गुरुवार, 24 सितंबर 2020

कैथरीन

दशाश्वमेघ घाट पर अद्भुत नजारा था। एक ओर गंगा अपनी धारा की चपलता को विराम दे कातर हो बह रही थी तो वहीं उसकी घाट पर लाखों दीपक दमक रहे थे। दीप हाथ में लिए हजारों मदमस्त भक्त गंगा आरती झूम - झूम कर गा रहे थे। अलौकिक दृश्य था ये। अगर बनारस की घाट पर लोगों को तर्पण मिलता है तो इस महा आरती का दर्शन लोगों के जीवन की सार्थकता को सुदृढ़ करता है। ऐसा लग रहा था जैसे देवलोक के सारे देवी देवता गंगा की उस घाट पर खड़े हो निश्चल, पवित्र गंगा को पुष्प अर्पित कर रहे हों और नेपथ्य में गंगा आरती इस वातावरण  को और भी पवित्रता प्रदान कर रही हो। 

उन कई हाथों में एक हाथ कैथरीन का भी था जो इस अद्भुत दृश्य को देख कर मंत्रमुग्ध सी खड़ी थी। एक बार को उसे लगने लगा कि वो किसी और ही दुनिया में चली गयी है। सच में शायद देवभूमि में आ गयी हो मानो। यह संपूर्ण दृश्य उसे अपने आप की क्षद्मता का बोध करा रही थी। कई भाव उसके अंतर्मन में अगाध चले जा रहे थे। अपने अंदर के कोलाहल को भीतर ही समेटे वो गंगा में बही जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि उसकी सारी भावनाएं एक ही बिंदु पर आ कर सिमट सी गई है और वो बिंदु लगातार भारी होता जा रहा है। इतना भारी की वो शायद गंगा में तैरती हुई उसकी तल तक डूबती जा रही है। जैसे उसका दम घुट रहा हो और वो सांसों के पृथक खंडो में अपना जीवन तलाश रही हो। गंगा आरती की आवाज तीव्र होती जा रही थी और उसके कानों में ठंडी जिंदगी भरती जा रही थी। एक अजीब सी उहापोह की स्थिति आ गयी थी। वो जैसे जीवन - मृत्यु और अमरत्व के तिराहे पर खड़ी है और राह चुनना उसकी समझ से भी  परे होता जा रहा है। तभी एक गर्म हथेली उसने अपने कंधे पर महसूस किया। ऐसा लगा जैसे उस एक हाथ ने उसे इन सारी सांसारिक गतिविधियों से बाहर निकाल दिया हो। एक अनंत सुकून की अनुभूति हुई। वह अपने सांस वापस पा कर इतना बेहतर महसूस कर रही थी कि एक बार पीछे मुड़ना भी जैसे जरुरी नहीं समझा। जिंदगी के कुछ क्षण अपने में भरने के बाद वो उस देवदूत को देखने के लिए पीछे पलटी। वहां कोई नहीं था। जो अभी कुछ क्षण पहले सुलझा था वो अचानक फिर उलझ गया। अजीब असमंजस की स्थिति थी। लगा कि माँ गंगा ने अपनी हथेली का सहारा दे उसे खुद में डूबने से उबारा हो। 

यह सब कैथरीन के लिए काफी नया था। उसने काफी सुना था बनारस के बारे में। कि ईश्वर ने पृथ्वी पर अपना घर इसी शहर में बना रखा है। जहाँ हर कंकड़, हर पत्थर में भगवान् मिल जाते हैं। जहाँ हर इंसान ईश्वर से सीधे तौर पर जुड़ा है। खुद में बसे मैं को जानने के लिए बनारस सबसे अच्छी जगह है। इस एक वक़्त पर कैथरीन को सबसे ज्यादा इसी बात की जरुरत थी। वह अपने आप से रूबरू होना चाहती थी। अपने अंदर के कैथरीन को और बेहतर ढंग से जानना चाहती थी। 

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दक्षिण स्पेन का एक छोटा सा शहर ग्रानाडा।  यह खुबसूरत शहर सिएरा निवाडा की पहाड़ी तलछटी में बसा है और मध्यकालीन इतिहास की कई गौरवशाली ऐतिहासिक स्मृतियाँ अपने में समेटे है।  यह शहर स्पेन के इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। 15 वीं सदी में जब पूरा स्पेन कई राजवाड़ाओं के क्षेत्र में बंटा था, क्षेत्रीय एकता छिन्न - भिन्न हो रही थी, यहीं के राजा फर्डिनांड नें पुरे स्पेन को एक सूत्र में बाँधा था। इस गौरवशाली इतिहास की कई गाथा पुरे शहर में बिखरे पड़े हैं। इतिहास सिर्फ युद्ध से ही नहीं भरा था, राजा फर्डिनांड और रानी इसाबेल की प्रेम गाथा से भी अभिभूत था। 

ऐसी ही कहानियाँ सुनते हुए कैथरीन बड़ी हुई थी। एक सामान्य से परिवार में पैदा हुई कैथरीन ने अपने इतिहास के प्रोफेसर पिता से कई कहानियां सुनी हैं स्पेन के बारे में। उसे इतिहास जानना और समझना अच्छा लगता था। छुट्टी के दिनों में अक्सर उसके पिता उसे स्पेन के इतिहास की कई कहानियाँ सुनाया करते, अपने बाग़ में बैठ कर। और कैथरीन मंत्रमुग्ध हो जिया करती उन ऐतिहासिक वर्णन को। अक्सर वो उन कहानियों में खो सी जाती। जैसे वो भी उस समय में पहुँच गयी हो और हर ऐतिहासिक घटनाओं का हिस्सा बनी हो। कभी वो खुद में हाब्सवर्ग स्पेन को देखती तो कभी वो फ्रांस की क्रांति के दौरान की योद्धा बन जाती, और अपने स्पेन के भविष्य के लिए शत्रुओं से दो - दो हाथ करती। कभी तो उसे अपने - आप में इसाबेल की प्रतिछाया दिखती और अचानक ही वो उस महारानी की तरह की छुईमुई भावों को आत्मसात कर लेती अपने भीतर, फिर कभी वही इसाबेल तलवार निकाल निकल पड़ती शत्रुओं से लोहा लेने, अपने स्पेन की स्वाभिमान की रक्षा में। ऐसे ही कैथरीन बड़ी हो रही थी। वैसे ही जैसे कोई भी सामान्य लड़की बड़ी होती है। 

