सोमवार, 28 नवंबर 2011

फिर मत रोना गार्गी

इंसान कई दफा परिस्थितियों को अपना दास बना देता है. कई दफा इंसान परिस्थितियों का दास बनने को विवश हो जाता है. गार्गी से अच्छा इसे कौन समझ सकता था. एक छोटी सी ज़िन्दगी में ही कई बार उसने इंसान और परिस्थितियों को ऐसी आँख मिचोली करते देखा था. वक़्त को पकड़ने की कवायद में हमेशा उसके सामने ऐसे हालात पैदा होते गए की उसने अपने आप को वक़्त के सामने विवश ही होता पाया. अपने माँ बाप की राजकुमारी हमेशा वक़्त की दासी - सी ही बनी रही.

कैसे भूल सकती है अपने वो दिन, बचपन के दिन, जब वह अल्हड़ सी अपने बंगले के बड़े से बाग़ में भागा करती और उसके माँ-बाप अपनी इस प्यारी राजकुमारी के हर नाज़ों - नखरे उठाते नहीं थकते थे. कभी कूद कर वह गेंदें की बड़ी सी झाड़ के पीछे छुप जाती और उसके पिता यूँ ही झूठ - मुठ के उसे ढूंढने की कोशिश में कभी आम के पेड़ के पीछे तो कभी सूरजमुखी की क्यारिओं में उसे ढूंढ़ते फिरते. फिर अचानक वह खिलखिला कर हंस देती. उसकी हंसी की खनखनाहट से जैसे सारा बाग़ झूम उठता. उसके पिता की रगों में तो मानो ये हंसी रक्त के साथ एक नयी उर्जा का संचार कर जाता. गार्गी भी अपने लाल बोर्डर वाले सफ़ेद फ्राक में परी-सी ही दिखती. उसके बाग़ में इधर-उधर भागने से जैसे सारा बाग़ झूम उठता. अपने पिता की उस कोठी की सबसे बड़ी संपत्ति थी गार्गी. नाजों से पली. अपने माता - पिता के पलकों पे झूलती - खेलती.

वक़्त यूँ ही गार्गी की दासी बना उसके इर्द- गिर्द घूम रहा था. वक़्त भी गार्गी के साथ जवान होता जा रहा था. उधर वक़्त के चेहरे पे झुर्रियां पड़ती जा रही थी इधर गार्गी की खूबसूरती अपनी चरम को पाने को बेताब होती जा रही थी. अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आना गार्गी की आदत बन गयी थी. कल तक अपने माता - पिता की लाडली, अपने स्कूल - कॉलेज के शिक्षकों के भी आँखों का तारा बन गयी थी.
जब गार्गी ने अपनी जवानी में कदम रखा तो जैसे उस छोटे शहर में चर्चा का विषय बन गयी.  हर इंसान उसे अपनी संगीनी बनाने की कामना करने लगा. गार्गी भी कभी बंद आँखों तो कभी खुली आँखों से अपने सपनों के राजकुमार के सपनों में खोने लगी थी. काले घोड़ें पे झक सफ़ेद कपड़े पहने और हाथों में तलवार लिए उसके सपनों का राजकुमार अक्सर उसे दूर से आता दिखता.  उस एक ख्याल भर से ही वह शर्म से सुर्ख लाल हो जाया करती. हर बार अपने सपनो के राजकुमार के चेहरे को देख पाने की चेष्टा में वह उसकी आँखों से ओझल हो जाया करता. उसके पिता ने भी अपनी परी के लिए उसके सपनों के राजकुमार को खोज निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
वो दिन भी आ गया जब गार्गी के लिए सचमुच उसके सपनों का राजकुमार मिल गया था. हां, शायद यही था वह सपनों का राजकुमार. काले घोड़े पर झक सफ़ेद कपड़े पहने. चेहरा तो नहीं देख पायी थी उस राजकुमार का गार्गी पर शायद इस जैसा ही था वह सपनों का राजकुमार. सब कुछ परी - कथाओं जैसा बीत रहा था गार्गी की ज़िन्दगी में. वक़्त भी गार्गी की दासी बना उसके नखरे उठा रहा था.

वह बचपन की अल्हड़ गार्गी अब एक पूर्ण नारी बन गयी थी.

