सोमवार, 8 जून 2020

सरकारी हिंदी

"अच्छा तो तुम्हे साहित्यकार बनना है। किस युग में पैदा हो गए हो प्रेमचंद। इस युग में तो सब कुछ पीत है, पीत पत्रकारिता, पीत साहित्य। कहाँ तुम ऐसी धूनी रमाना चाहते हो।" कहते कहते वो मेरे कंधे पे हाथ रख देती तो जैसे सारा ब्रह्माण्ड हिल जाता। 

बड़ी ही Progressive Lady थीं। जहाँ वो मुझे अक्सर कहती की कुछ सौ साल बाद मैं पैदा हुआ हूँ, उन्हें देख कर लगता कि शायद वो कुछ सौ साल पहले पैदा हो गयी हैं। अपने समय से ज्यादा ही Progressive थीं वो। या शायद मैं समय की रफ़्तार को नहीं पकड़ पाया था। 

सो मामला ये था कि था तो मैं विज्ञान का विद्यार्थी पर अभिरुचि साहित्य में जाग गई थी। साहित्य की सारी विद्याओं को ज्यादा तल्लीनता से पढ़ता था। ऐसे ही एक बार अखबार में एक छोटे से Classified Section ने मुझे रास्ता दिखाया था, मेरी साहित्य साधना को हवा देने के लिए। वो विज्ञापन था सह संपादक के सहायक के रिक्त पद की भर्ती का। लगा की हिंदी अखबार है तो शायद कुछ अच्छे लोगों की संगत मिल जाएगी। कुछ और नए साहित्यिक शब्द हिंदी के मेरे शब्दकोष में शुमार हो जायेंगे। हालाँकि वो एक अंशकालीन पद था और पैसे भी कम मिल सकते थे, पर उद्देश्य ना तो कैरियर बनाने का था ना पैसे कमाने का। दिशा तो कुछ और ही थी। ये मौका तो शायद उस दिशा के लिए कंपास का काम करे। पहुँच गया अखबार के दफ्तर में और इंतज़ार करने लगा अपनी बारी का। कोई Idea नहीं था कि वहां क्या सवाल पूछे जायेंगे, कैसी Experience की बात की जाएगी। पर हठधर्मिता लिए मैं बैठा रहा वहां प्रतीक्षा कक्ष में। मेरी बारी आयी तो देखा एक सुघड़ महिला सिल्क की पीताम्बरी साड़ी पहने और पैर पे पैर चढ़ाये बैठी थी साक्षात्कार कक्ष में। एक बार लगा, उलटे पाँव हो लूँ। क्या ही बात होगी यहाँ। क्या पुछेगीं ये और कितना जवाब दे पाऊंगा। उस क्षणिक अविलम्ब में कई बातें तैर गयी मेरे दिमाग में। 

"आओ पत्रकार साहब। बाहर खड़े रह कर तो सामाचार नहीं कवर कर पाओगे। थोड़ा गहरे में उतरना पड़ेगा पूरी खबर के लिए।" मुस्कुराते हुए उसने मेरी राह आसान करने कि कोशिश की। 

दरवाजे से उस महिला के पास तक जाने का फासला जैसे मीलों का हो गया था। उसपर से उसके इस भारी भरकम व्यंग ने राहों में कई फिसलन भर दी थी। लगा इस दुनियां में टिक पाना इतना भी आसान नहीं होगा। एक एक कदम अपने मन में ही पैदा किये असफलता की ओर बढ़ा रहा था। जैसे वो सात क़दमों का फासला सात जन्मों का सा हो गया था। उस महिला के पास की कुर्सी तक पहुँच कर लगा कि कैलाश पर्वत पहुंच आये हैं। बस अब धूनी रमाना ही बाकी है। 

"इस रफ़्तार में तो लोगों को बासी खबर मिल पायेगी बाबू। यह क्षेत्र तेज़ चलने वालों का है। धीरे चलने वाले यहाँ झाड़ू लगाते हैं।" एक और व्यंग वाण सीधा निशाने पे मारा था उसने। 

"अरे न... नहीं दीदी! मुझे  लगा मैं सही कमरे में ही जा रहा हूँ ना।" थूक गटकते हुए बोला।  

"ओह तो तुम भी पुरुषसत्तावादिता में ग्रसित हो।" उसका चेहरा थोड़ा तमतमा गया था। 

"अरे नहीं नहीं दीदी। मैं तो माँ कि बनायीं रोटियां भी गिन कर कटोरे में रखता हूँ।" हड़बड़ाहट में कुछ तो बोल गया। 

वो थोड़ी भौचक, थोड़ी मुस्कराहट ला पूछी, "अरे! ये कौन सी बात हुई।"

बोल कर मैं फंस गया था। तो अब मतलब बताना हीं पड़ेगा। मैं ऐसा झेंपा कि लगा इस वाक्य को रहस्य ही रहने देते हैं और उलटे पाँव भाग लेते हैं। पर उस महिला ने पकड़ लिया था। मतलब तो बताना ही था अब तो - "वो माँ कहती है कि रोटियां गिन कर कटोरे में रखने से लड़की पैदा होती है। तो मैं भी ज़िद में गिन कर रखता था कि मुझे तो बेटी हीं चाहिए।"

