मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

पारकर पेन

कब पापा सुपर हीरो से सुपर जीरो हो गए थे, सुकृत को पता भी नहीं चला. 

याद है ना कैसे पापा अपनी साइकिल में आगे की रॉड पे एक छोटी सीट लगा लाये थे. तब सुकृत कितना खुश हुआ था. लगा की पापा कितना ध्यान रखते हैं उसका. जब वो उस छोटी सीट पर बैठ कर शहर घूम जाता था, दोनों हाथ हवा में फैलाये, उसे लगता की उस एक पल को वो सुकृत नहीं सुपर कमांडो ध्रुव हो गया है. पापा साइकिल पर पैंडल भी जब मारते तो साइकिल हवा से बात करती. सुकृत उस छोटी सीट पर बैठ जैसे हवा में उड़ रहा होता. कभी एक हाथ से अपने उड़ते बालों को आँखों से हटाता कभी पीछे छूटते लोगों को मुँह चिढ़ाता. तब लगता पापा सच में सुपर हीरो हैं. उसके किसी भी दोस्त के पापा की साइकिल में आगे की रॉड पर छोटी सीट नहीं लगी थी. वो इस मामले में खुद को अपने सब दोस्तों से बेहतर मानता था. 

जब स्कूल में Attendance लगाई जाती और उसका नाम "सुकृत" पुकारा जाता तो कितना गर्व से खड़ा हो कर वो "Present Miss" बोलता. गर्व क्योंकि उसका नाम क्लास में सबसे अलग था और शायद सबसे बेहतर भी, कम से कम वो तो यही सोचता था. यह नाम भी उसके पापा ने ही दिया था - सुकृत. उस दौर में जब सबके नाम प्रसून, मिथिलेश, रामेश्वर होता था, उसके पापा ने कितना नया नाम रखा था... एकदम Unique, कितने अलग थे ना उसके पापा. सबसे अलग, सबसे अच्छे. 

सबसे अच्छा तो उसे तब लगता जब नयी क्लास में जाने पर उसकी सारी कॉपी क़िताब नयी होती और एक Sunday को बैठ कर पापा उसकी सारी कॉपी क़िताब पे रंग बिरंगे जिल्द लगाते थे. पता नहीं कहाँ कहाँ से रंग बिरंगे मोटे कागज पापा खरीद कर लाते थे, जिल्द लगाने के लिए. एक Subject की कॉपी - किताब पे एक रंग का ही कवर लगाते थे. फिर उस पर सलीके से Name Plate चिपकाते और सब पर स्केच पेन से उसका नाम, स्कूल का नाम, कक्षा  और सब्जेक्ट लिखते थे. कितनी अच्छी Handwriting थी पापा की. फिर उस कवर के ऊपर सैलोपिन पेपर का कवर लगाते कि कवर समय के साथ गंदा ना हो जाये. तीन तीन के सेट बन जाते थे रंग बिरंगे कॉपी किताबों की - एक CW, एक HW और एक उस सब्जेक्ट के किताब की. फिर उसे सिर्फ सब्जेक्ट के कवर का कलर याद रखना होता था - और झट से वो कॉपी बैग से बाहर. बार बार उसे कॉपी निकाल निकाल कर खोल कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी की सही सब्जेक्ट की कॉपी निकाली है या नहीं. कितने अलग थे ना पापा. शायद सुपर हीरो से भी बेहतर. उसकी देखा देखी उसके कुछ दोस्तों ने भी Colorful कवर लगानी शुरू कर दी थी अपनी पुस्तकों पर. लेकिन वो कवर ख़ुद लगाते थे उनके पापा नहीं और फिर उनमे वो बात भी नहीं होती थी जो सुकृत की पुस्तकों में होती थी.

फिर उसके पास मार्बल पेन्सिल थी जो पापा ने ला कर दिया था - वो भी Colorful - Orange, Yellow, Green कलर की. उसके पीछे Eraser भी लगा था. कितना ध्यान रखते थे वो उसका. सुकृत भी पापा से चिपके बिना सो नहीं पाता था. उसे लगता की एक दिन वो भी पापा की तरह ही सुपर हीरो बनेगा. सबका ख्याल रखने वाला. हर चीज को अलग ढंग से करने वाला.

