना आसान भी नहीं होता उसके चंगुल से छूट पाना। फिर ये नशा तो मोहिनी की तरह थी। जिसके प्यार में सामजाई अंधा ही हो गया था। उसे नहीं मानना था, सो नहीं माना।


***
रंगून में सामजाई करीब महीने भर रहा। जितना ज्यादा संपर्क लोगों और बाजार के साथ वो साध सकता था, साधा। उद्देश्य सिर्फ एक था, अपने उत्पाद के लिए ज्यादा बड़ा और ज्यादा मुनाफा वाला बाजार देखना और बनाना। रंगून ने भी उसकी मछलियों और कृषी उत्पाद की खासी सराहना की। इस एक महीने में उसने ठीक ठाक बाजार बना लिया था खुद के लिए।

जब वापस आया तो उसे अपना मोइरांग छोटा लगने लगा। इतने छोटे से जगह में बड़ा होना मुश्किल है। जो मोइरांग और लोकटक आज तक उसे अपने माँ बाप लगते थे, वो अब उसे सुकून नहीं दे पा रहे थे। आज वो माँ का आँचल उसे छोटा लगने लगा था और बाप के आँखों का पानी भी उसे बहा नहीं पा रहा था। इन्ही तनाव के क्षण में उसे रंगून से लायी वो बूटी अपने शरण में ले गयी। ये सफ़ेद बूटी जो सिर्फ इंसान ही नहीं उसके पुरे वजूद को अपने में समेट लेने की क्षमता रखती थी। वो सफ़ेद बूटी जो धीरे धीरे मोइरांग में अपना पैर जमाने लगा था। सामजई जैसे कई युवा जो अपनी जमीन से भी ज्यादा बड़ा बनना चाहते थे, उसे अपनाने लगे थे। बड़ा बने या ना बने, पर वो अब जमीन को दोष मढ़ने की कला सीखने लगे थे इस बूटी की शरण में।

सामजई अपवाद नहीं था इन बदली हुई परिस्थितियों का। अब तक जो सामजई एक लड़ाका की तरह जीता था वो अब तनावों में रहने लगा था। बड़े बनने की चाहत और बड़े शहर की चकाचौंध ने उसे अपने छोटेपन का एहसास कराना शुरू कर दिया था। हालाँकि वो इतना भी छोटा नहीं रहा था अब। अपनी मेहनत और दक्षता के दम पर उसने अच्छा नाम कमाया था। पैसे भी बनाये थे उसने जो शायद उसकी ज़रूरतों के हिसाब से ठीक ही थे। पर और बड़ा बनने की कोई सीमा थोड़े ना होती है। उसे तो और भी बड़ा बनना था। उसकी इस चाहत ने उसे किसी और ही जहाँ का बाशिंदा बना दिया था। अब उसका ज्यादा समय चरस और चिंता में ही बीतने लगा।

नाउतन ने उसे काफी समझाने की कोशिश की लेकिन वो शायद उस समझने की अवस्था से काफी आगे निकल आया था। नाउतन की भी उम्मीदी के दिन नजदीक आ रहे थे। सामजई इन जिम्मेदारियों से भी भागने लगा था। जैसे - तैसे दिन गुजर रहे थे। आखिर अरुजवान ने इस नयी दुनिया में कदम रख ही दिया। समय की विडम्बना ऐसी की उस समय भी सामजई अपने आपे में नहीं था। वो चरस में डूबा थांजिंग की एक पहाड़ी पे पड़ा था। नाउतन अब धीरे धीरे ये समझ गयी थी कि अब उसका सामजाई से ज्यादा उम्मीदें और वास्ता रखना अपने आप को तकलीफ देने जैसा ही होगा। लिहाजा उसने अपने सारे व्यवसाय को खुद अपने हाथों में लेना शुरू कर दिया था।

***

जिस घर में अबतक खुशियां और संतोष अपना आसियाना बनाये हुई थी वहां कलह ने घर कर लिया था। रोज सामजाई नाउतन से पैसे को ले कर झगड़ता। पैसे भी किस लिए, उस पावडर के लिए जो सामजाई से उसका अस्तित्व ही छीनने लगा था। अरुजवान भी इन्हीं माहौल और परिस्थितियों में बड़ा हो रहा था। नाउतन यूँ ही घर चलाने लायक पैसे बना ले रही थी। पर अब सब कुछ पहले जैसा तो रहा नहीं था। सो मेहनत भी थोड़ा कम होने लगा था काम में। खेती तो ठप्प ही हो गयी थी। इसलिए नहीं की धरती बंजर हो गयी थी, पर इसलिए की धरतीपुत्र नाकारा हो गया था। कहाँ तो सामजाई आसमान को अपनी झोली में भरने निकला था और कहाँ ये जमीन भी उसकी हाथ से रेत की तरह फिसलने लगी थी। ऐसा नहीं की सामजाई कोशिश नहीं करता अपनी इस परिस्थिति से बाहर निकलने की। पर उस पाउडर की आगोश में कुछ ज्यादा ही आगे निकल आया था वो। इतना आगे कि अब उसे अपना घर परिवार भी धुंधला - धुंधला - सा दिखने लगा था, भविष्य तो दिखता भी नहीं था। जो अरुजवान अपने पैदा होने से पहले ही उसके खयालों में किलकारियां भरता था, आज जैसे उसे अजनबी की तरह देखता था। अपने कलेजे के टुकड़े को जैसे जी भर कर कलेजे से लगा भी नहीं नहीं पाया था।