"आ हा हा हा हा..." वो ऐसे ठठा कर हंसी की उसका पूरा शरीर पुलकित हो उसकी हंसी से ताल मिलाने लगा। उसकी साड़ी थोड़ी और ऊपर चढ़ गयी। मैं झेप कर कभी दिवार पे टंगी महापुरुषों की तस्वीर को देख कर पहचानने की कोशिश कर रहा था तो कभी टेबल पर रखी रंग बिरंगी पेन को गिन कर अलग अलग जमा रहा था अपने दिमाग में।

कुछ देर तक, शायद १० - १५ सेकंड बाद वो अपनी आँखों के कोनों में जम आयी पानी को साफ़ करते हुए बोली - "बैठ भी जा अब परियों के पापा। बताओ क्यों आये हो यहाँ।"

मैंने पास रखी कुर्सी को चुपके से एड़ियों से थोड़ा पीछे धकेल कर उसपर बैठ गया। दुरी इतनी की उसकी लगायी Perfume मुझे रोमांचित कर रही थी और नजदीकी इतनी की उसकी पैरों की लकीरों को अपने हाथों की लकीरों से मेल करा रहा था। 

अब क्योंकि नौकरी के लिए आया था तो थोड़ी गंभीरता दिखाना भी जरुरी था। कोशिश की कि मेरी Body Language में वो गंभीरता दिखे। दोनों हथेलियों को एक दूसरे पर आराम से रखते हुए बोला - "विज्ञान का विद्यार्थी हूँ। पिताजी चाहते हैं "सफ़ेद गाड़ी  - लाल बत्ती" रोग से ग्रसित हो जाऊं। शायद हो भी जाऊंगा। पर मेरे अन्तर्मन को खुश रखने की कोशिश में यहाँ आया हूँ।"

"और तुम्हारा अन्तर्मन क्या चाहता है?"

"यही की किसी दिन मेरी पुस्तकें लोगों की हाथों में हो और लोग उसपर चर्चा करें।"

"अच्छा तो जनाब Writer बनना चाहते हैं!"

"नहीं, साहित्यकार।"

"मतलब मामला थोड़ा Serious है। चलो अच्छा है, कोई तो Writer और साहित्यकार के बीच के फर्क को समझता हैं। लेकिन बनना साहित्यकार है तो यहाँ क्या करने आये हो। सीधे साहित्य साधना में लग जाओ। वादा करती हूँ की तुम्हारे किताब की पहली प्रति मैं खरीदूंगी।"

"यहाँ क्यों आया हूँ का कोई सीधा जवाब नहीं है मेरे पास। ना ही कितनी देर टिकूंगा का जवाब है। बस यही कह सकता हूँ कि मेरी भाषा और समझ  थोड़ी और वृहत्तर हो जाएगी यहाँ पर। यह मेरे और आपके अखबार दोनों के लिए एक बेहतर स्थति पैदा करेगी।"

"अच्छा पहले पता तो चले की तुम्हे हिंदी आती भी है या नहीं। पता तो चले की तुम किस स्तर पर हो। चलो मैं हिंदी के कुछ शब्द देती हूँ, उसे पेपर पर लिखना है। तेरह शब्द बोलूंगी। कम से कम दस सही होने चाहिए। वरना तुम खुद ही बाहर चले जाना।"

"जी दीदी... "

और वो ढूंढ ढूंढ कर जितने क्लिष्ट शब्द हिंदी के हो सकते थे, बोले जा रही थी। मैं अक्षरसः उसे लिखता जा रहा था उस Recycle Paper Pad पर। वो शब्दों के वाण छोड़ती जाती और मैं उन्हें पकड़ - पकड़ कर Recycle Paper की तरकश में सहेजता जाता। ये मंजर कुछ क्षण चलता रहा। वो बोली - "कितना हुआ?"

"पंद्रह"

"अरे फिर बोला क्यों नहीं?"

"अब हिंदी इतनी प्रबल भाषा है की उसके प्रहार को रोक पाना कहाँ मेरी क्षमताओं में हैं।"

मैंने भी उनके व्यंग की पुस्तक से एक पन्ना निकाल उसका जहाज बना उनकी और फेंका। 

"अच्छा दिखा" उन्होंने उस जहाज को उठा कर जैसे Garbage Bean में डाल  दिया हो। 

फिर एक चुप्पी। अब फिर से समय काटना मुश्किल हो रहा था। वो Reading Glass लगा कर पढ़ने लगी और घड़ी की "कच्च - कच्च" की आवाज़ जैसे मेरी स्नायु - नाड़ी को धीरे - धीरे काटती  जा रही थी। मैं निश्चेतन वहां बैठा अपनी रूकती साँसों को संभाल रहा था बिखरने से। 

"वाह! सब सही। बहुत अच्छा। इतनी शुद्ध हिंदी भी बिना किसी Spelling Mistake के लिख दिया तुमने। एक भी गलती नहीं।"

"तो हिंदी इतनी कठिन है क्या कि कोई Spelling Mistake कर सकता है?" मैं थोड़ा आश्चर्यचकित दिखने की कोशिश करने लगा। 

"करते हैं। भरे पड़े हैं यहाँ। चल कल से आ जा। मुझे Assist करना।"

मेरी ख़ुशी सातवें आसमान पर थी ये सुन कर। जितना सोंचा नहीं था उससे पहले सफलता मिल गयी मुझे। 

"दीदी एक सवाल पुछु?"