एक दिन उसके पिता ने उसे भारत और भारत की गौरवशाली इतिहास के बारे में बताया। एक बार तो कैथरीन भारत की कहानियों से अपनी आप को जोड़ भी नहीं पा रही थी। वैसे भी यूरोप के पास अपना ही इतना है कि वहां के लोगों को एशिया की ज्यादा ना तो जानकारी होती है ना समझ। सिर्फ इंसान होने भर की ही समानता है दोनों महादेशों में, बाकी कुछ नहीं - न खान - पान, न रहन-सहन और ना हीं रीति - रिवाज़। सो इस बार वो कहानी को कहानी की तरह ही सुन गयी। अधिकतर इतिहास तो सारे जगहों की एक सी हीं होती है जहाँ राजा अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ता है और जो ताकतवर होता है वो राज करता है। इस पूरे इतिहास में धोखा, विद्रोह और प्यार की कई छोटी - छोटी कहानियां होती हैं जो किसी देश के भविष्य में अहम् हो ना हो पर किताबों का हिस्सा जरूर बनती है। भारत की कहानी कमोवेश उसे यूरोप के इतिहास जैसा ही लगा - बस नाम थोड़े अलग थे। 
जो एक बात उसे भारत की अलग लगी वो थी भारत में देव परंपरा और पुनर्जन्म की बातें, कई अवतार की कहानियाँ।  उस समय उसे लगा था कि अगर कभी घूमने का मौका मिला तो वो भारत एक बार तो जरूर जाएगी। 

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आज कैथरीन को ऐसा लग रहा था कि बनारस ने उसे पुनर्जन्म दिया है। पिछले एक हफ्ते से वो बनारस की गलियों, बनारस के घाट में अपने आप को ढूंढने, पहचानने की कोशिश कर रही थी। घंटो वो बनारस की सड़कों पर आवारगी में बहती, जुड़ती, समझती। उसका ये भारत भ्रमण एक महीने का था। लेकिन दिल्ली से यहाँ आने के बाद उसे ऐसा लगा कि वो इस शहर को छोड़ कर हीं ना जाये। बनारस की सुबह, यहाँ की गलियां, घाट, मंदिर और उनसे निकलने वाले घंटे और आरती की सुरीली आवाज ने उसे मंत्रमुग्ध कर रखा था। बनारस एक जादू की तरह उसपर चढ़ा हुआ था। वो भी इस मोहिनी माया से बाहर नहीं आना चाह रही थी। अब बात सिर्फ एक महीने की नहीं, पूरी जिंदगी की हो गयी थी। 

धीरे - धीरे उसे भारत की हर बात से प्यार होने लगा था। संकरी गलियां, अस्त व्यस्त सड़कें, बिना किसी नियोजन के बसे शहर और कस्बे, लोगों का बेवजह चिल्लाना, गंदगी फैलाना सब कुछ। उसे ये सब अपना सा लगने लगा था। बाल विवाह, वैधव्य निर्वसन, धर्मनिष्ठ दकियानूसी प्रथाएँ , दहेज, कर्मकांड सब उसे उतना परेशान नहीं करते। शायद उसे ये सब मान्य भले ही न हो पर कभी उस पर सवाल उठाना लाजिमी नहीं समझा। उसे लगता कि ये हमारी विसंगतियाँ हैं और हम धीरे - धीरे उसे दूर कर देंगे। 

कभी कभी ऐसा लगता उसे की कहीं उसका भारतीयकरण तो नहीं हो रहा है। हालाँकि इसमें उसे कोई गलत बात नहीं लगती। उसे लगा कि शायद पिछले जन्म में वो यहीं पैदा हुई थी। इस जन्म में वापस वो अपनी जड़ों से जुड़ने आ गई है। यह जरूर ईश्वर की हीं कोई अलौकिक चाल है। वर्ना न तो भारतीय ग्रानाडा शहर के बारे में जानते होंगे न स्पेन में कोई बनारस को। यह सब समय का ही खेल है जो हमारी सोंच से भी ज्यादा तेज चलती है और हमारी जानकारी के बिना ही चाल चलती रहती है। हम सब उसकी खेल के मोहरे भर हैं। 

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पिछले  कुछ दिनों में उसने थोड़ी किताबें भी पढ़ ली थी। रामचरितमानस और गीता तो जैसे उसे जीवन की किताब लगने लगी थी... महज कहानी नहीं... पूरा जीवन दर्शन। ऐसे ही एक दिन वो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की विजिटर लाइब्रेरी में बैठी पढ़ रही थी। एक मध्य आयु का युवक उसके पास ही बैठा था। आगाहे ही कैथरीन की नजर उसकी किताब पे पड़ी। वह मध्यकालीन विश्व की इतिहास की पुस्तक पढ़ रहा था और उसके लेखक का नाम अल्फ्रेडो था। अल्फ्रेडो... ओह यही तो वो है जिसने उसे भारत जाने के लिए प्रेरित किया था... जिससे उसने छुट्टी के दिनों में स्पेन और दुनिया की न जाने कितनी कहानियां सुनी थी। जिसने कभी उसके भारत जाने के निर्णय पर सवाल नहीं उठाया। जो आज तक घंटों उसके भारत भ्रमण के अनुभव को सुनता और सुनता रहता। वो जो कैथरीन की हर बात सुनता जो कैथरीन बोलती और वो भी जो वो बोलना चाहती। अल्फ्रेडो... उसका पिता... या शायद उससे बढ़कर कुछ। 

"हैल्लो, मेरा नाम कैथरीन है।"

"मैं सत्यव्रत।" उसने एक हल्की मुस्कान दी और किताब पे बुक-मार्क डाल कर साइड में रख दिया। 

"क्या आप यहाँ पढ़ते हैं?"

"हाँ, Ph.D. कर रहा हूँ, विश्व मध्यकालीन इतिहास पर। और तुम"

"मैं... मैं तुम्हारे भारत को जानने, समझने आयी हूँ।"

"अच्छा, कुछ समझ में आया।"

"यह देश अद्भुत है। मैं आजन्म यहाँ रह सकती हूँ।" कैथरीन की आँखों में एक चमक आ गयी थी। ऐसा लग रहा था कि सत्यव्रत एक विदेशी है और कैथरीन उसे अपने भारत की गौरव गाथा सुना रही है। 

"हाँ, यह निश्चित रूप से एक महान देश है। पर तुम वास्तविक तौर पे कहाँ से हो?" सत्यव्रत उसे और जानने को उत्सुक था। 

"ग्रानाडा... "

"ओह तो तुम तो प्रोफेसर अल्फ्रेडो को जरूर जानती होगी। यह भी तुम्हारे ही शहर के हैं।" किताब दिखाते हुए सत्यव्रत ने बोला, "इनकी मध्यकालीन इतिहास की जानकारी से मैं तो मंत्रमुग्ध हूँ। लिखने की शैली भी ऐसी की लगता है इनकी बताई बातें सच्चाई के सबसे करीब हैं।" लगभग बिना रुके एक सांस में बोल गया था वो। 

"हा... हा... हा... हा... हाँ मैं इन्हे बहुत ही अच्छे से जानती हूँ।  पर ये इतने अच्छे हैं ये आज पहली बार पता चला"  शरारत में कैथरीन अपने आँखों को छोटा बड़ा कर के बोल रही थी।

सत्यव्रत थोड़ा गंभीर हो गया। बोला, "तुम्हें इन्हे पढ़ना चाहिए, शायद तब तुम्हे इनके ज्ञान का आभास होगा।"

