शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

कुबूल है... कुबूल है... कुबूल है...

अलिका - अली की नेमत। मोहब्बत का पैग़ाम। हाँ, यही सोच कर तो नाम रखा था उसके अब्बा ने उसका - अलिका। 

होनहार लड़की जो पूर्णतया आत्मनिर्भर थी. समाज बदल रहा था, मुसलमान भी. सो उसके अब्बा ने उसे मदरसा नहीं कॉन्वेंट में भेजा था पढ़ने के लिए. सारी सुविधाएँ दी थी अपनी एकलौती औलाद को. एक मामूली सरकारी कर्मचारी होते हुए भी कभी कोई कसर नहीं छोड़ी थी अलिका के अब्बा ने उसकी परवरिस में. समाज बदल रहा था, शायद उनका समाज भी बदल रहा था. अलिका के अब्बा इन बदलावों का फायदा उठाना चाहते थे, अपनी गुड़िया के जीवन में बदलाव ला कर - एक सकारात्मक बदलाव ला कर. 
उसे और पढ़ाना चाहते थे. और बढ़ाना चाहते थे. अभी बारहवी में थी, अभी तो सिर्फ सत्रह की ही थी. अभी तो उसे और आगे जाना था - इतना आगे की किसी दिन उनकी department में Under Secretary बन जाये, B.P.S.C. निकाल ले. 
अलिका ने भी कभी निराश नहीं किया था अपने अब्बा को. खुब मेहनत कर के पढ़ती थी. उसकी दुनिया में हर चीज पढ़ाई के बाद आती थी. उसके अब्बू ने उसे बड़े ही आज़ाद माहौल में पाला था. सो क्या पहनना, कैसे रहना, किससे बात करना जैसी बंदिशें नहीं थी उस पर. हालाँकि इस आज़ादी ने उसमे और भी नम्रता, और भी शालीनता भर दी थी. 

बेटियां अक्सर वक़्त की रफ़्तार से भी तेज़ बड़ी हो जाती हैं. अलिका अपवाद नहीं थी. सत्रह की उमर तक पहुंचते - पहुंचते घर वालों के ताने मिलने शुरू हो गए थे. उनका बहनोई अपने लड़के से अलिका का निक़ाह पढ़वाने पर जोर देने लगा था. उनके बहनोई के बेटे शौफान ने बारहवी तक की पढ़ाई की थी. थोड़ी अंग्रेजी बोल लेता था. इलेक्ट्रॉनिक की दूकान कर रखी थी चांदनी चौक में. कम भी कमाता तो महीने का 25 - 30 हज़ार कमा लेता. 25 का हो गया था. सो उसके बाप को लगता की कहीं हाथ से निकल ना जाये लड़का. कही किसी ग़लत संगत में चला गया तो अच्छा न होगा. वैसे भी मुसलमानो को अपने बच्चों के ग़लत संगत में पड़ने का अंदेशा ज्यादा ही रहता है. ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी डालना ही एक तरीका है की लड़का हाथ से निकल ना पाए. 

अलिका के अब्बा उसका निक़ाह कतई इतनी जल्दी नहीं करवाना चाहते थे. अभी तो लड़की नाबालिग़ है. फिर उसके सपने भी अभी कहाँ जवां हुए हैं. लाख कोशिशों के बावजूद वो अलिका के निक़ाह को नहीं रोक पाए. शौफान के घर वाले अंततः इस्तिख़ारा करवा ही आये. न चाहते हुए भी इमाम ज़मीन की रश्म अदायगी करनी पड़ी अलिका के परिवार को. फिर मंगनी  और परिवार में शादी का माहौल. अलिका हालांकि थी तो आज की लड़की, लेकिन थी तो लड़की ही ना. हिंदुस्तान में महिलाएं भले ही पूज्यनीय हो पर बूत ही बनी रहती है. आवाज़ उनकी हमेशा दबाई ही जाती है. मुसलमानो में भले ही बुतपरस्ती न हो लेकिन उनकी धर्म ग्रन्थ की सारी रवायतें महिलाओं को ले कर और महिलाओ के लिए ही बनाये गए हैं. कितनों से लड़ती, सो अंततः हथियार डाल दिए अलिका ने. वैसे भी कोई वो पहली लड़की तो थी नहीं इस जहाँ में जिसके सपनों को परवाज़ नहीं मिल पाया. कई हैं सो वो भी है. उसके सपनों के टूटने से समाज को तो कोई फर्क पड़ता नहीं सो किसी ने परवाह की नहीं. 
मौत भले ही इंसान को क़ब्रिस्तान में ले जाये, जीते जी वो ख़ुद ही क़ब्रगाह बन कर घूमता है - जहाँ कई अरमान, कई सपने उसके अपने ही भीतर किसी कोने में दफ़न होते रहते - और ये सिलसिला उसके शरीर के अंत में क़ब्रिस्तान में जाने तक चलता रहता. 