"हाँ पूछ।"

"इतनी बातें हो गयी। लेकिन शायद हम एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते हैं अब तक।"

अरे हाँ सच में। हॅलो, मेरा नाम शुभ्रा अरुण है। और तुम?" पूरी नाटकीयता थी उनकी आवाज में। उसी नाटकीयता से उन्होंने हाथ बढ़ाया था मेरी तरफ। 

"अरे मतलब मैं इतनी देर से शुभ्रा अरुण से बात कर रहा था। मतलब आप शुभ्रा अरुण हैं!" मैं अबकी बार सच में आश्चर्यचकित था। ये बहुत ही बड़ी पत्रकार थी उस समय की। उनकी लेख लोगों के लिए Eye Opener की तरह होती थीं। घटनाओं को देखने का उनका नजरिया ही अहलदा था। इस नौकरी से भी बड़ी बात ये थी कि मैं शुभ्रा अरुण के सामने बैठा था। उससे भी बड़ी बात ये कि मैं उन्हें Assist करूंगा। मैं अपने ख्यालों में ही बड़ा आदमी बन गया था अब तक। 

"चल अब बाहर निकल अपनी दुनियां से। अपना नाम बता कि  तेरा Appointment Letter निकलवा सकूँ।" उनकी आवाज मुझे मेरे वर्त्तमान में ले कर आ गयी थी। ये वो जमाना था की बड़े पत्रकारों के हम नाम ही जानते थे, उनकी तस्वीरें अमूमन अखबार में नहीं आती थी। ना तो Electronic Media उस दौर में उतना सबल था ना Social Media अपने वर्चस्व में था। सो उन लेखन के नाम होते थे, चेहरा नहीं। 

"जी मेरा नाम सार्थक सिन्हा है।"

"Good. अच्छा देखो ज्यादा पैसे हम नहीं दे पाएंगे तुम्हे। १५०० रुपये तनख्वाह होगी।  ३० रुपये प्रतिदिन का भत्ता होगा और १०० रुपये महीने का अखबार खरीदने का मिलेगा। कुल तेइस - चौबीस सौ रुपये मिलेंगे महीने के। चलेगा ना?" उन्होंने अचानक अपनी मुद्रा बदल लिया। ऐसा लग रहा था कि वो एक Negotiator बन गयी है और सब काम अभी खत्म कर देना चाहती हैं। 

तेइस - चौबीस सौ रुपये उस दौर में बहुत होता था। आज के तेइस - चौबीस हज़ार के जितना। पैसे वैसे भी प्राथमिकता नहीं थी मेरी। और जब प्राथमिकता ना हो कर भी इतने पैसे मिले तो क्या ही अपेक्षा कर सकता है इंसान। मै कुछ बोलूं उससे पहले ही मेरी ख़ामोशी को उन्होंने मेरा इकरार समझ लिया था। 

"बोली, "देख सार्थक, ये जो पत्रकार होते हैं ना उनकी News की समझ बहुत अच्छी होती है पर भाषा पर पकड़ थोड़ी ढीली होती है। हम उसे ही सही करते हैं। तुम्हे उनकी News को जरुरत के मुताबिक Re-write करना होगा। भाषाई शुद्धता बहुत महत्वपूर्ण है। लोग अखबार पढ़कर IAS - IPS की तैयारी करते हैं। सो हमारी भूमिका खबरनवीसी से भी ज्यादा हो बढ़ कर हो जाती है। कर पायेगा ना ये सब।"

"दीदी आपके साथ रहूंगा तो सब सीख जाऊंगा।" मैं तो ऐसे ही आह्लादित था। यही कह सकता था बस। 

"हूँ... ठीक है। कल से आ जाना। हमारा पूरा काम समय की Punctuality पे निर्भर करता है। कल सुबह ठीक नौ बजे मिलती हूँ तुमसे। कोई देरी नहीं चाहिए।" अबतक जो महिला काफी हंसमुख लग रही थी, अचानक एक Professional बन गयी थी।

"जी दीदी। अच्छा एक बात पूछनी थी, मैं आपको दीदी कह सकता हूँ ना।"