कैथरीन अब तक तो जैसे सातवें आसमान पे जा पहुंची थी। कोई भी पहुँच जाता जब अपने पिता की तारीफ़ सुने, वो भी अपने घर से मीलों दूर, किसी अनजान से शहर में किसी अनजान व्यक्ति से। 

"मुझे इन्हे पढ़ने की जरुरत नहीं है इनकी महानता जानने के लिए। इन्हे सुन कर बड़ी हुई हूँ। ये मेरे पिता हैं।"

सत्यव्रत बड़े ही असमंजस की स्थिति में पड़ गया था। समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। बस एक झेंपी सी हंसी हंस दी उसने। 

"विश्वास नहीं हो पा रहा है की मैं प्रोफेसर अल्फ्रेडो की बेटी के साथ बैठा हूँ। दुनिया सच में बहुत छोटी है। अल्फ्रेडो मेरे द्रोणाचार्य हैं, भले ही मैं उनका एकलव्य हूँ। उन्हें नहीं तो उनकी बेटी को ही सही, मैं कॉफ़ी पिला कर गुरु दक्षिणा दे सकता हूँ।" झेंप में सत्यव्रत ने बोला। 

"माफ़ करना, सन्दर्भ काफी हिंदुस्तानी है, पता नहीं कितना समझ पायी हो तुम मेरी भावनाओं को, प्रोफसर अल्फ्रेडो के लिए।" अपने आप में ही बड़बड़ाता हुआ सत्यव्रत ने जोड़ा। 

"ठीक है। अगर कॉफ़ी गुरु दक्षिणा है तो मैं ले लुंगी। वापस स्पेन जा कर डैड को मैं वो कॉफ़ी खुद से बना कर पिला कर ऋणमुक्त हो जाउंगी। और हाँ, मैंने कुछ किताबें और तुम्हारे कुछ ग्रन्थ पढ़े हैं। सो तुम इस भाषा और ऐसे सन्दर्भों में मुझसे बात कर सकते हो।"

***

"Black Coffee for me. और तुम!" जैसे अपने पिता की गुरुदक्षिणा कैथरीन decide कर रही थी। 

"दोस्त, एक Black Coffee और एक मसाला चाय ले कर आना।" आर्डर दे कर सत्यव्रत अभिभूत हो कैथरीन को देख रहा था। उसे अभी भी भरोसा नहीं हो पा रहा था कि सामने बैठी लड़की प्रोफेसर अल्फ्रेडो की बेटी है। वो प्रोफेसर अल्फ्रेडो की लड़की के साथ बैठा है।

कैथरीन उसकी तन्द्रा भंग करती है, "अब कुछ बोलोगे भी या यूँ ही खुद से बातें करते रहोगे।"

"हाँ, दुनिया कितनी छोटी है ना!"

"Oh God! तुम अब भी वहीं हो।"

"नहीं, नहीं। अच्छा छोड़ो। बताओ क्या क्या देखा तुमने हमारे इस अद्भुत देश में। कहाँ - कहाँ घूम आयी।" सत्यव्रत माहौल को सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा था। 

"बनारस और बस बनारस। यहाँ की गलियां, यहाँ की गंगा, यहाँ के लोग, यहाँ के घाट, श्मशान, महादेव, हनुमान... सब कुछ। सब जगह घूम आयी। यहाँ की पवित्र सुबह, बेहतरीन शाम, अल्हड़ दोपहर... सब देखा।"

"अरे... अरे... अरे... बस भी करो अब। अब क्या बोल बोल कर बनारस घुमा दोगी। भारत बनारस से बड़ा और भरा है। मैं खुश हूँ कि तुम्हे मेरा शहर इतना पसंद आया। लेकिन मेरी सबसे पसंदीदा जगह है गोकुल। हाँ, बनारस तो है हीं।"

"अच्छा, मेरा Visa Extension हो जाये तो वहां भी जाऊंगी। पर बनारस तो जैसे मुझमे बस गया है, मैं बनारस में बसु या ना बसु।"

काफी देर तक उनकी कभी स्पेन तो कभी भारत और बनारस की बातें चलती रहीं। कब शाम ढल गयी पता ही ना चला। 

"चलो बहुत देर हो गयी अब। हमें चलना चाहिए।" बैग उठाते हुए कैथरीन ने कहा। 

आज का गुरु और गुरु दक्षिणा का कार्यक्रम ख़त्म हो गया था। जो ख़त्म नहीं हुई थी, वो थी उनकी दोस्ती, ये तो अभी शुरू ही हुई थी। 

***

इस एक महीने के बनारस प्रवास में सत्यव्रत पहला इंसान था जिसने कैथरीन को थोड़ा ज्यादा प्रभवित किया था। शायद एक अच्छे मित्र की तरह। और ये connection भी ख़ास था, क्योंकि यह इंसान उसके पिता के कार्यों का अनुरागी था। सो कैथरीन ने उसे ले कर एक Soft corner develop कर लिया था। 

सत्यव्रत की इतिहास की जानकारियां भी खूब थी। उससे भी बेहतर था इतिहास को सुनाने का उसका अंदाज। ऐसा लगता जैसे सारी घटनाएं आँखों के सामने ही घटित हो रही है। जैसे उसे सुनने वाला उस काल खंड में चला जाता और पूरी घटनाक्रम का हिस्सा सा बन जाता। पुराने समय की बातों को आधुनिक सन्दर्भों में समझाने और बखान करने का उसका अंदाज भी काफी निराला है। जब वह इतिहास में जाता तो सच में इतिहास में चला जाता। आसपास के लोग भी मंत्रमुग्ध हो उसके साथ घूमते रहते अतीत में। 

कैथरीन को उसका यह अंदाज बहुत भाता था।  वो अक्सर उसे अपनी बातों से लगभग धक्का दे कर इतिहास में ढ़केल देती और सत्यव्रत तैरता जाता गौरवशाली अतित में, कैथरीन भी अपने उस क्षण का पूरा लुत्फ़ उठाती। कभी कुछ काले अध्याय पे जा कर वो ठिठक जाता तो कभी उससे अनजान बन साफ़ मुकर जाता। फिर वो इतिहास पौराणिक हो, आधुनिक हो या मध्यकालीन या किसी भी राज्य, प्रान्त और देश से सम्बंधित हो। सत्यव्रत के लिए इतिहास उसका अपना घर जैसा था। उसकी इस कला को विश्वविद्यालय के लड़के समझते थे। अक्सर वो घिरा रहता था उन उत्साही लड़के - लड़कियों के बीच University Amphitheater में। कई राजा - महाराजा अपने युद्ध उस Amphitheater में लड़ आते, कई रानियाँ अपने प्रणय संवाद वहीँ करती, कई क्रन्तिकारी वहाँ अपने देश पे जान न्योछावर कर जाते। कई राजनितिक षड्यंत्र वहाँ रचे जाते, कई वंश वहाँ अपनी शक्ति क्षीण कर जाती, कई नए राजवंशों का अभ्युदय वहां होता। अगर सत्यव्रत वहाँ होता तो Amphitheater इतिहास के पन्नों में तब्दील हो जाता, सदियां वहां लम्हों में व्यक्त हो जाते। सारे उत्साही छात्र उन घटनाक्रम के पात्र बन जाते और सत्यव्रत उस नेपथ्य से आने वाली आवाज बन जाता। कैथरीन को यह दुनिया बहुत भाती थी। वो बेलौस बह रही होती इन कहानियों में। 
 