आज भी याद है उसे जब पापा ने Second Hand Scooter ख़रीदा था. Bajaj का Scooter. हालाँकि तब तक उसके कुछ दोस्तों के पिता ने भी Scooter खरीद लिया था लेकिन उसके पापा का Scooter सबसे Best था.
वो एक समय था जब पापा की हर बात अलग लगती थी, निराली लगती थी. और आज वो समय है जब लगता है की व्यर्थ ही पापा को सुपर हीरो समझते रहे थे. पापा सुपर हीरो बिलकुल नहीं हैं. वो एक आम इंसान हैं. सड़क पे चलते किसी भी इंसान की तरह. पापा की साइकिल पे तेजी से चलते समय पीछे जाते किसी भी इंसान की तरह... जिसका वज़ूद उतनी ही देर तक रहता है जितनी देर तक नज़र उस पर टिकी रहती है. मेरे पापा सच में एक Ordinary Man हैं. कोई सुपर हीरो नहीं हैं. बेकार ही उन्हें इतना Importance देता रहा था मैं.

पता नहीं ऐसी कितनी बातें सुकृत के दिमाग में चल रही थी. वो अपनी काले पीले रंग वाली Street Cat Cycle पे पैंडल मारता हुआ तेजी से घर की तरफ जा रहा था.
Street Cat Cycle भी तो पापा ने ही खरीद कर दी थी ना उसे. जब ये साइकिल घर आयी थी तो जैसे वो सातवें आसमान पे था. कितने शान से पापा ने कहा था - "अब तुम हाई स्कूल में आ गए हो, तो अब इस साइकिल से स्कूल जाना."
सुकृत तो अचानक ही अपने स्कूल में सबसे अलग लोगों में शामिल हो गया था. कुछ ही बच्चे थे स्कूल में जिनके पास सीधी हैंडल वाली साइकिल थी और उनमे से भी दो - एक लड़कों के पास Street Cat Cycle. उन दो - एक लड़कों में वो एक हो गया था. रोज वो सुबह सुबह अपनी साइकिल को ग्रीस से चमकाता था. और स्कूल जाने से पहले भी एक बार साफ़ करता था. हालाँकि उसे उस वक़्त ये समझ में नहीं आया की घर में साइकिल आते ही पापा का स्कूटर क्यों घर से बाहर नहीं निकलने लगा था. क्यों स्कूटर की थोड़ी सी Servicing का काम पापा ताल रहे थे? क्यों पापा अब ऑफिस आधा घंटा पहले निकलने लगे थे. असल में वो अब कोई सुपर हीरो नहीं थे, शायद इसलिए.

क्या माँगा था उसने पापा से - एक पारकर पेन ही ना. कौन सी दौलत मांग ली थी उसने पापा से. सौ रुपये की भी नहीं थी वो पेन. सिर्फ 99 रुपये की थी. पिछले एक महीने से टाल रहे थे - अच्छा कल ले आऊंगा, परसों मैं पैसे देता हूँ तुम खुद खरीद लेना.

पापा जितना ध्यान पहले रखते थे मेरा अब नहीं रखते. परकार पेन तो सिर्फ एक चीज है. ऐसी छोटी छोटी कई चीजों को पापा टालने लगे थे. पिछली दफा जब मैंने Super Commando Dhruv और नागराज के Comics Digest की बात की थी तो भी वो टाल गए थे. अब मेरे पापा सुपर हीरो नहीं रहे थे. वो सुपर जीरो हो गए हैं.