"सब दीदी ही कहते हैं मुझे।" फिर से वो हंसमुख महिला वापस आ गयी थी मेरे सामने।

***

ऑफिस का पहला दिन था मेरा। 8:45 में मैं अपने निश्चित स्थान पर बैठा था। एक छोटा सा Cubical था वो जहाँ चार कुर्सियां लगी थी एक मेज़ के इर्द - गिर्द। वहीं साइड में एक थर्मस रखा था। पता नहीं कुछ था भी उसमे या यूँ ही अपने खालीपन को लिए खड़ा था मेज के एक कोने में। एक पेन स्टैंड था फाउंटेन पेन की शेप का जिसमे रंग बिरंगे कई पेन और पेन्सिल करीने से रखी थी। पीछे एक तस्वीर... पता नहीं किसकी थी। कुल मिला कर उस क्यूबिकल की साज सज्जा काफी इलीट ढंग से की गयी थी। मैं उस क्यूबिकल को पढ़ने में इतना मशगूल था कि पता हीं नहीं चला कब शुभ्रा दी मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गयी।

"कैसा लगा  तुम्हारा नया ऑफिस? उम्मीद है ये तुम्हे बेहतर हिंदी लिखने के लिए प्रेरित करती रहेगी। और हां, जैसे समय पर नहीं पहुंचना Punctuality नहीं कहलाती है वैसे ही पहले पहुंचना भी Punctuality की श्रेणी में नहीं आता। फिर भी तुम्हारी वाली Punctuality मुझे पसंद आयी।" एक साथ कई बातें बोल देना चाहती थी वो।

बड़ी छोटी सी स्वागत पुरसी रखी गयी थी मेरे लिए। तक़रीबन ऑफिस के सारे कर्मचारियों से मेरा परिचय करवाया गया। कौन क्या करता है और किससे कैसे काम निकलवाना है और किससे बच के रहना है की बातें मुझे बताई गयी। फिर कुछ समय के बाद मुझे अखबार के मुख्य संपादक गिरीश मिश्र से मिलवाया गया। खासी प्रभावशाली सख्शियत थी उनकी। एक बार लगा कोई तेजस्वी पुरुष खड़ा है जिसके सर के पीछे से एक तेज चमक रहा है, Halo जैसा। उन्होंने मुस्कुराकर बड़ी आत्मीयता से कहा - "शुभ्रा तुम्हारी तारीफ कर रही थी। वह अक्सर 75 साल में एक बार किसी की तारीफ करती है। शायद तुम पहले इंसान हो जिसके बारे में शुभ्रा इतना अच्छा बोल रही है। ये बना कर रखना। और हाँ, मुझे सिर्फ अच्छी खबर ही नहीं भाती, खबर की भाषा भी बेहतर होनी चाहिए। इस बात का ध्यान रखना।"

"जी सर।"

बस इतनी सी ही मुलाकात थी मिश्र जी के साथ। इतने में ही मैं उनसे खासा प्रभावित हो गया था। लगा कि मैं भी उनकी तरह ही बन पाऊं भविष्य में। फिर मेरे पास ठीक उनके जैसा ही वेस्ट - कोट भी है। 

***

आज का पहला काम मेरी मेज पर था। मुझे एक News दी गयी थी और उसे News की तरह लगना था। बढ़िया खबर थी। प्रारंभिक तौर पर तो कोई कमी नहीं दिख रही थी उसमें। मैं शुभ्रा दी के पास गया कॉपी ले कर। पूछा करना क्या है मुझे इसमें। फिर दीदी ने समझाया कि साहित्य की भाषा, आम बोलचाल की भाषा और अखबार की भाषा में फर्क होता है। साहित्य सभी नहीं पढ़ते, पर अखबार सभी पढ़ते हैं। सो थोड़ी स्वतंत्रता हम पेपर में ले लेते हैं। कुछ लोकल शब्दों का प्रयोग भी हम कर लेते  हैं अखबार में। जिससे आम जन खबर को पूरा पढ़ सके और उससे Connect कर सके। फिर खबर कुछ यूँ लिखी जानी चाहिए कि Final Proof के वक़्त अगर जगह  की कमी हो और खबर को छोटी करनी हो तो Rewrite करने की जरुरत ना पड़े, या बहुत कम पड़े। मतलब तुम्हारी हर खबर Pyramid की तरह होनी चाहिए, कि अगर उसे नीचे से थोड़ा काटना भी पड़े तो उसका आकार ना बदले, पिरामिड ही रहे वो। छोटी छोटी Technic बताई उन्होंने। सारी बातें मैं ध्यान से सुन रहा था। जब उस खबर को दुबारा लिखने बैठा तो उन सारी सीख को उस खबर में आत्मसात करने की कोशिश की मैंने।

शुभ्रा दी  दुबारा लिखी हुई कॉपी देखी, खबर को पढ़ा और मुस्करा कर बोली -"मैंने गलत Recruitment नहीं की थी।"

समझ नहीं आया कि ये मेरे लिए कोई Compliment थी या महज एक Statement, पर सुन कर अच्छा लगा।

यूँ ही दिन भर कुछ कुछ ख़बरें मेरे पास आती रहीं और मैं उसमे अपनी नयी - नयी सीखी विद्या को उड़ेलता गया। पहला दिन काफी व्यस्त था पर काफी आत्मिक शांति मिल रही थी ये सब कर के।