कैथरीन ने एक बार उसे बोला था कि अपने अंदाज में उसे उसके देश की कहानी सुनाये। वो अपने देश के बारे में किसी परदेशी से सुनना चाहती थी। शायद उसे एक अलग परिपेक्ष्य जानना था अपने इतिहास का। सत्यव्रत ने मुस्करा कर हामी भर दी। 

***

"वो समय था प्रभुत्व का। जो मजबूत था वो राज कर रहा था। जिसमे क्षमता नहीं थी वो उस सत्ता व्यवस्था का हिस्सा बन जाते। यूरोप में पंद्रहवी शताब्दी में जंगल का कानून चलता था। हर समय छोटे - छोटे साम्राज्य युद्ध और षड्यंत्र के दंश को झेलने को मजबूर रहते थे। फिर चाहे इटली का युद्ध हो जो अस्सी वर्ष चला या फ्रेंको - स्पेनिश संघर्ष जो तीस वर्षों तक चला था। अजीब यह की हर युद्ध यूरोप में सत्ता परिवर्तन तो लाता था, पर सामजिक परिवर्त्तन नहीं। यह सिर्फ वर्चस्व की लड़ाई थी। आम जन इन पूरी परिस्थितियों में सबसे ज्यादा पिस रहा था। धीरे धीरे आमजन का स्वाभिमान भी कम होता जा रहा था। पूरा यूरोप कई छोटे - छोटे साम्राज्य का समूह बनता जा रहा था। उस समय का यूरोप कई छोटे खेमों में बंट सा गया था। फ्लोरिडा, लुसियाना, सैंटो डोमेनियन, ग्रानाडा, पेरू, रिओ-डी-ला-प्लाटा, कैनेरी द्वीप, एफिनि जैसे कई प्रान्त इसी वर्चस्व की लड़ाई से बने साम्राज्य थे। पूरा यूरोप कई भाषा और पंथों में बंटा था। राज तो सब कर रहे थे, लेकिन सुधार कोई नहीं करना चाहता था परिस्थितियों का। हत्या, षड़यंत्र, ऐय्याशी की कई कहानियां प्रचलित थी उस समय के यूरोप में। यही वजह है की मैंने उस युग में जंगल राज की बात की। 

उसी समय स्पेन में हब्सबर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। हब्सबर्ग हालाँकि एक छोटा प्रान्त था स्पेन का, पर वो एक नया इतिहास लिखने जा रहा था यूरोप का। सोलहवीं शताब्दी में हब्सबर्ग में सत्ता परिवर्तन हुआ और सत्ता राजा चार्ल्स प्रथम के हाथ में आयी थी। चार्ल्स सिर्फ साम्राज्यवादी सोंच ही नहीं रखता था, उसके पास एक दूरदर्शिता भी थी। उसकी सोंच में राज करना महत्वपूर्ण तो  था, राज्य को समृद्धि की राह पर ले जाना भी महत्वपूर्ण था। तब जबकि राजाओं के जन्मस्थान को राजधानी बनाये जाने की प्रथा थी, चार्ल्स ने आधिकारिक दीर्घकालीन राजधानी मेड्रिड को बनाया। उसने राज-व्यवस्था चलाने के लिए मंत्रिमंडल बनाया, जो उस समय में नहीं बनाये जाते थे। राज्य के सारे निर्णय या तो राजा स्वयं लेता था या उसके निकट के चाटुकार राजा के निर्णय को प्रभावित करते थे। चार्ल्स ने इस प्रथा को अस्वीकार कर एक सुदृढ़ मंत्रिमंडल का गठन किया और मंत्रिमंडल में सिर्फ छोटे राज्यों के राजाओं और जमींदारों को ही जगह नहीं दी, बल्कि कई विद्वानों को भी मंत्रिपरिषद का सदस्य बनाया। हब्सबर्ग के सारे फैसले अब मंत्रिपरिषद की बैठकों में लिया जाने लगा। उसने भाषा और पंथों का एकीकरण करना शुरू किया। स्पेनिश को आधिकारिक भाषा बनाई गयी। चर्च के मेमोरियल में स्पेनिश भाषा में शिक्षा दी जाने लगी। कैथोलिक को आधिकारिक धर्म बनाया गया। जो पंथ कैथोलिक धर्म को मानने से इंकार करते उन्हें छल - लालच से धर्म परिवर्तन करवाया जाता। जहाँ छल - लालच काम नहीं काम आता वहां उसने बल प्रयोग कर पुरे समुदाय का धर्म परिवर्तन करवाया। वजह यह नहीं थी कि चार्ल्स धार्मिक प्रवृत्ति का था, वजह यह थी कि कोई भी सुधार तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक समाज एक जुटता ना दिखाए। अलग अलग पंथों के लोग अपनी प्रभुत्व की लड़ाई ना लड़ती रह जाये। और समाज को एकजुट करने के लिए धर्म से बेहतर साधन और क्या हो सकता है। 

उस समय हब्सबर्ग कई सुधारों का गवाह बना था। प्रारम्भ में चार्ल्स को आम जन के काफी विरोधों का सामना करना पड़ा। पर इन सारे आतंरिक परिवर्तनों को उसने बड़े ही अहिंसात्मक तरीके से लागू किया। एकबारगी तो उसके अपने चुने हुए मंत्रिपरिषद ने भी उसका विरोध किया लेकिन चार्ल्स की क्षमताओं पर किसी को संदेह नहीं था। चार्ल्स ने अपने विद्वानों को स्पेन का संविधान लिखने को बोला। हब्सबर्ग स्पेन का संविधान मानव इतिहास का संभवतः प्रथम लिखित संविधान था। 

चार्ल्स ने यूरोप के छोटे साम्राज्यों को एकीकृत करने में काफी अहम् भूमिका निभाई थी। उसने हब्सबर्ग के सुधारों का प्रचार कर कई साम्राज्यों में Civil War की स्थिति पैदा की। राज्यों को जीतने के लिए राजाओं को हराने कि बजाय जनता को जीतना शुरू किया। हालाँकि इस जीत - हार में चार्ल्स अपना दिल इशाबेल के क़दमों में हार गया था। यूरोप के क्रन्तिकारी सुधारों की पृष्ठ्भूमि में चार्ल्स और इशाबेल की प्रेम - कथा भी खासी चर्चा का विषय बनती जा रही थी। इशाबेल भी लड़ाकों के परिवार से थी सो कई लड़ाइयों और सामजिक सुधारों में चार्ल्स के कंधे से कन्धा मिला कर काम कर रही थी। वह दौर था जबकि यूरोप में महिलाये अमूमन भोग - विलासिता की वस्तु मानी जाती  थी, इशाबेल ने उस मिथ को तोड़ा था। 