दिन के नज़दीक आने तक बहनों - सहेलियों की चुहलबाज़ी शुरू हो गयी थी. देखते - देखते मंझा का दिन आ गया और हल्दी में लिपटा उसका सुर्ख़ शरीर पीला सा हो गया था. अब तो उसका कमरे से निकलना भी बंद हो गया. यही मंझा की रवायत थी. फिर मेहंदी और संचक की रश्में. शुरू - शुरू में तो अलिका ने प्रतिरोध किया चीजों का, पर धीरे धीरे उसे भी सब ठीक ही लगने लगा. शायद इसी वज़ह से शादी - निक़ाह की रश्मों - रिवाज़ कई दिनों के होते है की उत्सव सा माहौल सारे संताप को धो डाले और आप बस उन रश्मों रिवाज़ की गंगोत्री में बह वो अपने अतीत को भूल जाये. 

फिर पता ही न चला कब बरात आ गयी दरवाज़े पर और कब अलिका और शौफान दो अहलदा प्राणी से एक होने की राह पर चल निकले. अलिका की आँखों के सामने उसका सत्रह बरसों का अतीत और मृत सुनहरा भविष्य तैरने लगा. लगा जैसे बीच में लगी उस सितारों वाली चादर पे उसकी जीवन की फिल्म चल रही है, Sad Ending वाली फिल्म. वो समझ नहीं पा रही थी की दोनों मौलवी ख़ुतबा पढ़ रहे थे या कोई दर्द के गीत चल रहे थे. उसकी तन्द्रा तब टूटी जब मौलवी ने निक़ाह के कुबूलनामे के लिए अलिका की इज़ाज़त मांगी. 

कुबूल है... कुबूल है... कुबूल है... इस तीन बार के कुबुलनामे ने अचानक ही अलिका को एक लड़की से औरत बना दिया. बधाईयों के दौर चल रहे थे नेपथ्य में और अलिका हर बधाई के साथ परिपक़्वता लेती जा रही थी जैसे. एक अल्हड़ से उम्र में जब दिमाग़ सौ आसमान और कई तारे घूमता फिरता है, अलिका आरसी मुसाफ़ कर रही थी. वो क़ुरान - ए - पाक़ हाथ में लिए अपने धर्म और परिवार के लिए खुद को क़ुर्बान करने की कसमें खा रही थी. 

बदलते वक़्त ने अलिका को एक ठेंठ मुस्लिम औरत बना दिया दिए. था. लेकिन फिर भी उसकी दिल के किसी स्याह से कोने में आगे पढ़ने, B.P.S.C. निकालने की चाह हिलोरे मार ही देता. शौफान ने शुरू शुरू में तो अलिका की मदद की. उसे ग्रेजुएट बना दिया. लेकिन उसे यह भय था कि अलिका कहीं B.P.S.C. न निकाल ले. फिर तो समाज में शौफान की खिल्ली ही उड़ाई जाने लगेगी. ये सोच कर उसने अलिका  को कभी B.P.S.C. की परीक्षा में बैठने नहीं दिया. पहली बार जब अलिका ने B.P.S.C. का फार्म भरा, वो पेट से थी और चौथा महीना चल रहा था. लिहाजा परीक्षा में बैठ नहीं पाई. दूसरी दफा फिर शौफान ने उसी बहाने से उसका B.P.S.C. में बैठना टाल दिया. जब तीसरी बार अलिका ने फार्म भरा तो शौफान ने अपना आपा खो दिया. जम के लड़ाई हुई दोनों के बीच. इन सारी चीजों ने फिर दोनों के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहने दिए. घर में तनाव बढ़ने लगा. इतना ज्यादा की शौफान के घरवालों ने एक तरकीब निकाल ली. शौफान घर में दूसरी औरत को ले आये. वैसे भी शरीयत के तहत वो ऐसा दूसरी बार ही नहीं, चार बार कर सकता था. हालाँकि ऐसा करने के लिए कुरान - ए - पाक़ ने कुछ नियम भी रखे हैं. पर नियम से क्या लेना देना. हम तो वही करते हैं जितना हम क़ुरान को समझना - आत्मसात करना चाहते हैं. वर्ना तो क़ुरान - ए - पाक़ का अक्षरसः अनुपालन करने लगे तो हम ही ख़ुदा न बन जाये. 