गार्गी के अपने ससुराल जाते ही जैसे उसके पिता की वह आलिशान कोठी सुनसान हो गयी. अब तक जो वक़्त उस कोठी में दासी बना फिरता था वह अपने शबाब में आने लगा था. गार्गी के पिता के चेहरे पे हावी होता सा. अचानक ही जैसे वो बूढ़े हो गए थे. साड़ी ऊर्जा क्षीण सी होती जा रही थी. जो बाग़ गार्गी के क़दमों की एक आहट पे अपने पुरे शबाब पे आ जाता था आज उजाड़ हो गया था. गार्गी अपने ससुराल जाते - जाते वक़्त को भी साथ ले गयी थी.
लेकिन परिस्थितियां और वक़्त आज भी गार्गी के इर्द - गिर्द बांदी बना घूम रहा था. सब कुछ ठीक - ठाक ही चल रहा था. परी - कथाएं अब भी गार्गी की ज़िन्दगी की घटनाओं से कहानियां चुरा कर अपनी एक मुकम्मल कहानी बना रही थी. गार्गी ने जिस सपनों के राजकुमार की कामना की थी, यह लगभग वैसा ही था.

कई दफा हम समझ बैठते है की अगर वक़्त हमारे कदम से कदम मिला रहा है तो हम उसकी चाल को अपने हिसाब से निर्णय ले कर गढ़ सकते है. लेकिन वक़्त बड़ा ही शातिर होता है. वो तो अपनी अलग ही बिसात बिछा कर कोई और ही खेल खेलने की तैयारी करता रहता है. और हम समझ बैठते है की ये हम है जो सारी कहानी बना रहे है. ये सोच हमें वक़्त के उस खेल में और भी उलझाती चली जाती है. फिर एक समय ऐसा आता है की हम बस मोहरे बने रह जाते है वक़्त की उस बिसात पर.
आखिर वक़्त भी कब तक गार्गी की मर्जी का दास बना रहता. उसने एक करवट बदली. अब गार्गी की जीवन की परी कथा का वो आसमानी प्यार वास्तविक प्यार का जामा पहनने लगा था. गार्गी परिस्थितियों को समझ कर अपने आप को अनुकूल बनाने की हर संभव कोशिश करती रही. अपने पिता की राजकुमारी ससुराल की दासी बन गयी थी. कोई शिकायत नहीं था उसे फिर भी इस बदली ज़िंदगी से. खुश थी वो. जिस प्यार में वो कभी खोयी रहती थी वो प्यार अब बस बंद कमरे की चारदीवारी तक रह गया था. धीरे - धीरे उसका विवाह निर्वाह बनता जा रहा था. गार्गी फिर भी खुश थी. वह हर संभव कोशिश करती अपने सपनों के राजकुमार जैसे दिखते पति को खुश रखने की. 
वक़्त ने कई करवटें बदली इस दौरान. हर बदलता लम्हा गार्गी को और मजबूती दे जाता. बस फर्क अब इतना आ गया था की जो वक़्त गार्गी की दासी बना फिरता था, आज उसने गार्गी को अपनी दासी बना लिया था. इन दो वर्षों में गार्गी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ी हो गयी थी. महज २३ की उम्र में वक़्त और परिस्थितिओं के हर रंग से रूबरू हो गयी थी वो.

***

जब सबकुछ अच्छा हो रहा हो तो हम आगे की कभी ज्यादा फ़िक्र नहीं करते. बस बहते चले जाते है उस अच्छे वक़्त के साथ. जब परिस्थितियां प्रतिकूल हो जाती है तब हम अचानक धरातल पर आ जाते है. लेकिन कुछ ऐसे भी सशक्त इंसान होते है जो उन प्रतिकूल परिस्थितियों से भी दो-चार कर लेते है और हर लम्हे वक़्त के लिए भी एक चुनौती कड़ी करते जाते है. गार्गी वैसे ही इंसानों में एक थी. बदलते हालत में वक़्त से भी तेजी से सपने आप को बदलते जाना जैसे उसकी आदतों में शुमार था.
लेकिन किसी भी परिस्थिति की एक पराकाष्ठा होती है. और इन दो वर्षों में शायद वो पराकाष्ठा आने लगी थी. गार्गी जितना रिश्तों को सुलझाने की चेष्टा करती उसका वास्तविकता का राजकुमार उसे और उलझाता जाता. और फिर वह एक पल आ गया जब परस्थितियों की पराकाष्ठा ने अपनी सारी सीमाएँ तोड़ डाली. पता नहीं गार्गी एक बंधन से आज़ाद हुई थी या बंधन ने उसे और उलझा दिया था.