आज का यूरोप चार्ल्स और इशाबेल के सपनों का यूरोप है। पंद्रहवी - सोलहवीं शताब्दी में लाये गए चार्ल्स के परिवर्तन आज भी यूरोप की जीवन रेखा सी है। कई संवैधानिक व्यवस्थाएं सैकड़ो सालों के बाद भी आज तक यूरोप की अलौकिकता को वृहत्तर बनाता है।"

यह पूरी कहानी कहते कहते सत्यव्रत कई दफा लोगों के बीच से गुजर जाता। पर उस Amphitheater में  बैठे छात्र बुत बने यूरोप की इतिहास का हिस्सा बने हुए थे। कैथरीन ने अपने पिता से भी सोलहवीं शताब्दी के यूरोप की ऐसी व्याख्या नहीं सुनी थी। वह भी बनारस हिन्दू विश्वविधालय की Amphitheatre में बैठे बैठे हब्सबर्ग की सैर कर रही थी। कभी सत्यव्रत में चार्ल्स को तो खुद में इशाबेल को तलाश रही थी। 

बड़ा ही मनोरम माहौल था वहां का। सत्यव्रत ने जब बोलना बंद किया तो भी कुछ क्षण के लिए सारे छात्र और कैथरीन हब्सबर्ग स्पेन और मध्यकालीन यूरोप से बाहर नहीं आ पाए थे। सत्यव्रत वैसे ही खड़ा मुस्करा रहा था जैसे पाइप पाइपर चूहों को सम्मोहित हुआ देख अपनी कला पर इतरा रहा हो। 

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"वाह! तुमने तो पूरा मध्यकालीन यूरोप मेरी आँखों के सामने रख दिया था। इतनी बढ़िया व्याख्या तो मेरे पिता भी नहीं करते... या शायद वो भी इसी अंदाज में मुझे मेरे इतिहास की सैर कराते। मैं तो मंत्रमुग्ध हो गयी थी कल।" अभिभूत कैथरीन सत्यव्रत की कथा वाचन की कला और उसकी जानकारिओं की प्रशंसा कर रही थी। सत्यव्रत ने मुस्करा कर उसे अपने पास रख लिया। 

"अच्छा सुनो, मैं अगले हफ्ते मथुरा जा रहा हूँ। कुछ काम है। वहां बाबा बासुकी का आश्रम है। कृष्ण जन्मभूमि मंदिर के पास। वहीं रुकना है। बोलो देखना है मेरे हिंदुस्तान के एक नए रंग को? काशी हमारी संस्कृति के वीर और विभत्सव स्वरुप को बताता है तो मथुरा की हवाओं में प्रेम है। देखना चाहती हो हमारी संस्कृति के इस स्वरुप को?" सत्यव्रत जैसे सारा वर्णन कर देना चाहता था। 

ठीक है। काशी तो मेरे में रच बस सा गया है। वैसे तो मुश्किल है काशी के आगे सोचना भी। पर चलो देखें और कितने चमत्कार बिखरे पड़े हैं तुम्हारे हिंदुस्तान में।" कैथरीन थोड़ी उहापोह कि स्थिति में थी पर मन में कहीं हिंदुस्तान को और आत्मसात करने की ललक भी थी। 


***

"तो ये है हमारी मथुरा। हमारे कान्हा की जन्मभूमि। वो कृष्ण जिनके हर भाव और स्वरुप की अनेकों गाथाएँ सुनकर हर हिन्दुस्तानी बड़ा होता है। कृष्ण जो अपनी नटखट बाल लीला से सब का मन हर लेता था, जिसकी मित्रता का कोई सानी नहीं। जिसके रूप पे हर महिला वारी जाती। जिसने भारतीय इतिहास की संभवतः सबसे अद्भुत युद्ध को सारथि बन देखा था और वो कृष्ण जिसने ज्ञान की ऐसी गंगा बहाई गीता के रूप में कि आज भी उसका कोई मुकाबला नहीं।" मथुरा की सीमा में पहुँचते सत्यव्रत अपने उत्साह की चरम पर था। 

कैथरीन अपने आप में ही अभिभूत थी। यहाँ आने से पहले उसने काफी पढ़ा था हिंदुस्तान के बारे में। तक़रीबन Ph.D. कर ली थी भारत पर। वो ध्यान भी नहीं दे रही थी सत्यव्रत पर। सत्यव्रत अपनी ही रफ़्तार में मंत्रमुग्ध हुआ मथुरा को प्रतिपादित करता जा रहा था। कैथरीन अपनी विचारों में विचरण कर रही थी। कहते हैं मथुरा में कहीं भी खड़े हो जाइये, आपको बांसुरी की मधुर आवाज सुनाई देगी। जैसे कृष्ण आज भी वहां की फिजाओं में बिखरे हैं। कैथरीन जैसे एक तिलस्म से निकल कर दूसरे तिलस्म में आ गयी थी। जैसे ये देश उसके लिए मैप पर फैला बृहत जमीन का हिस्सा नहीं था बल्कि एक अनुभव था, एक सम्मोहन था। 

***

बाबा बासुकी का आश्रम 10 एकड़ क्षेत्र में फैला खूबसूरत आश्रम था। जिसके चारो ओर तक़रीबन 10 फ़ीट ऊँची चारदीवारी थी। चारदीवारी से लग कर कुछ मकान बने थे। कुछ मकान Guest House, कुछ मंदिरनुमा निर्माण ध्यान केंद्र थे। एक Admin Block था। आश्रम के बीच का क्षेत्र खाली स्थल था जहाँ कुछ सामुदायिक आयोजन होते थे। पुरे क्षेत्र में कई कदम्ब और अशोक के वृक्ष लगे थे। जगह जगह छोटी छोटी क्यारिओं में कई फूलों के पौधे लगे थे, जिनके रंगबिरंगे फूल आश्रम की खूबसूरती को और भी बढ़ा दे रहे थे। एक छोटा तालाब भी था जिसके चारो ओर सीढियाँ बनी थी। जगह जगह दीवारों और चारदीवारी पे कृष्ण रास और कृष्ण लीला की कई आकृतियाँ और नक्काशियां थी। कुल मिला कर यह आश्रम कृष्ण काल में किसी को भी खींच ले जाने में सक्षम था। 

कैथरीन आश्रम की सुंदरता में मग्न थी। तभी बांसुरी की सुरीली आवाज ने उसका ध्यान अचानक अपनी ओर खींच लिया। तालाब के पास के एक चबूतरे पर एक व्यक्ति पिताम्बर वस्त्र पहने बैठा और बांसुरी बजा रहा था। उसकी बांसुरी में गजब का सुरीलापन था। जैसे उसकी धुन ने पुरे वातावरण में मिश्री घोलना शुरू कर दिया था। 