यही सोचता सोचता कब वो अपने पापा के ऑफिस के सामने से निकल गया पता ही नहीं चला. सुकृत को पापा की ऑफिस से घर का एक शार्ट कट रास्ता पता था. सोचा चलो उस रास्ते से घर चला जाता हूँ. ऐसे तो 8 KM का रास्ता है, इधर से निकला तो लगभग 6 KM में ही पहुँच जाऊंगा. यही सोचते सोचते उसने उस रास्ते पर अपनी साइकिल घुमा ली. साइकिल अपनी रफ़्तार में चल रही थी. उसके खयाल भी उसी रफ़्तार में चल रहे थे. हर वो उदाहरण जो पापा को सुपर हीरो से सुपर जीरो साबित करे उसके दिमाग में Slides की तरह चल रहे थे. जितना ही वो सोचता उतना ही उसका विश्वास अपने पापा से उठता जाता. तभी उसे दूर एक पहचानी सी आकृति आगे जाती दिखाई दी. अरे, ये तो पापा हैं शायद. पापा ही हैं. ये पैदल कहा जा रहे हैं. अचानक सुकृत की पैरों की रफ़्तार पैंडल पे धीमी हो गयी, और साइकिल भी. वो जानना छटा था की पापा पैदल कहाँ जा रहे हैं. वो छुपता छुपाता धीरे धीरे साइकिल चलाता पापा का पीछा करने लगा. पापा घर की ओर जा रहे हैं. वो सन्न रह गया. पापा ऑफिस से घर पैदल जा रहे हैं. तो क्या पापा रोज़ ऑफिस पैदल आने जाने लगे हैं? तभी वो ऑफिस के लिए थोड़ा पहले निकलते हैं इन दिनों. रोज 6 KM सुबह, 6 KM शाम को पैदल चल रहे हैं. किसलिए, की रोज ऑटो का 14 - 15 रुपये बचा पाएं. अब तो सुकृत को काटो तो खून नहीं. पता नहीं किन परेशानियों से गुजर रहे हैं पापा. एक बार मन किया की पीछे से पापा के पास पहुँच कर बोले की पापा आ जाओ, आप मेरी साइकिल की कैरियर पे बैठ जाओ, आज मैं आपको शहर की सैर करा लाऊँ. लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी पापा तक जाने की. उसने घर के पास के दूसरे रास्ते से तेजी से साइकिल निकाल ली. शायद इतनी रफ़्तार से सुकृत ने कभी साइकिल नहीं चलाई थी. आँखों से झर झर आंसू बहे जा रहे थे. लगा की सारी फसाद की जड़ वही है. समझ नहीं पा रहा था क्या करे की पापा को कोई तकलीफ ना हो. उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर ना होना पड़े. लेकिन ये परिस्थितियां भी तो उसने ही पैदा की है. उसकी मांगें इतनी बढ़ गयी है इन  दिनों की पापा को एक - एक पैसा जोड़ने के लिए आज इतना पैदल चलना पड़ रहा है. स्कूटर नहीं बनवा पा रहे हैं.
अपने आंसुओं के समुन्दर में डूबता उतरता सोचता संभलता आखिर घर पहुँच हीं गया, पापा से पहले. साइकिल लगाया और दौड़ते हुए छत पे जाने लगा. माँ ने आवाज़ भी लगाई, पर अनसुना कर भागा वो. छत पे जा कर वो फूट फूट के रोने लगा. नहीं मेरे पापा आज भी सुपर हीरो हैं. और हमेशा रहेंगे. सुपर जीरो तो मैं हूँ. कितना कष्ट दिया है मैंने पापा को और पापा ने कभी उसे अभिव्यक्त नहीं किया, कभी उसे जानने भी नहीं दिया की वो कैसे दौर से गुजर रहे हैं. आज अचानक ही उसे लगने लगा की वो बड़ा हो गया है, सचमुच का. आज वो असल में हाई स्कूल का स्टूडेंट हो गया था. अब वो हर वो काम करने की कोशिश करेगा जो उसके पापा को ख़ुशी दे, सच्ची वाली ख़ुशी.
तभी माँ की आवाज़ आई - "सुकृत नीचे आ जा बेटा, पापा बुला रहे हैं तुझे. देख तेरे लिए क्या ले कर आये हैं."
जैसे तैसे अपनी सिसकियों पे काबू पा कर सुकृत ने अपना चेहरा धोया और भारी क़दमों से नीचे आ गया.
पापा ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठे हुए थे. उनके हाथ में एक लिफाफा था. वो उसे सुकृत की और बढ़ाते हुए बोले - "देख सुकृत, कलर तो पसंद है ना तुझे. नहीं तो मैं Return करवा कर तुम्हारी पसंद वाली रंग की ले आऊंगा."
कांपते हाथों से उसने लिफाफा ले कर खोला. एक खुबसूरत प्लास्टिक बॉक्स में नीले रंग का पारकर पेन था. 99 रुपये वाला नहीं, 199 रुपये वाला. पारकर पेन देखते ही न जाने कहाँ से उसकी आँखों से अश्रु की अविरल धारा बहने लगी. वो कस के पापा से लिपट गया. लगातार रोये जा रहा था. पापा उसके सर पे हाथ रखे उसके बाल सहला रहे थे.

