गुरुवार, 29 सितंबर 2016

साक्ष्य

बादल जहाँ आसमाँ से मिलते हो गले
और वृक्ष हों साक्षी इस मिलन के
आओ करे ऐतवार हम एक दूसरे में होने का.

बहती हो जहाँ पहाड़ी नदी लपलपाती सी
कुछ मचलती कुछ बलखाती सी
कुछ पन्ने अपने सपनों से निकाल कर
चलो बनाये कागज़ की कश्ती
और छोड़ दे तिस्ता की लहरों तले
अपने सपनों की दुनियां तक पहुच जाने को

दूर जो आसमां दिख रहा है ना धरती से लिपटा हुआ
हाथ पकड़ एक दूसरे का
चलो उसके पार पहुँच जाएँ
और बना ले आशियाँ अपने सपनों का

तुम जानना चाहती थी ना मेरे प्यार की गहराई
वो जो अनंत तक रस्ता जाता है ना
वो मेरे दिल की गहराइयों से हो कर गुजरता है
जिसे जहाँ के सारे प्रेमी अपने प्यार से
हज़ारों बरसों में भी ना भर पाएं

चलो कर लें एक दूसरे को आत्मसात
टेसूओं के लाल लहक़ते पुष्पों के फेरे लगा कर
साक्षी मान इन पलाश के रूमानी छाओं को
की एक होने की पराकाष्ठा तक
हम सत्तावन जन्मों तक एक बन जाएँ।

- अमितेश