कैथरीन के लिए यह सब एक तिलस्म की तरह लग रहा था। वह स्वर्गलोक की एक कॉलोनी से निकल दूसरी कॉलोनी में आ गयी थी जैसे। वह इस आश्रम की अद्भुत छठा देख ऐसा मंत्रमुग्ध हुई की सुध ही ना रहा कि कब सत्यव्रत उससे काफी आगे निकल आया। 

सत्यव्रत तेज क़दमों से वापस उसके निकट आया। तक़रीबन हांफता हुआ बोला - "अरे मैडम, कहाँ खो गयी? क्या हुआ? यह जगह पसंद नहीं आयी क्या? इतने ठिठके कदम क्यों है तुम्हारे?" एक ही सवाल को कई तरीके से पूछ लिया था उसने। 

"न... नहीं! क्या मैं किसी Dream Land में आ गयी हूँ। शायद सपने में हूँ मैं। ऐसा आश्रम मैंने कहीं नहीं देखा है। यह बहुत ही अद्भुत है।" अपनी चिरतंद्रा से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी कैथरीन। 

"हा... हा... हा... हा... , मैंने कहा था न कि मेरा भारत अद्भुत है। कई काशी हैं मेरे इस देश में। फिर यह तो आश्रम है, मंदिर तो तुम्हे किसी और ही लोक में ले जायेगा।" बड़ी ही नाटकीयता थी सत्यव्रत की आवाज में। 

" हूँ..." अभी भी कैथरीन सम्मोहित ही थी यहाँ की छटा देख कर। 

दोनों Admin Building में पहुंच गए थे इन्ही बातों - बातों में। सत्यव्रत वहां कमरा लेने की सारी Formality पूरी कर बाहर निकला। कैथरीन को महिला Guest House में ले जाया गया, जबकि सत्यव्रत पुरुष छात्रावास की ओर चला गया। 

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कैथरीन को एक छोटा सा कमरा दिया गया था।  कमरे में एक तरफ दरवाजा और दूसरी तरफ एक छोटी बालकनी थी। एक Single Bed एक दीवार से लग कर रखा था जिसपे गेरुआ चादर और Pillow Cover रखा था। दूसरी दीवार से लग कर दो बेंत की कुर्सियां और एक छोटा बेंत का टेबल रखा था। एक कोने में एक छोटी बांस से बनी आलमारी रखी थी, शायद कपड़े और दूसरे सामान रखने के लिए। वहीं एक ओर एक छोटी सी Bookshelf लगी थी थोड़ी ऊंचाई पर। उसमें कृष्ण से जुडी कुछ साहित्य रखी थी, हिंदी और अंग्रेजी की। पुरे कमरे की साज - सज्जा काफी सकारात्मकता फैला रही थी। कैथरीन बड़ा खुश हुई इस कमरे में आ कर। 

उस गेस्ट हाउस की जिम्मेदारी मीरा दीदी संभालती थी। मीरा दीदी एक मध्य आयु की महिला थी। एक आम डील - डौल, पर उनके चेहरे से गजब का तेज टपकता था। उसने कैथरीन को कमरा दिखाते हुए कहा - "यहाँ कई पर-प्रांतीय लोग आते हैं। कृष्ण भक्ति ऐसी ही है कि यह लोगों को दूर - दूर से खींच लाती है। आप भी इसी वजह से आयी हैं ना?"

"नहीं - नहीं! मैं तो काशी में रहती हूँ। यहाँ अपने एक मित्र के साथ आयी हूँ। उसे कुछ कार्य था और मुझे मथुरा देखना था। सो आ गयी।" कैथरीन ने अपनत्व दिखाते हुए बोला। 

"अच्छा! तो आप हमारे बाबा की नगरी से आयीं हैं। वह तो बहुत चमत्कारी हैं। कहते हैं कि जो काशी में रहता - मरता है उसे मोक्ष मिलती है।" 

"हूँ। पर मथुरा में ऐसा लगता है कि मोक्ष के लिए मरने की जरुरत नहीं है। अगर कहीं मोक्ष होता है तो शायद मथुरा जैसा ही दीखता होगा। यह अद्भुत स्थल है।" कैथरीन अभी भी अभिभूत थी। 

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सत्यव्रत को यहाँ कुछ कार्य था। वो उन्हें निपटा रहा था। इस दौरान मीरा दीदी कैथरीन की संगिनी हो गयी थी। वो उसे मथुरा घुमाती, मथुरा के बारे में समझाती और कृष्ण भक्ति की शक्ति का वर्णन करती। कैथरीन ने भी कुछ किताबें पढ़ ली थी इस दौरान कृष्ण को समझने की चेष्टा में। कृष्ण को तो वो कितना ही समझ पायी, पर वह धीरे - धीरे शैव से वैष्णव होती जा रही थी। लगा कि शायद यही वो मंजिल है जिसके लिए वो मृग बनी भटक रही थी सारे जहाँ में। कृष्ण का प्रेम उसे भा गया था। वो धीरे धीरे कृष्ण का अंतर्मन से वरण करती जा रही थी। 

"कैथरीन मैंने अपने सारे कार्य निपटा दिए हैं। सोचता हूँ एक दिन और रुक कर परसों वापस काशी चलते हैं।"  

सत्यव्रत तालाब के पास के चबूतरे पर बैठे बैठे कैथरीन से सारा Plan Discuss कर रहा था। कैथरीन गेंदे के फूलों की माला बना रही थी। अगले हफ्ते कृष्णलीला का मंचन होना था आश्रम में शरद पूर्णिमा की शाम को। आश्रम के ही अनुयायीओं ने यह आयोजन किया था। तालाब के पास इसका मंचन होना था। परसों वापस जाने की बात सुनकर अचानक ही कैथरीन के हाथ थम से गए। 

"परसों... पर अगले हफ्ते तो यहाँ कृष्णलीला का मंचन है। मैं उसे देखना चाहती हूँ। पढ़ा तो बहुत है कृष्ण के बारे में, अब जो यह देखने का मौका मिला है तो उसे गवां देना नहीं चाहती। यह मेरे लिए एक अच्छा अनुभव होगा।" कैथरीन बड़ी ही कातरता से उसे अपना प्लान बता रही थी। 

सत्यव्रत मुस्करा दिया - "अरे मैडम किसी एक ईश्वर पर तो टिकी रहो। ऐसे तो मोक्ष नहीं मिलेगा।"

"आत्मिक शांति तो मिलेगी। मरने के बाद कहाँ जाना है की फिक्र अभी क्यों करें। काशी मेरी आत्मा तो मथुरा मेरा शरीर सा बन गया है। तुम वापस चले जाओ। मैं अगले हफ्ते आऊँगी।" 