- अमितेश  


शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

कुबूल है... कुबूल है... कुबूल है...

अलिका - अली की नेमत। मोहब्बत का पैग़ाम। हाँ, यही सोच कर तो नाम रखा था उसके अब्बा ने उसका - अलिका। 

होनहार लड़की जो पूर्णतया आत्मनिर्भर थी. समाज बदल रहा था, मुसलमान भी. सो उसके अब्बा ने उसे मदरसा नहीं कॉन्वेंट में भेजा था पढ़ने के लिए. सारी सुविधाएँ दी थी अपनी एकलौती औलाद को. एक मामूली सरकारी कर्मचारी होते हुए भी कभी कोई कसर नहीं छोड़ी थी अलिका के अब्बा ने उसकी परवरिस में. समाज बदल रहा था, शायद उनका समाज भी बदल रहा था. अलिका के अब्बा इन बदलावों का फायदा उठाना चाहते थे, अपनी गुड़िया के जीवन में बदलाव ला कर - एक सकारात्मक बदलाव ला कर. 
उसे और पढ़ाना चाहते थे. और बढ़ाना चाहते थे. अभी बारहवी में थी, अभी तो सिर्फ सत्रह की ही थी. अभी तो उसे और आगे जाना था - इतना आगे की किसी दिन उनकी department में Under Secretary बन जाये, B.P.S.C. निकाल ले. 
अलिका ने भी कभी निराश नहीं किया था अपने अब्बा को. खुब मेहनत कर के पढ़ती थी. उसकी दुनिया में हर चीज पढ़ाई के बाद आती थी. उसके अब्बू ने उसे बड़े ही आज़ाद माहौल में पाला था. सो क्या पहनना, कैसे रहना, किससे बात करना जैसी बंदिशें नहीं थी उस पर. हालाँकि इस आज़ादी ने उसमे और भी नम्रता, और भी शालीनता भर दी थी. 

बेटियां अक्सर वक़्त की रफ़्तार से भी तेज़ बड़ी हो जाती हैं. अलिका अपवाद नहीं थी. सत्रह की उमर तक पहुंचते - पहुंचते घर वालों के ताने मिलने शुरू हो गए थे. उनका बहनोई अपने लड़के से अलिका का निक़ाह पढ़वाने पर जोर देने लगा था. उनके बहनोई के बेटे शौफान ने बारहवी तक की पढ़ाई की थी. थोड़ी अंग्रेजी बोल लेता था. इलेक्ट्रॉनिक की दूकान कर रखी थी चांदनी चौक में. कम भी कमाता तो महीने का 25 - 30 हज़ार कमा लेता. 25 का हो गया था. सो उसके बाप को लगता की कहीं हाथ से निकल ना जाये लड़का. कही किसी ग़लत संगत में चला गया तो अच्छा न होगा. वैसे भी मुसलमानो को अपने बच्चों के ग़लत संगत में पड़ने का अंदेशा ज्यादा ही रहता है. ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी डालना ही एक तरीका है की लड़का हाथ से निकल ना पाए. 

अलिका के अब्बा उसका निक़ाह कतई इतनी जल्दी नहीं करवाना चाहते थे. अभी तो लड़की नाबालिग़ है. फिर उसके सपने भी अभी कहाँ जवां हुए हैं. लाख कोशिशों के बावजूद वो अलिका के निक़ाह को नहीं रोक पाए. शौफान के घर वाले अंततः इस्तिख़ारा करवा ही आये. न चाहते हुए भी इमाम ज़मीन की रश्म अदायगी करनी पड़ी अलिका के परिवार को. फिर मंगनी  और परिवार में शादी का माहौल. अलिका हालांकि थी तो आज की लड़की, लेकिन थी तो लड़की ही ना. हिंदुस्तान में महिलाएं भले ही पूज्यनीय हो पर बूत ही बनी रहती है. आवाज़ उनकी हमेशा दबाई ही जाती है. मुसलमानो में भले ही बुतपरस्ती न हो लेकिन उनकी धर्म ग्रन्थ की सारी रवायतें महिलाओं को ले कर और महिलाओ के लिए ही बनाये गए हैं. कितनों से लड़ती, सो अंततः हथियार डाल दिए अलिका ने. वैसे भी कोई वो पहली लड़की तो थी नहीं इस जहाँ में जिसके सपनों को परवाज़ नहीं मिल पाया. कई हैं सो वो भी है. उसके सपनों के टूटने से समाज को तो कोई फर्क पड़ता नहीं सो किसी ने परवाह की नहीं. 
मौत भले ही इंसान को क़ब्रिस्तान में ले जाये, जीते जी वो ख़ुद ही क़ब्रगाह बन कर घूमता है - जहाँ कई अरमान, कई सपने उसके अपने ही भीतर किसी कोने में दफ़न होते रहते - और ये सिलसिला उसके शरीर के अंत में क़ब्रिस्तान में जाने तक चलता रहता. 