***

अगले दिन अहले सुबह मैं पेपर वाले का इंतज़ार कर रहा था। अति उत्साह में कुछ ज्यादा ही जल्दी उठ गया था। सात - आठ News को मैंने या तो Rewrite किया था या Edit किया था। सो देखना था वो अखबार पर कैसा दिखता है।
पेपर हाथ में आते ही मैंने पूरी पेपर पलटना शुरू कर दिया। आठ में से तीन News तो दिख गए मुझे, बाकी की खबरें ढूंढने से भी नहीं ढूंढ पा रहा था पूरे अखबार में। थोड़ा खुश था लेकिन कुछ निराशा भी हुई कि कल तक जो दिन काफी सफल लग रहा था, आज पुनर्मूल्यांकन करने पर सिर्फ आधा दिन ही सफल लगने लगा था। अपनी भावनाओं पर काबू पा मैंने अपनी Edit की हुई News को पापा को दिखाया। वो मेरी छोटी छोटी सफलता पर ही आह्लादित हो जाते थें। ये तो बड़ी ख़ुशी थी उनके लिए। ये तीन ख़बरें नहीं थी, ये तीन विजय थी मेरी जो पुरे दिन वो अपने ऑफिस के सहकर्मियों को बताने वाले थे।

***

"शुभ्रा दी, मैंने तो आठ खबर Rewrite किये थे। फिर सिर्फ तीन ही क्यों छपा।" थोड़ा शिकायती लहजा था मेरा।

"साहित्यकार बाबू! थोड़ा आहिस्ता चलो। पहले दिन ही तुम्हे सारा पेपर रंगना है क्या? ध्यान रखो तुम्हारा काम सिर्फ News Rewrite करना नहीं है। खबर बनाना भी है। पत्रकारों के साथ थोड़ा बैठो। कभी मौका मिले तो Field Coverage के लिए Ground Zero पर जाओ। समझो की जो दिखता है वो खबर है या दिखने के पीछे असल खबर छुपी हुई है। Copy को देखने का नज़रिए विस्तारित करो। वो दृष्टि विकसित करो, दूरदर्शिता की। फिर यूँ खबर गिनना नहीं पड़ेगा। तुम्हारी एक खबर ही पुरे बारह पन्ने की अखबार का वजन बढ़ा देगी।"

पूरी एक Lecture मिल गई थी मुझे। लग रहा था वो कृष्णा की तरह कुरुक्षेत्र में मुझे ज्ञान से अभिभूत कर रही थी और मैं अल्पज्ञ अर्जुन बना उन सारे ब्रह्मज्ञान को परिमार्जित करता जा रहा था।

उस ज्ञान वर्षा करने के बाद बोली "चल बाहर दही - समोसा खा कर आते हैं।"

"दही - समोसा... मैं तो समझा अभी प्रसाद वितरण होगा इस ज्ञानवर्धन सत्र के बाद।" मैं मुस्करा दिया।

"देख मुझे पता है कि तू हिंदी सीखने आया है। पर हिंदी के शब्द भी अलग अलग होते हैं हर जगह। आम बोलचाल की हिंदी, साहित्यक हिंदी, अख़बार की हिंदी, सरकारी  हिंदी, और भी बहुत कुछ। अब जब तुम अखबार में काम कर रहे हो तो अखबार की हिंदी का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करना शुरू कर दो, आम बोलचाल में। तुम्हारा काम थोड़ा आसान हो जायेगा।"

मैं समझ गया था शुभ्रा दी कहाँ इशारा कर रही थी। अच्छे शिष्य... छात्र की तरह मैंने अपना सिर हिला दिया सहमति में।

***

शुभ्रा अरुण... पत्रिकारिता में एक बड़ा नाम था। उनकी कलम की ताकत का लोहा सब मानते थे। मिश्र जी भी। हालाँकि इतने दिनों में जो समझा था वो ये कि मिश्र जी काफी पूर्णतावाती थे, माने Perfectionist. अगर कोई कॉपी उनके पास चली गयी तो तब तक कलम घिसना पड़ता था जब तक उनका अंतर्मन पूर्णरूपेण संतुष्ट ना हो जाये। इस शख्सियत के बावजूद वो भी शुभ्रा दी के कार्यक्षेत्र में दखल नहीं देते थे। शुभ्रा दी एक अलग ही व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। उनकी उपस्थिति भर से लोगों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो जाता था। उनकी भाषा में जो आत्मीयता थी वो किसी को भी अपना बनाने की क्षमता रखती थी। बड़े रसूख थे उनके। काफी अलग बिरादरी में उनका उठना बैठना था। राज्य का शायद ही कोई बड़ा नाम हो जो उन्हें नहीं जानता था या जानना चाहता था। फिर वो कोई उद्योगपति हो, व्यवसायी हो, राजनेता हो, थिएटर से जुड़े लोग हो, डॉक्टर हों या समाजसेवी। अविवाहित थीं लेकिन एक लड़की को गोद ले रखा था। कई कहानियां थी उनके बारे में जो नेपथ्य में चलती रहती थी। पर किसी की मजाल नहीं की कोई कहानी प्रत्यक्ष में बोल दे। कहानियां ये कि ये उनकी ही बेटी है जो उनके संपर्कों का नतीजा है। कहानियां कि वो जितनी जमीन के ऊपर दिखती हैं, उससे कही ज्यादा गहरी उनकी पैठ है। कहानियां कि उनकी पहुंच हर उस छोर तक है जहाँ तक पहुंच पाना भी असाध्य हो। कहानियां कि सरकार किसी की भी हो, चलती बस इनकी ही है। कहानियां कि किसी स्कूल कॉलेज में इतना माद्दा नहीं की इस नाम पर फेके जड़ - पत्थर को भी अपनाने से इनकार कर दे।

