शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

औंधा चाँद

चाँद को एकटक
निहारने की अभिलाषा में
जो गया छत पे अपने
देखा चाँद को तेरे छज्जे पे अटका हुआ सा।
अपनी पूरी ताकत लगा जो
चाह रहा था रोशनी की पराकाष्ठा को पाना
कि छुपा ले शायद
अपनी दाग़ उस रोशनी से।
शायद वो भी कुंठित था
तेरी चमक देख कर।

वो भी एक दिन थे
जब मैं ईद मनाता था
तुम्हे देख कर
साल में कई बार
तोड़ हर बार अपना रोज़ा।

जब तुम्हारे सानिध्य में
कई आकाश गंगा घूम आता था।
और तुम
मेरे अचंभित भाव को
मन ही मन
मनाती थी, मुस्काती थी।

जब तुम्हारी खुशबु
मेरी धमनियों में बस बहती
मेरे रक्त का हिस्सा बन कर
मुझे प्राण वायु देती
मुझमे ज़िन्दगी भर कर।


आज जो फिर धर आया
चाँद को
तेरे छज्जे पे औंधे मुँह
कि फिर वो दिन वापस ला दे
कि फिर मैं आज ईद मना लुं अपनी
कि फिर कुछ ज़िन्दगी जी लुं
तेरी आस, तेरे सानिध्य में।


- अमितेश