पता नहीं दिन भर उसके दिमाग में कैसी - कैसी बातें चलती रहती। कभी अरुजवान तो कभी नाउतन उसकी आँखों के सामने से तैरते से निकल जाते। कभी लगता की लोकटक में वो गहराई तक उतरता जा रहा है और उसकी साँसे फिसल रही हैं उसकी शरीर से तो कभी लगता की थांजिंग की चोटी से वो बेलौस लुढ़कता चला जा रहा है, रंगून की तरफ और चाह कर भी अपने आप को रोक नहीं पा रहा है। उसे कुछ समझ नहीं आ  रहा था कि उसके साथ क्या हो रहा है। सामने से आते एक बस में वो बैठ गया। कहाँ जाना था, पता नहीं। कब तक चलता रहा, पता नहीं। उसे बस अपने साथ उड़ाती चली जा रही थी। दूर तक बस धूल का गुबार दिख रहा था, आसमान तक पहुंचने की आस में रास्ते में दम तोड़ते हुए।

***

काफी खोज खबर हुई गांव में और आस - पास के इलाके में सामजाई की। पर कहीं कुछ पता नहीं चला। लोगों ने सोचा की ये तो होना ही था, सो हो गया। नाउतन ने भी इसे अपनी नियति मान ली। हालाँकि ये नियति तो पहले ही लिखी जा चुकी थी और वो इस नियति के साथ पिछले कुछ सालों से रह भी रही थी। अब पूरी दुनियां में जैसे वो और अरुजवान ही रह गए थे। उसने कुछ कमी भी नहीं छोड़ी थी अरुजवान की परवरिश में। समय अपनी रफ़्तार में था। वो अपनी जवानी को ले रहा था और अरुजवान को भी वही जवानी दिए जा रहा था। आज तो बारहवीं का परिणाम भी आ गया उसका। अच्छे अंक आये थे उसके। माँ को गले लगाते हुए जब उसने अपना परिणाम बताया तो नाउतन की ख़ुशी का पारावार ही नहीं था। जैसे अरसे बाद ख़ुशी इस घर में आयी थी। उसकी वो छोटी छोटी मिचमिचाती आँखें और भी छोटी हो गयी थी। ना जाने कहाँ से उनमे जमा पानी रिस आया। जो बहा तो ऐसे बहा की जहाँ भर के पानी के सोते भी उन्हें जमा न कर पाएं। अरुजवान उन अनमोल मोतियों को जैसे अपनी यादों की तिजोरी में जमा करता जा रहा था। उन मोतियों को करीने से रखते रखते उसने अपनी माँ से बोला - "माँ, मैं भारतीय सेना में जाना चाहता हूँ। एन डी ए का फॉर्म भी भरा है। पहला राउंड क्लियर हो गया है। अब साक्षात्कार के लिए जाना है। जाऊं ना।"
नाउतन को अचानक सामजाई की याद आ गयी। यही तो वो चाहता था, कि उसका बेटा योद्धा बने। अपने पुरखों और गांव का नाम रोशन करे। आज तो मानों खुशियों ने फिर अपना ठिकाना बदल लिया था। जो इतने वर्षो से रूठी थी, आज जी भर कर बरस रही थी। आज सामजाई होता तो कितना खुश होता। पता नहीं कहाँ है। जिन्दा भी है या नहीं। काश ज़िंदा ही रहे।