कहते हैं कि अखबार के सरकारी विज्ञापन उन्ही की वजह से आते थे। और भी ना जाने क्या क्या।

इतना के बावजूद वो इतना जमीन से जुड़ी थी कि उनसे जुड़ी कोई भी गलत बात हजम नहीं हो पाती थी। उन्होंने अपनी इन सारी कलाओं में जो गजब का सामंजस्य बनाया था वो कोई विरला ही कर पाता हो। और सबसे महत्पूर्ण की उन्होंने जो मक़ाम हासिल किया था वो सिर्फ अपनी प्रतिभाओं के बल पर। लगता उनकी कलम में साक्षात् माँ वागीशा विराजमान है। उनकी लेखन, उनके विचार इतने अकाट्य होते की उसको चुनौती दे पाने के लिए भी एक बड़ा जिगर चाहिए था। एक अलग ही प्रभामंडल दिखती थी उनके चारो ओर।

मेरे लिए एक आदर्श थी वो। उनसे बात कर एक अलग बिमल सा अनुभव होता मुझे। कई दफा लगता कि मैं काफी भाग्यवान हूँ जो मुझे शुभ्रा दी के सानिध्य में कुछ सीखने का मौका मिला है। काफी Destiny Child वाली Feeling आती जब उनके साथ होता। वो भी मुझे सिखाने का कोई मौका जाया होने नहीं देती थी। मेरे वैचारिक परिपक़्वता में उनका एक महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने मुझे चीज़ों को अलग ढंग से देखने का जो नजरिया दिया था वो आजन्म पूंजी की तरह मेरे साथ रहने वाली थी।

जब उनके बारे में गाहे - बगाहे कुछ अफवाहे सुन जाता तो ऐसा लगता की इतने नजदीक रह कर भी मैं उन्हें कम जानता था। तब यह भावना और भी पुख्ता हो जाती जब वो कहती - "सार्थक, ये काजल की कोठरी है, कोशिश करना कि तुम्हारा दामन बेदाग ही रहे।"

सोचने लगता कि एक खबर के पीछे छुपे खबर को तलाशने और उसकी Copy को Rewrite करने के बीच ऐसा क्या हो जायेगा कि मेरा दामन दागदार हो जायेगा। शायद शुभ्रा दी ने अभी मुझे प्रपंच की Training नहीं दी थी या देना नहीं चाहती थी।

शुभ्रा दी मेरे लिए एक आदर्श थी पर एक रहस्य भी थी। मैं उनके निर्भीक व्यक्तित्व और प्रतिभा का कायल था। लगता मैं सब कुछ बड़ी जल्दी जान जाना चाहता हूँ। फिर खुद को ही तस्सली देता, अभी तो बस थोड़ा समय ही हुआ है, वक्त के साथ शुभ्रा दी के रहस्य भी जान जाऊंगा।

***

मुझे पता नहीं था कि इन सात महीनों में मैंने इतने दोस्त बना लिए थे इस अखबार में। मिश्र जी ने भी मुझे शुभकामनाएं दी थी। सारे लोग मेरे बारे में बात कर रहे थे। एक साथ इतनी प्रशंसा सुनकर मैं काफी प्रफुल्लित हो गया था। आज मेरा आखरी दिन था यहाँ। मेरा रिजल्ट आया था प्रशासनिक सेवा का। मैं अच्छे रैंक से पास हुआ था। सो मुझे अब इस नौकरी से इस्तीफा दे कर अकादमी में जाने की तैयारी करनी थी। ऑफिस के सारे लोग जमा थे उस हॉल में। मेरी तारीफों के कसीदे गढ़े जा रहे थे। सारे मेरे साथ के अनुभव लोगों को बता रहे थे और लगभग सबको पता था की एक दिन मैं जरूर प्रशासनिक सेवा पास करूंगा। पर मेरी नजर अभी भी उस बड़े हॉल में किसी को तलाश रही थी। टकटकी लगाए दरवाजे की ओर देख रहा था कि अब एक आभा दरवाजा खोल कर अंदर आएगी और पूरे कमरे को प्रकाश से भर देगी। पर अभी भी शुभ्रा दी कहीं नजर नहीं आ रही थी। एक वक्त के बाद वो प्रशंसा के शब्द भी चुभने लगे थे। लग रहा था कि ये लोग मेरी तारीफ नहीं शब्द वाणों से मुझे बेध रहे हैं और मैं भीष्म की तरह निःसहाय उन वाणों को अपने में लिए जा रहा था। जब सारे भरत वचन ख़त्म हो गए और सबको धन्यवाद ज्ञापित कर दिया तो मैं बैचेन क़दमों से कमरे से बाहर जाने लगा। पीछे से मेरे कंधे पर एक हाथ आया। मैं एकदम से पीछे पलट कर देखा। थोड़ी धड़क थी कि शायद शुभ्रा दी आ गयी। पीछे प्रभाष था। वो मेरी ओर थोड़ा झुक कर बोला - "सार्थक, एक बार अपने क्यूबिकल से होते हुए जाना। शुभ्रा दी तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं।"