दिन के नज़दीक आने तक बहनों - सहेलियों की चुहलबाज़ी शुरू हो गयी थी. देखते - देखते मंझा का दिन आ गया और हल्दी में लिपटा उसका सुर्ख़ शरीर पीला सा हो गया था. अब तो उसका कमरे से निकलना भी बंद हो गया. यही मंझा की रवायत थी. फिर मेहंदी और संचक की रश्में. शुरू - शुरू में तो अलिका ने प्रतिरोध किया चीजों का, पर धीरे धीरे उसे भी सब ठीक ही लगने लगा. शायद इसी वज़ह से शादी - निक़ाह की रश्मों - रिवाज़ कई दिनों के होते है की उत्सव सा माहौल सारे संताप को धो डाले और आप बस उन रश्मों रिवाज़ की गंगोत्री में बह वो अपने अतीत को भूल जाये. 

फिर पता ही न चला कब बरात आ गयी दरवाज़े पर और कब अलिका और शौफान दो अहलदा प्राणी से एक होने की राह पर चल निकले. अलिका की आँखों के सामने उसका सत्रह बरसों का अतीत और मृत सुनहरा भविष्य तैरने लगा. लगा जैसे बीच में लगी उस सितारों वाली चादर पे उसकी जीवन की फिल्म चल रही है, Sad Ending वाली फिल्म. वो समझ नहीं पा रही थी की दोनों मौलवी ख़ुतबा पढ़ रहे थे या कोई दर्द के गीत चल रहे थे. उसकी तन्द्रा तब टूटी जब मौलवी ने निक़ाह के कुबूलनामे के लिए अलिका की इज़ाज़त मांगी. 

कुबूल है... कुबूल है... कुबूल है... इस तीन बार के कुबुलनामे ने अचानक ही अलिका को एक लड़की से औरत बना दिया. बधाईयों के दौर चल रहे थे नेपथ्य में और अलिका हर बधाई के साथ परिपक़्वता लेती जा रही थी जैसे. एक अल्हड़ से उम्र में जब दिमाग़ सौ आसमान और कई तारे घूमता फिरता है, अलिका आरसी मुसाफ़ कर रही थी. वो क़ुरान - ए - पाक़ हाथ में लिए अपने धर्म और परिवार के लिए खुद को क़ुर्बान करने की कसमें खा रही थी. 

बदलते वक़्त ने अलिका को एक ठेंठ मुस्लिम औरत बना दिया दिए. था. लेकिन फिर भी उसकी दिल के किसी स्याह से कोने में आगे पढ़ने, B.P.S.C. निकालने की चाह हिलोरे मार ही देता. शौफान ने शुरू शुरू में तो अलिका की मदद की. उसे ग्रेजुएट बना दिया. लेकिन उसे यह भय था कि अलिका कहीं B.P.S.C. न निकाल ले. फिर तो समाज में शौफान की खिल्ली ही उड़ाई जाने लगेगी. ये सोच कर उसने अलिका  को कभी B.P.S.C. की परीक्षा में बैठने नहीं दिया. पहली बार जब अलिका ने B.P.S.C. का फार्म भरा, वो पेट से थी और चौथा महीना चल रहा था. लिहाजा परीक्षा में बैठ नहीं पाई. दूसरी दफा फिर शौफान ने उसी बहाने से उसका B.P.S.C. में बैठना टाल दिया. जब तीसरी बार अलिका ने फार्म भरा तो शौफान ने अपना आपा खो दिया. जम के लड़ाई हुई दोनों के बीच. इन सारी चीजों ने फिर दोनों के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहने दिए. घर में तनाव बढ़ने लगा. इतना ज्यादा की शौफान के घरवालों ने एक तरकीब निकाल ली. शौफान घर में दूसरी औरत को ले आये. वैसे भी शरीयत के तहत वो ऐसा दूसरी बार ही नहीं, चार बार कर सकता था. हालाँकि ऐसा करने के लिए कुरान - ए - पाक़ ने कुछ नियम भी रखे हैं. पर नियम से क्या लेना देना. हम तो वही करते हैं जितना हम क़ुरान को समझना - आत्मसात करना चाहते हैं. वर्ना तो क़ुरान - ए - पाक़ का अक्षरसः अनुपालन करने लगे तो हम ही ख़ुदा न बन जाये. 