"अच्छा! फिर मैं परसों सुबह की बस से निकल जाऊंगा। अगले दो दिन मैं बस आश्रम के दोस्तों के साथ बातें करूँगा। पर एक बात की ख़ुशी है मुझे कि मेरा तुम्हें यहाँ लाना सार्थक सा हो गया लगता है।" सत्यव्रत अभी भी अपनी मुस्कान बिखेर रहा था। 

कैथरीन ने मुस्करा कर उसकी बातों को स्वीकारोक्ति दी थी। 

***

पूरा आश्रम फूलों से महक रहा था। जहाँ देखो वहीं फूल दिख रहे थे। आज शरद पूर्णिमा थी। आश्रम में रासलीला का मंचन होना था। सारे लोग एक अलग ही मस्ती में नजर आ रहे थे। 
कैथरीन ने मीरा दीदी से पूछा कि रास क्या होता है। 

मीरा दीदी इस एक प्रश्न से जैसे परालोक में चली गयी। उसके चेहरे की मुद्रा बदल गयी। आँखें तपस्या करते समय सा अधखुला था। उसने गंभीर आवाज में बोला - "कृष्ण के द्वारा गोपियों के साथ की अलौकिक लीला रास है। श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार कृष्ण भगवान् विष्णु का द्वापर युग अवतार हैं। जब भगवान् राम अपनी चौदह वर्षों का वनवास कर रहे थे तो अनेक ऋषि उनके संपर्क में आये। किन्तु राम किसी एक स्थल पर ज्यादा समय तक नहीं रुक पाते थे सो इन ऋषि - मुनियों के साथ उन्होंने ज्यादा समय नहीं बिताया। राम भक्ति में इन ऋषियों ने भगवान् राम से पुनः जन्म लेने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने श्रीराम से कहा कि द्वापर युग में वो उनके कृष्णावतार में गोपियों की भांति उनकी प्रेम - भक्ति में लीन होना चाहते हैं। श्रीराम ने मुस्करा कर उन्हें वचन दिया की मथुरा - वृन्दावन में वो उनसे अवश्य मिलेंगे और कृष्ण - तांडव करेंगे। यह कृष्ण तांडव ही रास लीला है। कहते हैं कालांतर में ये ऋषि - मुनि गोपी रूप में द्वापर युग में आये। कृष्ण हालाँकि भगवान् विष्णु का एक वीर - स्वरुप था। इनका अवतरण धर्म की रक्षा के लिए हुआ था। मृत्युलोक में जब अधर्म बढ़ने लगा था तो भगवान् विष्णु ने अपने चक्र के साथ कृष्ण रूप में अवतरण किया था और धर्म की पुनर्स्थापना की थी। किन्तु सतयुग के अपने वचन को मानते हुए उन्होंने गोपियों संग कृष्ण तांडव किया था। 

रासलीला वास्तव में एक परम आनंद की असीम अनुभूति थी जो गोपियों को समस्त मोह, माया, भय, बंधन से मुक्त कर एक अलौकिक आनंद प्रदान करता था। यह एक प्रकार से शारीरिक अवस्था में भक्ति के माध्यम से आनंदमयी मोक्ष की संकल्पना का साकार स्वरुप था। अक्सर कृष्ण कदम्ब वृक्ष के नीचे रास करते थे जो उनका सबसे पसंदीदा जगह थी।" मीरा दीदी अपने अनवरत प्रवाह में कृष्ण भक्ति में बही जा रही थी। 

"वाह! अप्रतिम! मैंने रास की यह व्याख्या कभी नहीं सुनी थी। रास का मतलब अबतक तो प्रणय नृत्य ही जानती थी। आज आपने सच में मेरी ज्ञान चक्षु खोल दिए हैं। शायद आपके पास रह कर मैं कृष्ण को और भी जान पाऊँगी।" कैथरीन उसी भक्ति प्रवाह में डूब उतर रही थी। 

"कृष्ण को जानने में तो मीरा ने अपनी पूरी जीवन कृष्ण को समर्पित कर दी थी। तब भी कृष्ण की लीला समझ नहीं पायी थी। कृष्ण को समझने - आत्मसात करने के लिए शायद कई जन्म लेना पड़े। तब भी कितना ही समझ पाएंगे उन्हें। वह तो गूढ़ रहस्य के स्वामी हैं।" मीरा अभी भी उसी परालोक में विचरण कर रही थी। 

कैथरीन के लिए यह एक छोटी सी घटना उसे उसकी सूक्ष्मता को बता गयी थी। लगा जैसे वह भारत के रहस्य को समझ पाने की होड़ में शायद हर रोज एक नए स्वरुप को प्राप्त कर रही है। आज जैसे उसे लगा की वह इसी भारत को जीना चाह रही थी। फिर अभी तो रास लीला से पहले की रास कथा भर थी। पता नहीं रास लीला में उसे और क्या देखने को मिले। 


***

आश्रम के खाली स्थल पर लगे कदम्ब वृक्ष के बीच एक घेरा बनाया गया था। उस घेरे के बीच में रास नृत्य होने वाला था। घेरे के बाहर दर्शक दीर्घा बनायीं गयी थी। साशय ही दर्शक दीर्घा में बैठने का इंतज़ाम नहीं किया गया था। पूरी आश्रम में फूलों से सजावट की गयी थी। लाईट की इतनी व्यवस्था थी की ऐसा प्रतीत ही नहीं हो रहा था कि दिन ढल कर गोधूलि वेला आ गयी है। 

कैथरीन काफी उत्साहित थी इस आयोजन के लिए। उतनी ही उत्साहित जितनी वो गंगा आरती के लिए कभी हुआ करती थी। उसने दर्शक दीर्घा में सबसे आगे का स्थान ले लिया था। आज उसने भी गोपियों की भांति घाघरा पहन रखा था। इस परिधान में वह स्वयं को काफी भारतीय महसूस कर रही थी। जैसे वो कैथरीन नहीं, कृष्ण की गोपी ही हो। मीरा दीदी उसके साथ खड़ी थी। दोनों में इन कुछ दिनों में गहरी दोस्ती हो गयी थी। 