मैं पलट कर सीधा क्यूबिकल की ओर लपक पड़ा। प्रभाष कुछ और भी कहना चाहता था पर मैंने उसे अनसुना कर दिया।

शुभ्रा दी वहाँ बैठी थी। रीडिंग ग्लास लगा कर कुछ पढ़ रही थी। मुझे देखते हीं किताब साइड में रख दिया।

"हाँ भाई IAS साहब। तुम तो काफी Serious Student निकले। सीखते कुछ और रहे और कर कुछ और ही गए।"

"अरे दीदी, आपको तो मैंने बताया ही था कि मेरा उदेश्य जीवन में एकदम साफ़ है। मैंने बस वही किया।"

"हाँ, लेकिन मुझे लगा कि ये सब बोलने की बातें हैं। जिसे बनना साहित्यकार है वो Bureaucrat कैसे बन सकता है। पर शुक्र है कि इस Profession ने तुम्हे अपना - सा नहीं बनाया। तुम्हारे मंगल भविष्य की कामना करती हूँ।" बोलते बोलते उनका गला रुंध गया। उनका रुंधा गला मेरे आँखों के पोरों में पानी बन जम गया।

"दीदी ये लक्ष्य मेरे जन्म के साथ ही मुझे दे दिया गया था। मुझे भी कभी ऐसा नहीं लगा की यह लक्ष्य मुझपे थोपा गया है। समय के साथ लगने लगा की मुझे भी प्रशासनिक सेवा में ही जाना चाहिए। फिर ऐसे भी मैं यहाँ अस्थाई कर्मचारी था।" मैं भावविह्वल हो कर बोले जा रहा था जिसकी जरुरत थी भी या नहीं, कह नहीं सकता। रुका भी शुभ्रा दी के इशारे पर ही।

वो मेरे नजदीक आ गयीं और अचानक मुझसे लिपट गईं। मैंने ये रूप कभी नहीं देखा था शुभ्रा दी का। कुछ क्षण यू ही लिपटी रहीं। बोली - "सार्थक, कम समय हुए हैं तुम्हारे साथ काम करते हुए। लेकिन इन कम समय में ही एक अलग रिश्ता सा लगने लगा था तुमसे। लगता की तुम मेरे सच के छोटे भाई हो। तुम्हे देख कर बहुत प्यार आता। तुम हो भी बड़े प्रतिभावान। कभी मुझे काम में शिकायत का मौका नहीं दिया था तुमने। पता था एक दिन जरूर बहुत तरक्की करोगे। जीते रहो मेरे भाई। खुश रहो। और जल्दी निकल जाओ यहाँ से। इतनी बड़ी पत्रकार रोती हुई अच्छी नहीं लगेगी।" कहते कहते उन्होंने मुझे पीछे ठेल दिया। मैं बड़ा ही किंकर्तव्यविमूढ़ वहीं खड़ा रहा और वो अपने कातर नेत्रों से मुझे जाने को बोलती रही। बड़ा अजीब क्षण था वो। मुझे अजीब सी बेचैनी महसूस होने लगी। लगा कि मैं यहाँ के लिए ही बना था। आज पहली बार ऐसा लगा की मुझे सब कुछ छोड़ कर यही रहना चाहिए। अचानक मेरे अवचेतन मन ने मुझे झकझोड़ा। नहीं - नहीं मुझे अकादमी जाना है। वही सपना लिए मैं दिन रात जीता था।

"चला जा वर्ना जो तेरे दिल में चल रहा है वही कर बैठेगा।" जैसे उन्होंने मेरी दिल की आवाज सुन ली हो।