***

आज 6 वर्षों के बाद अरुजवान वापस आ रहा था। अब तो इम्फाल तक ट्रेनें चलने लगी थीं। उसे लेने के लिए नाउतन इम्फाल स्टेशन आयी थी। अरसों बाद वो अपने योद्धा बेटे को देखने वाली थी। बड़ी सज संवर कर आयी थी वो। बेटा सेना का बड़ा अफसर बन कर आ रहा था। पुरे यूनिफार्म में होगा। लोग देखते हीं सलामी ठोंकेंगे। मोइरांग में अरसों बाद कोई योद्धा कदम रखेगा। वो भी बड़ा रंगरूट बन कर।
उसकी सोंच में ही ट्रेन स्टेशन पे आ गयी। तक़रीबन शांत से पड़े स्टेशन में अचानक ही गहमा - गहमी बढ़ गयी। लोग जाने क्यों इधर से उधर भाग रहे थे। अजीब ही अफरा - तफरी का माहौल तिरा था चारो तरफ। इसी अफरा - तफरी में ख़ाकी वर्दी में एक बांका नौजवान दिखा। बड़ा ही तेजस्वी दिख रहा था। नाउतन ने उसे दूर से देख कर भी अपने कलेजे से लगा लिया था। वो अपनी सधी चाल में नाउतन के करीब तो बस अब आया था। दोनों ही अपने अपनत्व की भावनाओं में चरम पे थे। उनकी तन्द्रा तभी टूटी जब अचानक ही कोई बार - बार अनुग्रह कर रहा था। "बाबा पैसे... बाबा पैसे..."

एक आकृति, गंदे - फटे कपड़े पहने हुए चेहरे पर बेतरतीब दाढ़ी और लट बने बाल लिए बार - बार उनसे कुछ पैसे देने की गुहार कर रहा था।

दोनों की आँखें उस भिखारी पर जम गयी। अरुजवान उसे देख कर समझ नहीं पा रहा था की कैसे रियेक्ट करे। वहीं नाउतन की आँखे चौकने लगी थी... ये आदमी पहचाना सा लग रहा था। अरे ये तो सामजाई जैसा दिखता है। शायद सामजाई है। सामजाई ही तो है। एक झटके में उसकी सारी स्मृतियाँ चारो ओर घूम गयी... उसकी जिंदगी के बेहतरीन पल से ले कर दुखदाई पल तक... सारे पल। अरुजवान ने शायद उसे नहीं पहचाना था। पहचानता भी कैसे। जब सामजाई भागा था घर से तब वो महज़ दो साल का था। उसने तो सारी ज़िन्दगी नाउतन में ही अपने माँ और बाप दोनों को देखा था।

नाउतन को एक बारगी लगा कि उसकी भावनाएं उफ़ान लेकर बाहर आ जाएँगी। पर पिछले 18 - 20 वर्षों में उसने उन पर काबू पाना सीख लिया था। एक बार उसने अपने योद्धा बेटे अरुजवान को देखा, फिर उस कायर सामजाई को। फिर अपना पर्स खोला, सौ का एक नोट निकाला और उस बुड्ढ़े को देते हुए बोली -"बाबा, ये मेरा योद्धा बेटा है। इसकी लम्बी आयु की दुआ करना अपने ईश्वर से।"

"ईश्वर इसे लम्बी उम्र दे।" छलकते आँखों से उसने हाथ उठा कर दुआएँ दी और पैसे नाउतन से लेकर अरुजवान के हाथ पे रख दिया। बिना कुछ और बोले वो वहां से चला गया... उस अफरा तफरी की भीड़ में... दूर एक आकृति दिख रही थी अब उसकी, अपने आँसुओं को पोछते हुए भागा - भागा दूर जाते हुए। इन दोनों की नज़रों से दूर... शायद उनकी ज़िन्दगी से भी...


- अमितेश 

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

अपने घर

वो माँ की गोद में सो जाना
वो उसका मनुहार कर खिलाना
वो मेरी झिड़कियां, वो उसका मुस्काना
वो शाम ढले घर से निकलना
वो माँ का चुपके से कुछ सिक्के मेरी जेब में डालना
वो दिन सुनहले, वो रातें रुपहली
आ अब वापस लौट चलें,
अपने घर के रास्ते.

वो पापा का डाँटना
वो उनका बात बात पे चिढ जाना
कभी गुस्से में हाथ उठाना
फिर सकुचा कर प्यार जताना
वो मेरी एक ख़ुशी को,
उनका कई मौत मर जाना
वो अहले सुबह उनका भजन गुनगुनाना
वो दिन सुनहले, वो रातें रुपहली
आ अब लौट भी चलें
अपने घर के रास्ते.

वो यारों की यारी
वो बिन बात उनसे भिड़ जाना
वो साफ़ कपड़ो में स्कूल जाना
वो शर्ट के कॉलर का काला पड़ जाना
वो दिन सुनहले, वो रातें रुपहली
आ अब चल हीं चले फिर
अपनें घर के रास्ते.

ये दुनियाँ की मुश्किल
ये रिश्तों की जटिलता
ये दफ़्तर की परेशानियाँ
ये दिन बोझिल, ये रातें पहेली
ये बनावटी मुस्कान
ये हाल बेहाल
ये दौलत कमाना और खुशियां बटोरना
ना जाने कहाँ रखें वो
वो दिन सुनहले, वो रातें रुपहली
आ अब वापस लौट चलें
अपने घर के रास्ते.


- अमितेश