मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

पारकर पेन

कब पापा सुपर हीरो से सुपर जीरो हो गए थे, सुकृत को पता भी नहीं चला. 

याद है ना कैसे पापा अपनी साइकिल में आगे की रॉड पे एक छोटी सीट लगा लाये थे. तब सुकृत कितना खुश हुआ था. लगा की पापा कितना ध्यान रखते हैं उसका. जब वो उस छोटी सीट पर बैठ कर शहर घूम जाता था, दोनों हाथ हवा में फैलाये, उसे लगता की उस एक पल को वो सुकृत नहीं सुपर कमांडो ध्रुव हो गया है. पापा साइकिल पर पैंडल भी जब मारते तो साइकिल हवा से बात करती. सुकृत उस छोटी सीट पर बैठ जैसे हवा में उड़ रहा होता. कभी एक हाथ से अपने उड़ते बालों को आँखों से हटाता कभी पीछे छूटते लोगों को मुँह चिढ़ाता. तब लगता पापा सच में सुपर हीरो हैं. उसके किसी भी दोस्त के पापा की साइकिल में आगे की रॉड पर छोटी सीट नहीं लगी थी. वो इस मामले में खुद को अपने सब दोस्तों से बेहतर मानता था. 

जब स्कूल में Attendance लगाई जाती और उसका नाम "सुकृत" पुकारा जाता तो कितना गर्व से खड़ा हो कर वो "Present Miss" बोलता. गर्व क्योंकि उसका नाम क्लास में सबसे अलग था और शायद सबसे बेहतर भी, कम से कम वो तो यही सोचता था. यह नाम भी उसके पापा ने ही दिया था - सुकृत. उस दौर में जब सबके नाम प्रसून, मिथिलेश, रामेश्वर होता था, उसके पापा ने कितना नया नाम रखा था... एकदम Unique, कितने अलग थे ना उसके पापा. सबसे अलग, सबसे अच्छे. 

सबसे अच्छा तो उसे तब लगता जब नयी क्लास में जाने पर उसकी सारी कॉपी क़िताब नयी होती और एक Sunday को बैठ कर पापा उसकी सारी कॉपी क़िताब पे रंग बिरंगे जिल्द लगाते थे. पता नहीं कहाँ कहाँ से रंग बिरंगे मोटे कागज पापा खरीद कर लाते थे, जिल्द लगाने के लिए. एक Subject की कॉपी - किताब पे एक रंग का ही कवर लगाते थे. फिर उस पर सलीके से Name Plate चिपकाते और सब पर स्केच पेन से उसका नाम, स्कूल का नाम, कक्षा  और सब्जेक्ट लिखते थे. कितनी अच्छी Handwriting थी पापा की. फिर उस कवर के ऊपर सैलोपिन पेपर का कवर लगाते कि कवर समय के साथ गंदा ना हो जाये. तीन तीन के सेट बन जाते थे रंग बिरंगे कॉपी किताबों की - एक CW, एक HW और एक उस सब्जेक्ट के किताब की. फिर उसे सिर्फ सब्जेक्ट के कवर का कलर याद रखना होता था - और झट से वो कॉपी बैग से बाहर. बार बार उसे कॉपी निकाल निकाल कर खोल कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी की सही सब्जेक्ट की कॉपी निकाली है या नहीं. कितने अलग थे ना पापा. शायद सुपर हीरो से भी बेहतर. उसकी देखा देखी उसके कुछ दोस्तों ने भी Colorful कवर लगानी शुरू कर दी थी अपनी पुस्तकों पर. लेकिन वो कवर ख़ुद लगाते थे उनके पापा नहीं और फिर उनमे वो बात भी नहीं होती थी जो सुकृत की पुस्तकों में होती थी.

फिर उसके पास मार्बल पेन्सिल थी जो पापा ने ला कर दिया था - वो भी Colorful - Orange, Yellow, Green कलर की. उसके पीछे Eraser भी लगा था. कितना ध्यान रखते थे वो उसका. सुकृत भी पापा से चिपके बिना सो नहीं पाता था. उसे लगता की एक दिन वो भी पापा की तरह ही सुपर हीरो बनेगा. सबका ख्याल रखने वाला. हर चीज को अलग ढंग से करने वाला.