नियत समय पर रास लीला आरम्भ हुआ। यह आश्रम मथुरा के कुछ बड़े आश्रमों में एक था। यहाँ की शरद पूर्णिमा रास काफी चर्चित थी। सो दर्शक दीर्घा में सैकड़ों लोग थे। एक व्यक्ति घेरे के अंदर कृष्ण के आवरण में आया। साथ ही कई गोपियाँ आकर्षक कपड़ो में वहाँ कृष्ण के चारो ओर नृत्य करने लगीं। सभी भरतनाट्यम की मुद्रा में नृत्य कर रहीं थी। प्रारम्भ में तो नृत्य काफी धीमा था पर जैसे जैसे समय बीतता गया, नृत्य की गति बढ़ती गई। एक समय ऐसा आया कि जैसे घेरे के अंदर और बाहर की स्थिति एक सी हो गयी। दर्शक दीर्घा के सारे दर्शक भक्ति रस में ऐसे सराबोर हो गए की सारे बंधनों से मुक्त हो मदमस्त हो नाचने लगे। नेपथ्य का मधुर संगीत जैसे सबको अपने मजबूत पाश में संचयित कर भक्ति की अलख जगा रहा था। क्या पुरुष, क्या स्त्री, सब जैसे गोपी स्वरूपा अपने मन के कृष्ण के इर्द - गिर्द नृत्य कर रहे थे।  कैथरीन इस दृश्य को देख कभी डर सी जाती कभी अभिभूत हो जाती। कुछ पल में जैसे उसका रोम-रोम भी कृष्ण भक्ति में रमने लगा। उसके पैर भी थिरकने लगे। सारा आश्रम कृष्ण के सम्मोहन पाश में था। मीरा दीदी कैथरीन को मदमस्त हो नृत्य करते देख थोड़ा अचंभित थोड़ी भावविह्वल हो गयी थी। कृष्ण भक्ति ने सारे  वातावरण में एक पवित्रता फैला दी थी। सब पारलौकिकता का अनुभव कर रहे थे। कुछ घंटो तक ऐसा ही चलता रहा। फिर जैसे जैसे संगीत और नृत्य की रफ़्तार कम होती गयी वैसे वैसे चारो ओर फैली खुमारी भी धीरे - धीरे सामान्यावस्था में आने लगी थी। 

***

कैथरीन अपने बिस्तर पर लेटे - लेटे आज की सारी घटनाक्रम को याद कर रही थी। अभी भी वो गोपीरूपा ही थी। आज उसे पहली बार ऐसा महसूस होने लगा था कि शायद यही वह जीवन था जिसे उसने कल्पित कर रखा था। शायद आज का दिन चाहे वो मीरा दीदी से हुई रास लीला की बात हो या आश्रम का सौंदर्यपूर्ण सजावट या फिर शाम का वो रास मंचन, कैथरीन की जीवन का सबसे बेहतरीन दिन था। कहाँ तो उसका जीवन ग्रानाडा तक ही सीमित था और कहाँ उसके पिता ने उसे भारत  भ्रमण की सलाह दे डाली थी। जैसे उसके जीवन में एक सम्पूर्ण परिवर्तन आ गया था। पिता... हाँ मुझे अपने पिता से बात करनी चाहिए। 

कैथरीन ने अपना फ़ोन उठाया और अपने पिता का नंबर मिलाया। एक रिंग में ही उसके पिता ने फ़ोन उठा लिया था। 

"डैड! मुझे यहाँ क्यों भेजा था आपने?"

"सब ठीक है ना कैथी? मुझे घबराना तो नहीं चाहिए ना?" प्रोफेसर अल्फ्रेडो की आवाज में थोड़ी चिंता थी। 

"नहीं डैड, कोई problem नहीं है। बस एक problem है। क्या मैं सच में स्पेन से belong करती हूँ या मेरा जन्म गलत जगह पर हो गया था।" कैथरीन पता नहीं क्या बोले जा रही थी। 

"तुम्हारा जन्म सही जगह पर ही हुआ था कैथी। बस तुम्हारी मंजिल कहीं और थी। मुझे लगता है कि वो तुम्हे दिखने लगी है शायद।"

"शायद! डैड मैं यहाँ कुछ समय और रहना चाहती हूँ। कितना समय... नहीं कह सकती... शायद एक जन्म!"

प्रोफेसर अल्फ्रेडो की आवाज काफी सधी हुई थी - "हां मैं जानता था कि तुम्हे भारत भेजना शायद एक बड़ा risk है मेरे लिए। पर मेरी जान, यह मेरी इच्छा थी कि तुम वो जीवन जियो जो मैं कभी जीना चाहता था। मैं इतनी हिम्मत नहीं कर पाया और कभी भारत नहीं जा पाया। पर तुम्हारे माध्यम से मैं वो जिंदगी जी पाऊं शायद।"

"आप खुश तो हैं ना डैड मेरे इस निर्णय से?" कैथरीन अभी भी थोड़ी संशय में थी। 

"अपनी जान को खुश देख कर कौन सा बाप खुश नहीं होगा मेरी जान। बाद एक ही समस्या है। तुम्हारी माँ। तुम्हे तो पता है कि वो कितनी कैथोलिक है। पर तुम चिंता मत करो। मैं यहाँ सब संभाल लूंगा। शायद बहुत जल्द मैं भी वहां आने का प्लान करूँ। मेरे जिगर के टुकड़े को देखने का बड़ा दिल करता है।" कई भाव समाहित थे प्रोफेसर अल्फ्रेडो की आवाज में। 

"डैड मैं रखती हूँ। ज्यादा बात किया तो शायद मैं वापस आ जाऊँ आपके पास।" एक चुभन सी होने लगी थी कैथरीन के दिल में।   


***

"अरे कैथरीन! यह तुम हो? पहचान पाना मुश्किल है। तुम तो बदल ही गयी एकदम से।" करीब  एक वर्ष बाद सत्यव्रत कैथरीन से मिल रहा था। साल भर बाद वह बासुकी आश्रम में आया था। 

कैथरीन एक अलग लड़की हो चुकी थी इस एक साल में। भारत अब रास आ गया था उसे। इस एक बरस में उसने काफी ज्ञान प्राप्त किया था। कई पुस्तक बांच आयी थी। गंभीरता अब उसके चेहरे पर भी झलकने लगी थी। ज्ञान ने उसमे तेज भर दिया था। 

"हाँ। यह मैं ही हूँ। कैथरीन... कृष्ण की कैथरीन। बस जीवन नया है यह। शायद यह मेरा पुनर्जन्म है। बस नाम ही पुराना है। बाकी सब कुछ बदल चुका है। यह कैथरीन एक नई कैथरीन है अब।"

"ओह कैथरीन... मुझे तो लगा था कि वह मैं हूँ आदियोगी जिसकी तलाश में यह गौरी ग्रानाडा से यहाँ आयी थी। मैंने तो तुम्हारे साथ के सपने देखे थे। पर तुम..." कहते कहते सत्यव्रत शून्य में जाता जा रहा था। 

"मैं पार्वती... नहीं नहीं। मैं एक आम इंसान हूँ। तुम एक आम इंसान हो... आदियोगी की महानता पा लेना इतना आसान नहीं है। मैं तो कैथरीन ही हूँ। कृष्ण की कैथरीन। मैंने तो कृष्ण का वरण किया है। अब तो वो ही मेरे आदियोगी हैं। वो ही मेरे स्वामी हैं। अब तो मैं हूँ ही नहीं। मेरा सारा अस्तित्व कृष्ण है। मैं तो कृष्ण की कैथरीन हूँ। मैं बस कृष्ण की कैथरीन हूँ और कुछ नहीं।" वो बोलते बोलते वहां से चलती जा रही थी। सत्यव्रत उसे दूर जाते देख रहा था... अपने जीवन से दूर... बहुत दूर... अपने कृष्ण के पास।  
 


- अमितेश