दूसरी शादी, नहीं, अलिका को ये कतई गवारा नहीं था. वो अपने शौहर को किसी और के साथ बांटना नहीं चाहती थी. सो तनाव घटने की बजाय और बढ़ता चला गया दोनों के बीच. वैसे भी वैवाहिक जीवन में तनाव - मनमुटाव दलदल की तरह होते हैं. समय रहते उससे निकला नहीं गया तो निकलना मुश्किल हो जाता है. अलिका और शौफान उसी मुश्किल वाले स्तर तक पहुँच चुके थे. तनाव के उसी आलम में अनायास ही शौफान के मुँह से निकल गया - तलाक़... तलाक़... तलाक़...
इन तीन शब्दों ने जैसे अलिका के कानों में कई लीटर पिघला इस्पात डाल दिया. अचानक ही उसे लगा की उसके घुटने कमज़ोर हो गए हैं. लगा जैसे वही बैठ जाये जमीन पर, या शायद धरती फट जाये और वो समाहित हो जाये धरती में. पर वो तो मुसलमान थी ना. वहां तो हिन्दू धर्म वाली चीजें न सोची जाती है ना की जाती है. 

एक वो समय था जब क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है... की तीन शब्दों ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी थी. हालाँकि उसे तब भी क़ुबूल नहीं था ये कुबूलनामा. बेमन से उसने क़ुबूल किया था. मौलवी ने उस वक़्त समझाया था कि इस्लाम तभी किसी निक़ाह को निक़ाह मानता है जब लड़का - लड़की दोनों क़ुबूल करें. बिना दोनों के कुबुलनामे के दो लोग साथ रह कर इस्लामी रवायतों को पूरा नहीं कर सकते. कितनी तो बधाइयाँ बटी थी उस वक़्त पे. फिर आज ऐसा कैसे हो गया कि सिर्फ एक इंसान यह निर्णय ले ले की दोनों के बीच अब कोई रिश्ता नहीं रहा. आज क्यों कोई मौलवी उससे पूछता नहीं की तुम्हे भी तलाक़... तलाक़... तलाक़... बोलना चाहिए इस रिश्ते को ख़तम करने के लिए. कि सिर्फ एक इंसान का बोलना नाकाफ़ी है. कि आज वो सारे रिश्तेदार, पड़ोसी कहाँ गए जो पिछली दफ़ा के इक़रारनामे पर खुशियाँ और बधाइयां बाँट रहे थे. 

न जानें वो क्या बड़बड़ा रही थी, कब तक बड़बड़ा रही थी. उसके अब्बा का कन्धा अलिका की अश्कों के सैलाब में गीला हो चुका था. अपनी गुड़िया को सीने से लगाए न जाने शुन्य में वो क्या ढूंढने की कोशिश कर रहे थे. शायद उसका निक़ाह से पहले का सुनहरा भविष्य वो तलाश रहे थे और जो देख पा रहे थे वो तलाक़ के बाद का अँधेरा ही था. अलिका के दोनों बच्चे टुकुर - टुकुर इन दोनों को देख रहे थे कि आख़िर उसकी अम्मी रो क्यों रही है, कि नानू चुपचाप क्यों हैं, कि क्या अब अब्बा का नाम सिर्फ़ स्कूल Admission Form तक ही सीमित रह जायेगा. शायद शांति से ही सही, पर इस तलाक़ के लिए सारे लोग कुबूलनामा कर रहे थे. क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है... 


- अमितेश 

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