आज भी याद है उसे जब पापा ने Second Hand Scooter ख़रीदा था. Bajaj का Scooter. हालाँकि तब तक उसके कुछ दोस्तों के पिता ने भी Scooter खरीद लिया था लेकिन उसके पापा का Scooter सबसे Best था.
वो एक समय था जब पापा की हर बात अलग लगती थी, निराली लगती थी. और आज वो समय है जब लगता है की व्यर्थ ही पापा को सुपर हीरो समझते रहे थे. पापा सुपर हीरो बिलकुल नहीं हैं. वो एक आम इंसान हैं. सड़क पे चलते किसी भी इंसान की तरह. पापा की साइकिल पे तेजी से चलते समय पीछे जाते किसी भी इंसान की तरह... जिसका वज़ूद उतनी ही देर तक रहता है जितनी देर तक नज़र उस पर टिकी रहती है. मेरे पापा सच में एक Ordinary Man हैं. कोई सुपर हीरो नहीं हैं. बेकार ही उन्हें इतना Importance देता रहा था मैं.

पता नहीं ऐसी कितनी बातें सुकृत के दिमाग में चल रही थी. वो अपनी काले पीले रंग वाली Street Cat Cycle पे पैंडल मारता हुआ तेजी से घर की तरफ जा रहा था.
Street Cat Cycle भी तो पापा ने ही खरीद कर दी थी ना उसे. जब ये साइकिल घर आयी थी तो जैसे वो सातवें आसमान पे था. कितने शान से पापा ने कहा था - "अब तुम हाई स्कूल में आ गए हो, तो अब इस साइकिल से स्कूल जाना."
सुकृत तो अचानक ही अपने स्कूल में सबसे अलग लोगों में शामिल हो गया था. कुछ ही बच्चे थे स्कूल में जिनके पास सीधी हैंडल वाली साइकिल थी और उनमे से भी दो - एक लड़कों के पास Street Cat Cycle. उन दो - एक लड़कों में वो एक हो गया था. रोज वो सुबह सुबह अपनी साइकिल को ग्रीस से चमकाता था. और स्कूल जाने से पहले भी एक बार साफ़ करता था. हालाँकि उसे उस वक़्त ये समझ में नहीं आया की घर में साइकिल आते ही पापा का स्कूटर क्यों घर से बाहर नहीं निकलने लगा था. क्यों स्कूटर की थोड़ी सी Servicing का काम पापा ताल रहे थे? क्यों पापा अब ऑफिस आधा घंटा पहले निकलने लगे थे. असल में वो अब कोई सुपर हीरो नहीं थे, शायद इसलिए.

क्या माँगा था उसने पापा से - एक पारकर पेन ही ना. कौन सी दौलत मांग ली थी उसने पापा से. सौ रुपये की भी नहीं थी वो पेन. सिर्फ 99 रुपये की थी. पिछले एक महीने से टाल रहे थे - अच्छा कल ले आऊंगा, परसों मैं पैसे देता हूँ तुम खुद खरीद लेना.

पापा जितना ध्यान पहले रखते थे मेरा अब नहीं रखते. परकार पेन तो सिर्फ एक चीज है. ऐसी छोटी छोटी कई चीजों को पापा टालने लगे थे. पिछली दफा जब मैंने Super Commando Dhruv और नागराज के Comics Digest की बात की थी तो भी वो टाल गए थे. अब मेरे पापा सुपर हीरो नहीं रहे थे. वो सुपर जीरो हो गए हैं.