***

उसके पिता की कोठी में वापस वह की सबसे प्यारी राजकुमारी आ गयी थी. लेकिन उसकी इस उपस्थिति ने किसी के मन में उल्लास पैदा नहीं किया था. कोठी के बड़े बाग़ के सारे पेड़ - पौधों में एक नयी जान फिर आ गयी थी पर अब वो उस उत्साह से झूम नहीं पा रहे थे. आखिर उनकी सबसे खुबसूरत राजकुमारी के चेहरे पर जब वो मुस्कान और चाल में वो चंचलता न रही हो तो ये पेड़ भी कैसे मदमस्त हो झूम सकते थे.
कोठी में वो ख़ुशी फिर से वापस नहीं आ पाई इस राजकुमारी के आने के बाद भी. गार्गी के माँ-बाप की आँखों के आंसू अपनी प्यारी राजकुमारी की आँखों के सूनेपन को देख कर सूख नहीं पा रहे थे. एक अजीब सन्नाटा सा छा गया था कोठी में. ऐसा सन्नाटा तो तब भी नहीं पसरा था जब गार्गी इस घर को छोड़ कर अपने सपनों से दिखते राजकुमार के साथ गयी थी.

***

इन बदलते हालत में गार्गी के पिता के मन में अपनी राजकुमारी के भविष्य को लेकर कसमसाहट पैदा हो गयी थी. एक दुविधा जैसे उनके दिलो - दिमाग में घर करता जा रहा था. गार्गी खुद भी अपनी जीवन में आये इस अकस्मात बदलाव से हतप्रव्ह थी. ज़िन्दगी जैसे ख़तम होने की कग़ार पर दिखती जा रही थी. पता नहीं चला कब दो महीने बीत गए इन परिस्थितिओं से दो-चार होते होते.

***

गार्गी अपने बाग़ में बैठी शुन्य को निहार रही थी. इस तंद्रा में वो किसी और ही दुनिया में चली गयी थी. एक ऐसी दुनिया जहाँ सब कुछ मौन था. सब कुछ धुंधला - धुंधला. हवा का हल्का - हल्का झोंका गार्गी के तन - बदन में एक सिहरन पैदा कर रहा था. वो अपने पश्मीना शाल को कुछ और मजबूती से जकड़ कर उस दुनिया की सैर कर रही थी - ख़ामोशी से. अचानक पास के पलाश के पेड़ की एक घनी डाल से गौरये का घोसला निचे धप्प से आ गिरा. उसके नीचे गिरते ही गौरये की एक तेज़ चहचहाहट उसे वापस इस भौतिक दुनिया में वापस खिंच लाया. गार्गी ने अपने ह्रदय में एक तेज़ चुभन महसूस की. लगा शायाद उसकी अपनी दुनिया फिर से उजड़ गयी हो इस घोंसले के साथ. वो गौरैया अपने उजड़े आशियाने के चारो ओर बड़ी बेचैनी से चहल कदमी कर रही थी. कुछ पल को ऐसा ही चलता रहा. फिर अचानक उस गौरैये ने अपने उजड़े आशियाने से एक  तिनका उठाया और उड़ गयी वापस पलाश की उसी डाली पर. और फिर अगले एक घंटे तक गौरैये का तिनका उठाने और उड़ने का यही सिलसिला चलता रहा. गार्गी एक मूक गवाह बनी उस गौरैये के उजड़ने और बसने का यह पूरा मंजर देखती रही, ख़ामोशी से. अचानक वो कड़ी हो गयी अपनी कुर्सी से. उसकी पैरो में फिर से वो मजबूती आ गयी थी. एक आत्मविश्वास से भरी मजबूती. पलाश के उस पेड़ ने शायद अपनी राजकुमारी को वापस अपने अस्तित्व में आते पहचान लिया था. गार्गी के इस आत्मविश्वास भरी भंगिमा ने उस पलाश में भी मस्ती भर दिया. इस ठण्ड की शांत शाम में वह अचानक अपने पत्ते खड़खड़ाकर झूम उठे. पेड़ पौधे भी शायद इंसान के सुख से सुखी और दुःख से दुखी हो उठते है. कई बार हम इंसान, इंसानों की भावनाओ को समझ नहीं पाते और कई बार पेड़ - पौधे हमारे खयालातों से ज्यादा वाकिफ़ हो जाते है. पलाश के इस अचानक से झूम उठने से सारा बाग़ झूम उठा. ऐसा लगा मानो दो वर्षो के बाद वापस उस बड़े से बाग़ में बसंत आ गया हो. 