दूसरी शादी, नहीं, अलिका को ये कतई गवारा नहीं था. वो अपने शौहर को किसी और के साथ बांटना नहीं चाहती थी. सो तनाव घटने की बजाय और बढ़ता चला गया दोनों के बीच. वैसे भी वैवाहिक जीवन में तनाव - मनमुटाव दलदल की तरह होते हैं. समय रहते उससे निकला नहीं गया तो निकलना मुश्किल हो जाता है. अलिका और शौफान उसी मुश्किल वाले स्तर तक पहुँच चुके थे. तनाव के उसी आलम में अनायास ही शौफान के मुँह से निकल गया - तलाक़... तलाक़... तलाक़...
इन तीन शब्दों ने जैसे अलिका के कानों में कई लीटर पिघला इस्पात डाल दिया. अचानक ही उसे लगा की उसके घुटने कमज़ोर हो गए हैं. लगा जैसे वही बैठ जाये जमीन पर, या शायद धरती फट जाये और वो समाहित हो जाये धरती में. पर वो तो मुसलमान थी ना. वहां तो हिन्दू धर्म वाली चीजें न सोची जाती है ना की जाती है. 

एक वो समय था जब क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है... की तीन शब्दों ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी थी. हालाँकि उसे तब भी क़ुबूल नहीं था ये कुबूलनामा. बेमन से उसने क़ुबूल किया था. मौलवी ने उस वक़्त समझाया था कि इस्लाम तभी किसी निक़ाह को निक़ाह मानता है जब लड़का - लड़की दोनों क़ुबूल करें. बिना दोनों के कुबुलनामे के दो लोग साथ रह कर इस्लामी रवायतों को पूरा नहीं कर सकते. कितनी तो बधाइयाँ बटी थी उस वक़्त पे. फिर आज ऐसा कैसे हो गया कि सिर्फ एक इंसान यह निर्णय ले ले की दोनों के बीच अब कोई रिश्ता नहीं रहा. आज क्यों कोई मौलवी उससे पूछता नहीं की तुम्हे भी तलाक़... तलाक़... तलाक़... बोलना चाहिए इस रिश्ते को ख़तम करने के लिए. कि सिर्फ एक इंसान का बोलना नाकाफ़ी है. कि आज वो सारे रिश्तेदार, पड़ोसी कहाँ गए जो पिछली दफ़ा के इक़रारनामे पर खुशियाँ और बधाइयां बाँट रहे थे. 

न जानें वो क्या बड़बड़ा रही थी, कब तक बड़बड़ा रही थी. उसके अब्बा का कन्धा अलिका की अश्कों के सैलाब में गीला हो चुका था. अपनी गुड़िया को सीने से लगाए न जाने शुन्य में वो क्या ढूंढने की कोशिश कर रहे थे. शायद उसका निक़ाह से पहले का सुनहरा भविष्य वो तलाश रहे थे और जो देख पा रहे थे वो तलाक़ के बाद का अँधेरा ही था. अलिका के दोनों बच्चे टुकुर - टुकुर इन दोनों को देख रहे थे कि आख़िर उसकी अम्मी रो क्यों रही है, कि नानू चुपचाप क्यों हैं, कि क्या अब अब्बा का नाम सिर्फ़ स्कूल Admission Form तक ही सीमित रह जायेगा. शायद शांति से ही सही, पर इस तलाक़ के लिए सारे लोग कुबूलनामा कर रहे थे. क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है... 


- अमितेश