यही सोचता सोचता कब वो अपने पापा के ऑफिस के सामने से निकल गया पता ही नहीं चला. सुकृत को पापा की ऑफिस से घर का एक शार्ट कट रास्ता पता था. सोचा चलो उस रास्ते से घर चला जाता हूँ. ऐसे तो 8 KM का रास्ता है, इधर से निकला तो लगभग 6 KM में ही पहुँच जाऊंगा. यही सोचते सोचते उसने उस रास्ते पर अपनी साइकिल घुमा ली. साइकिल अपनी रफ़्तार में चल रही थी. उसके खयाल भी उसी रफ़्तार में चल रहे थे. हर वो उदाहरण जो पापा को सुपर हीरो से सुपर जीरो साबित करे उसके दिमाग में Slides की तरह चल रहे थे. जितना ही वो सोचता उतना ही उसका विश्वास अपने पापा से उठता जाता. तभी उसे दूर एक पहचानी सी आकृति आगे जाती दिखाई दी. अरे, ये तो पापा हैं शायद. पापा ही हैं. ये पैदल कहा जा रहे हैं. अचानक सुकृत की पैरों की रफ़्तार पैंडल पे धीमी हो गयी, और साइकिल भी. वो जानना छटा था की पापा पैदल कहाँ जा रहे हैं. वो छुपता छुपाता धीरे धीरे साइकिल चलाता पापा का पीछा करने लगा. पापा घर की ओर जा रहे हैं. वो सन्न रह गया. पापा ऑफिस से घर पैदल जा रहे हैं. तो क्या पापा रोज़ ऑफिस पैदल आने जाने लगे हैं? तभी वो ऑफिस के लिए थोड़ा पहले निकलते हैं इन दिनों. रोज 6 KM सुबह, 6 KM शाम को पैदल चल रहे हैं. किसलिए, की रोज ऑटो का 14 - 15 रुपये बचा पाएं. अब तो सुकृत को काटो तो खून नहीं. पता नहीं किन परेशानियों से गुजर रहे हैं पापा. एक बार मन किया की पीछे से पापा के पास पहुँच कर बोले की पापा आ जाओ, आप मेरी साइकिल की कैरियर पे बैठ जाओ, आज मैं आपको शहर की सैर करा लाऊँ. लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी पापा तक जाने की. उसने घर के पास के दूसरे रास्ते से तेजी से साइकिल निकाल ली. शायद इतनी रफ़्तार से सुकृत ने कभी साइकिल नहीं चलाई थी. आँखों से झर झर आंसू बहे जा रहे थे. लगा की सारी फसाद की जड़ वही है. समझ नहीं पा रहा था क्या करे की पापा को कोई तकलीफ ना हो. उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर ना होना पड़े. लेकिन ये परिस्थितियां भी तो उसने ही पैदा की है. उसकी मांगें इतनी बढ़ गयी है इन  दिनों की पापा को एक - एक पैसा जोड़ने के लिए आज इतना पैदल चलना पड़ रहा है. स्कूटर नहीं बनवा पा रहे हैं.
अपने आंसुओं के समुन्दर में डूबता उतरता सोचता संभलता आखिर घर पहुँच हीं गया, पापा से पहले. साइकिल लगाया और दौड़ते हुए छत पे जाने लगा. माँ ने आवाज़ भी लगाई, पर अनसुना कर भागा वो. छत पे जा कर वो फूट फूट के रोने लगा. नहीं मेरे पापा आज भी सुपर हीरो हैं. और हमेशा रहेंगे. सुपर जीरो तो मैं हूँ. कितना कष्ट दिया है मैंने पापा को और पापा ने कभी उसे अभिव्यक्त नहीं किया, कभी उसे जानने भी नहीं दिया की वो कैसे दौर से गुजर रहे हैं. आज अचानक ही उसे लगने लगा की वो बड़ा हो गया है, सचमुच का. आज वो असल में हाई स्कूल का स्टूडेंट हो गया था. अब वो हर वो काम करने की कोशिश करेगा जो उसके पापा को ख़ुशी दे, सच्ची वाली ख़ुशी.
तभी माँ की आवाज़ आई - "सुकृत नीचे आ जा बेटा, पापा बुला रहे हैं तुझे. देख तेरे लिए क्या ले कर आये हैं."
जैसे तैसे अपनी सिसकियों पे काबू पा कर सुकृत ने अपना चेहरा धोया और भारी क़दमों से नीचे आ गया.
पापा ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठे हुए थे. उनके हाथ में एक लिफाफा था. वो उसे सुकृत की और बढ़ाते हुए बोले - "देख सुकृत, कलर तो पसंद है ना तुझे. नहीं तो मैं Return करवा कर तुम्हारी पसंद वाली रंग की ले आऊंगा."
कांपते हाथों से उसने लिफाफा ले कर खोला. एक खुबसूरत प्लास्टिक बॉक्स में नीले रंग का पारकर पेन था. 99 रुपये वाला नहीं, 199 रुपये वाला. पारकर पेन देखते ही न जाने कहाँ से उसकी आँखों से अश्रु की अविरल धारा बहने लगी. वो कस के पापा से लिपट गया. लगातार रोये जा रहा था. पापा उसके सर पे हाथ रखे उसके बाल सहला रहे थे.

- अमितेश  


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