***  

आज अचानक अपने बीते दिनों के सारे घटनाक्रम गार्गी की आँखों के सामने बिखर से गए. आज फिर वो जीवन के अजीब से दोराहे पर खड़ी थी. समझ नहीं पा रही थी क्यों बार बार परिस्थितियां उसकी भावनाओ को अग्नि परीक्षा देने को मजबूर करती है. हर बार वो अपने जीवन को व्यवस्थित करने की कोशिश करती और हर बार वक़्त फूंक मार कर उसकी व्यवस्थित जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता. अचानक से बिखर गए अपने जीवन को तिनका - तिनका सम्हाल रही थी वो.

***

अजीब सी कश्मकश से गार्गी की ज़िन्दगी गुज़र रही थी. इतने दिनों में वो खुल के हँसना भूल गयी थी वो. आज हँसते हँसते उसकी आँखों में पानी भर आये. पिछले कुछ दिनों से वो काफी खुश महसूस कर रही थी. उसकी ख़ुशी उसकी उन सपनीली आँखों से रिसती सी नज़र आती. जैसे उसकी खोई खुबसुरती फिर से वापस आने लगी थी. वापस वही बाल सुलभ चंचलता ने उसके पलों को और भी खुबसूरत बना दिया था. गार्गी की ख़ुशी और खुबसूरती तब और भी बढ़ जाती जब वह सुबीन के साथ होती.
सुबीन, एक बहुत ही आम सा लड़का जो उसके साथ काम करता था. कोई जयादा दिखावा नहीं, कोई खास शक्लो सूरत नहीं. शायद ही कोई लड़की सुबीन जैसे लड़के को अपने सपनों में सफ़ेद घोड़े पर हाथ में तलवार लिए देखने की कल्पना करती हो. उसकी मध्यम काया में जो सबसे जयादा निखर कर दिखती थी वो थी उसकी जिंदादिली. हंसमुख, हमेशा मुस्कराता सा लड़का. उसके होने भर से गार्गी अपने में एक सकारात्मक ऊर्जा महसूस करती थी. ऐसा लगता जैसे उसकी निर्मल उपस्थीति गार्गी के खालीपन को खुशियों से लबरेज़ कर जाता.
गार्गी कुछ दिनों से अपने में एक अजीब परिवर्तन महसुस कर रही थी. पिछले पांच सालो में उसने अपने अतितको हर रोज़ जीया था. हर बार उसका बीता हुआ अतित उसकी आँखों को नम कर के चला जाता था. तब जब वह परिपक्वता को प्राप्त कर रही थी, वक़्त ने उसे ऐसे मुकाम दिए की अपनी उम्र से जयादा परिपक्व हो गयी थी. जवानी का अल्हड़पन कभी देखा ही नहीं था उसने अपने जीवन में. अब जैसे वो अल्हर्पण फिर वापस आ गया था उसका सुबीन के साथ. जब जब वह सुबीन के साथ होती तो गार्गी और भी गार्गी-सी हो जाती. सुबीन भी उसे उसकी ज़िन्दगी की हर ख़ुशी देने में कमी नहीं छोड़ता. हँसता- हंसाता. गाता - गवाता. हर वो बदमासियाँ करता गार्गी के साथ मिलकर जो शायद गार्गी नहीं कर पायी थी, ज़िन्दगी को समझने की कवायद में. फिर बैठ कर घंटो हँसते दोनों. इतना की हँसते हँसते गार्गी की आँखों में पानी भर आता. जैसे इस ख़ुशी की आंसू में गार्गी के अतित के दर्द धुलने से लगे थे.

