शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

कॉफ़ी टेबल

"हाँ, कॉफ़ी तो ज़रूर पियूँगा। इस अप्रतिम कॉफ़ी को मैं कैसे मिस कर सकता हूँ. 

प्रिया के चेहरे पर एक बड़ी सी मुस्कराहट तैर गयी थी. 

कल तक जो कॉफ़ी महज एक कॉफ़ी हुआ करती थी, आज उसे बनाना एक शौक बन गया था उसके लिए. और ये शौक तब और निखर जाता जब वो इसे प्रबोध के लिए बनाती। 

इन अरसों में तो जैसे उसने अपने आप के होने तक हीं सीमित कर रखा था खुद को, प्रबोध ने जैसे उसमे एक नयी जीवन वायु भर दी थी. आज वो उड़ती थी, मचलती थी, मुखरित हो गयी थी. एक जन्म में हीं उसे पुनर्जन्म का आभास होने लगा था.

प्रिया और प्रबोध दो अलग अलग ग्रहों के जीव थे जिनकी ज़िन्दगी इस एक बिंदु पे आकर लगभग एक-सी हो गयी थी. जब साथ होते तो दोनों एक जैसे सोंचते, एक जैसी बातें करते। एक दूसरे से जुदा होते हीं दो अलग अलग जीवन जो जाते, अलग फलसफां वाले जीव बन जाते।
प्रिया जब पास होती तो प्रबोध की सारी सोंच संकुचित हो जाती वहीँ प्रिया और मुखरित हो जाती। दोनों हीं इस परिस्थिति और वक़्त को खूब एन्जॉय करते। जैसे Made For Each Other हों.
देखने वालों को अक्सर लगता की शायद कुछ पक रहा है दोनों के बीच. शायद एक दिन दोनों उस मुक़ाम को पा लेंगे। पर दोनों जानते थे कि यह पकना प्रेम नहीं था. शायद इन दोनों के रिश्तों को प्रेम की डोर से बाँधने में वो डोर भी छोटी पड़ जाये। कुछ इतर ही रिश्ता था दोनों के बीच, प्रेम से भी महान। जिसकी कल्पना भी कल्पना से परे है. इस दुनिया की कल्पना से भी परे, शायद इन दोनों की कल्पना से भी परे. यह रिश्ता था ख़ुशी का, अपने आप से रु-ब-रु होने का, जी भर कर जीने का.

इस रिश्ते को प्रिया के घर में पड़े उस सागवान की लकड़ी का टेबल हीं ज्यादा अच्छे से समझता था. न जाने कितने अच्छे पल देखे थे उस कॉफ़ी टेबल ने दोनों के. न जाने कितनी अच्छी बातें सुनी थी दोनों की. दोनों जब साथ उस कॉफ़ी टेबल पर कॉफ़ी पीते तो उस टेबल में भी जान आ जाया करती थी. जब दोनों साथ होते तो उन दोनों के चेहरे की चमक से वो कॉफ़ी टेबल भी चमक उठता, पुलकित हो जाता। जैसे वो भी उनकी बातों का हिस्सा बन जाता। उनके साथ हँसता, उनके साथ गुनगुनाता। कभी बस टेबल भर रहता, कभी साज़ बन जाता।

इन कुछ महीनों में वो थोड़ा सुस्त सा हो गया था. उसे समझ नहीं आ रहा था की क्या हो गया इन दिनों जो दोनों साथ नहीं बैठते थे उसके इर्द-गिर्द कॉफ़ी पीने को. कई बार उसकी इच्छा होती प्रिया से पूछने की. लेकिन प्रिया से पूछ पाने की कसमसाहट को बस समेट कर रख लेता अपने आप में. 

आज फ़ोन पर उनकी बातें सुन कर फिर पुलकित हो गया था वो कॉफ़ी टेबल।

सुबह से ही वह चपलता देख रहा था प्रिया की. कॉफ़ी फेटने की टन-टन से वह मंत्रमुग्ध झूम रहा था अपने-आप में. कभी प्रिया को कॉफ़ी फेंटते देखता, कभी कप केक बनाने के लिए उसे थप-थप कर किचन की ओर भागते देखता। इस भाग-दौड़ ने उसके अंदर भी एक नयी ऊर्जा भर दी थी.


"ओह, तुम्हे पता नहीं इन कुछ महीनों में मैंने क्या मिस किया" कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए प्रबोध ने कहा था.

उसे कॉफ़ी पीता देख प्रिया की ख़ुशी का पारावार नहीं था. "किसने कहा था इतना दूर जाने को" प्रिया अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेर कर बोली।

"अब क्या करें मैडम, दाल रोटी का सवाल है. जाना ही पड़ा."

"तो फिर दाल पियो, कॉफ़ी की अपेक्षा मत रखो."
और दोनों खिलखला पड़े. उनके साथ कॉफ़ी टेबल भी खिलखला पड़ा हो जैसे।

दोनों कॉफ़ी पीने में इतने तल्लीन हो गए की चारों ओर अचानक ही मरघटी शांति पसर आई.

"तो बस एक महीना बचा है." प्रिया के शब्द इस मरघटी शांति को चीरते हुए प्रदोध की तन्द्रा को भंग कर गयी.

"हाँ."

"मैं बहुत खुश हूँ की आखिर तुम घोड़ी पे चढ़ रहे हो. हमेशा खुश रहना।" बोलते बोलते प्रिया की आँखों में एक चमक आ गयी. 
"बोलो क्या चाहिए शादी के तोहफे में." छेड़ते हुए प्रिया ने पूछा।

"एक वादा की तुम हमेशा मुझे इतनी ही अच्छी कॉफ़ी पिलाया करोगी, आजन्म।"

"हूँ."

फिर  एक ख़ामोशी तिर गयी ड्राइंग रूम में.

कॉफ़ी टेबल कुछ समझ नहीं पाया इस ख़ामोशी को. और ख़ामोशी थी की तिरती जा रही थी हर एक गुजरते पल के साथ, पुरे कमरे में, पूरी पृथ्वी पर, पुरे ब्रह्माण्ड में.

- अमितेश