रविवार, 11 अगस्त 2013

बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं

बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं

ना कोई राह अब ना मंज़िल है पता
सुनी सी आँखों में सुहानी यादें है बसा
तेरे होने का अब आभास भर है बचा
बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं

तलाशता हूँ बसंत अपने जीवन के पतझड़ में
शायद सूरज फिर चमकेगा
जो कल गया था गंगा की इक छोर पे डुबकी लगाने
फिर सुबह, सुबह सी चमकीली होगी
शायद फिर उन आड़ी तिरछी पगडंडियों की
सोंधी खुशबु महकेगी
फिर गुलाब अपनी शबाब पे होगा
फिर छुई मुई सी ज़िन्दगी
अपनी खोई तंद्रा पा लेगी

खुली आँखें भी अब इन सपनों पे शक़ करते हैं
हाँ जानता हूँ मैं ये की
तेरे होने का अब आभास भर है बचा
बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं.


- अमितेश 

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

ज़िन्दगी चलो फिर दोस्ती कर लें

ज़िन्दगी चलो फिर दोस्ती कर लें
रूबरू हो एक दूजे से चलो कुछ और मस्ती कर लें
ज़िन्दगी चलो फिर दोस्ती कर लें

तेरे चौखट पे बैठे कब तक
तेरे ख़त्म होने का इंतज़ार करें
तेरी दरख्तों पे अटकी मेरी चंद साँसें उतार
इस शरीर में फिर तुम्हें भर लें
ज़िन्दगी चलो फिर दोस्ती कर लें.

कोरे कागज़ सी ज़िन्दगी पर
रात की स्याही से कुछ और नज़्में बुन लें
सांझ की धूमिल कालिमा को पोंछ
दिन के उजाले से तुम्हें थोड़ा और रोशन कर लें
ज़िन्दगी चलो फिर दोस्ती कर लें

आँखों में बसे सैलाब को दरकिनार कर
अश्कों से सुख के पौधे सींच
उन में कुछ और हरयाली भर लें
नयनों में धुंधलाते से पल को समेट
अश्कों के मोती से खज़ाने भर लें

ज़िन्दगी चलो फिर दोस्ती कर लें


- अमितेश 

वक़्त गुजार ले संग संग

सारे ग़म बिसार दे ज़िन्दगी के संग संग
थोड़ा और वक़्त गुजार लें संग संग.

उन लम्हों को जी लें फिर जरा
जो जिये ही ना गए हैं
उन तारों को गिन लें फिर जरा
जो गिने ही ना गए हैं.
इन अप्रतिम लम्हों के बहाने ही सही
थोड़ा और वक़्त गुजार लें संग संग

तेरी आँखों में जमी सुर्खी को
फैला के आस्मां पे फिर गोधुली कर दें
तेरे बिखरे से काजल से
रात में थोड़ा  और कालिख भर दें
उन बिसरी हुई मुस्कान को तेरे समेट के
मुरझाई सी ज़िन्दगी में थोड़ा और ख़ुशी भर दें
इन अप्रतिम लम्हों के बहाने ही सही
थोड़ा और वक़्त गुजार लें संग संग

धुमिल से होते हमारे पदचिन्हों को संभाले हुए
उखड़ती हुई हमारी साँसों को सहेजे हुए
चलो ज़िन्दगी में कुछ और भी ज़िन्दगी भर लें
इन अप्रतिम लम्हों के बहाने ही सही
थोड़ा और वक़्त गुजार लें संग संग

क्या पता ये लम्हें गुजार न पाएं दुबारा
शायद इंतज़ार में पथरा जाएँ
आँखें हमारी फिर जीने को
इन दु:स्वप्नों में ही सही
थोड़ा  और वक़्त गुजार लें संग संग


-अमितेश