***

गार्गी भी अनजान नहीं थी अपने भीतर के इस बदलाव से. सतही तौर पे हो वो काफी खुश थे अपने भीतर के इस बदलाव से, या यूँ कह लें कि अपने आप में वापस आने से।  पर भीतर से वो अब भी उबर नहीं पाई थी अपने अतीत के  उन लम्हों से  जिसने उसे उससे छीन-सा लिया था। डरती थी, कही यह दौर भी जल्दी खत्म न हो जाए और फिर वो अलग थलग ना महसूस करने लगे दुनिया से। शायद इस बार वो सम्हाल नहीं पायेगी वक़्त के खिलवाड़ को।

कई दफा हँसते - हँसते वो खो - सी जाती शुन्य  में और सुबीन भौंचक सा देखता रह जाता गार्गी को अचानक किसी और जहाँ में चले जाते हुए।

सुबीन जानता था की भले ही वह और गार्गी बड़े अच्छे दोस्त बन गए थे, पर आज भी वो गार्गी को अच्छी तरह जान नहीं पाया था। गार्गी हमेशा उसे रहस्यमी सी दिखती थी। जैसे एक बंद किताब की तरह हो जिसका पहला पन्ना तो रंग - बिरंगी तस्वीरों से भरी हो पर हर पन्ने में कई राज छिपी हो। गूढ़ रहस्य। सुबीन यूँ तो गार्गी के साथ बिताये हर पल को जम कर जीता था पर हमेशा एक खिचाव महसूस करता था गार्गी और अपने रिश्तों के बीच। ये हमेशा एक खलल पैदा करती सुबीन के मन में। पर गार्गी को धो देने के डर से कभी भी अपने को पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाता था।

***

वक़्त यूँ ही कटता जा रहा जा रहा था। वक़्त आपस में जुड़ कर दिन और दिन महीने बनते जा रहे थे। गार्गी और सुबीन आपस में और भी अच्छे दोस्त होते जा रहे थे। उनके बीच का विश्वास और भी बढ़ता जा रहा था। इन सारी  वजहों से वक़्त ने सुबीन को अपने आप को व्यक्त करने का आत्मविश्वास दे दिया था।

अपने रिश्तों के इसी बढ़ते आत्मविश्वास में एक दिन उसने गार्गी से पूछ  ही डाला -
"गार्गी, मेरा नाम सुबीन है। तुम कौन हो गार्गी?"
"ये कैसा सवाल है सुबीन। कहीं तुमने कुछ खा तो नहीं लिया है जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो!" - गार्गी लगभग हंसते हुए - सी बोली।
"नहीं गार्गी मैं बिलकुल होंश में हूँ। लगभग एक वर्ष होने को आयें हैं हमारी दोस्ती को। इस एक वर्ष में तुम शायद सब कुछ जानती हो मेरे बारे में। मेरे अतीत मेरा वर्तमान और मेरे भविष्य के सपने। सब कुछ। लेकिन मैं सिर्फ तुम्हारा नाम और तुम्हारी अचानक ही पैदा हो जाती ख़ामोशी के अलावा कुछ नहीं जानता तुम्हारे बारे में। कौन हो तुम गार्गी? क्या तुम अपनी पहचान मुझसे नहीं करवाओगी गार्गी? क्या अब भी मैं इतना अनजाना हूँ तुम्हारे लिए की तुम वैयक्तिक तौर पर मुझसे दूरी बनाए रखना चाहती हो? क्या इस एक वर्ष में भी मैं तुम्हारे भरोसे के लायक नहीं हो पाया हूँ गार्गी? बोलो गार्गी, कौन हो तुम?"

"मैं एक पारी हूँ और दूर पारी लोक से आये हूँ" और खिल्ख्ला कर हँस  पड़ी थी गार्गी. लेकिन इस बार हँसते -  हँसते उसकी आँखों में पानी की जो महीन परत जम आयी थी उसके पीछे की भावानाओं को नहीं छुपा पायी वो सुबीन से।
सुबीन ने भी दुबारा उससे नहीं पूछा उसके बारे में। बस ख़ामोशी से उस शाम को बिता डाला दोनों ने। हाँ, एक मानसिक द्व्न्द ज़रूर चलता रहा दोनों के मस्तिष्क में पूरी शाम।

***