थोड़ा आश्चर्यचकित हुआ पर फिर अचानक ही मुड़ गया। वो पीछे से रोकती हुई बोली - "जाते - जाते कुछ यादें तो ले जा यहाँ की, हमारी कुछ कहानियां तो तह कर ले। क्या पता कभी ये हमारी याद दिला जाए।" कहते हुए उन्होंने एक छोटी सी मखमल में लिपटी डिब्बी मेरे हाथ पे धर दिया। मैं थोड़ा और अचंभित हुआ। ये  सब मेरे लिए नया था। मैंने वो मखमल के कपड़े को हटाया तो बड़ी प्यारी एक चपटी लाल रंग की डिब्बी थी। उसे बड़े करीने से खोला। अंदर एक बड़ा ही प्यारा Broch था। शायद चांदी का था जिसमे बड़े प्यारे फिरोजी रंग के पत्थर लगे थे।

"जब कभी मौका मिले और मुझसे मिलने का दिल करे तो इसे जरूर पहन कर आना।"

अब तक जो मैं अचंभित हो सब कुछ अनुभव कर रहा था, अचानक थोड़ा भावुक हो गया। मुँह से कुछ आवाज नहीं निकल पा रही थी। मैंने उसे माथे से लगाया, हाथ जोड़ा और उस क्यूबिकल से बाहर निकल गया। बाहर पार्किंग में मेरी स्कूटर रखी थी। स्टार्ट कर के सीधे घर के रास्ते हो लिया। आज जैसे मेरे एक युग का अंत हो गया हो मानो।

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अगला कुछ समय पुलिस अकादमी में बीता। शायद अब तक के जीवन में पहली बार मैं घर से बाहर रहने को आया था। हैदराबाद में हमारी काफी सख्त और कठिन ट्रेनिंग कराई गयी। फिर वो व्यवहार विज्ञान की ट्रेनिंग हो या फॉरेंसिक, वायरलेस, फोटोग्राफिक ट्रेनिंग, लगता ये लोग जान ही निकाल देंगे पढ़ा पढ़ा कर। उससे भी जो कुछ बच जाये तो सारी कसर हमारे ड्रिल इंस्ट्रक्टर निकाल देते थे। ये पूरी ट्रेनिंग हालाँकि काफी थका देने वाली थी पर कभी बोझ देने वाली नहीं लगी। तक़रीबन सारे ऑफिसर्स बड़े आनंद के साथ पूरी ट्रेनिंग ले रहे थे। सारी शिक्षा तब सामने आ जाती है जब परीक्षा होती है। सारे लोग तो अभी ही UPSC की घनघोर पढ़ाई से बाहर आये थे, सो परीक्षा कुछ ख़ास कठिन नहीं थे लोगों के लिए। हालाँकि अभी तो असल व्यावहारिक परीक्षा बाकी थी जो हमें पोस्टिंग के बाद देनी थी, लगभग रोज।

आखिर पोस्टिंग आ गई हम सब की। मैं बिहार काडर का था सो मुझे पटना में राज्य मुख्यालय में रिपोर्ट करने को बोला गया। वही से मुझे आगे की पोस्टिंग मिलनी थी।

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लग रहा था कि आगे तो अब आराम की जिंदगी होगी। भले ही ASP रैंक था मैं पर लगभग 1.5 साल तक मेरे न जाने कौन कौन से ट्रेनिंग चलते रहे। कभी कांस्टेबल तो कभी थाना इंचार्ज जैसे कई स्टिंट करवाए गए मुझसे। अन्ततः मेरी असल पोस्टिंग आ गयी। मुझे पटना मध्य का SP बना कर भेजा गया। यह मेरा गृह शहर था।

मुझे एक सफ़ेद रंग की Scorpio दी गयी थी, नीली बत्ती वाली। जब मैं अपनी गाड़ी में बैठ अपने मोहल्ले में पंहुचा तो उस वक़्त मोहल्ले की बिजली चली गयी थी और चारो ओर अँधेरा पसरा था। सड़क किनारे की दुकानों की टिमटिमाती बत्तियां गाहे बगाहे उस अँधेरे को चुनौती दे रही थी। पुरे रस्ते ऐसा ही मंजर था। उस अँधेरे में मेरी गाड़ी एक अलग ही खलिश पैदा पर रही थी। सड़क के लोग घूमती नीली बत्ती को देख कर दूर से ही हड़बड़ा कर रास्ता दे रहे थे। हालाँकि अब तक इस तरह के दृश्य देखने का मैं अभ्यस्त हो गया था। पर पता नहीं क्यों आज कुछ अलग ही ख़ुशी महसूस कर रहा था ये सब देख कर। पहली बार ऐसे अपने मोहल्ले में आया था। रस्ते भर कई जाने पहचाने चहरे दिख रहे थे। समझ नहीं पा रहा थी कि उन्हें नजरअंदाज करू या रुक कर उनसे मिलूं, कुछ बातें करू। मुझे इसी असमंजस में रख, गाड़ी आगे बढ़ी जा रही थी और ये जाने पहचाने चेहरे पीछे छूटते जा रहे थे।

जब अपनी गली में पहुंचा तो जैसे मेरी धड़कने तेज़ हो गयी। जो सपना माँ - पापा ने रोज देखा था मेरे लिए, उसे पहने आज मैं उनके पास खड़ा होने वाला था। बैठे - बैठे कल्पना कर रहा था की मेरे पिताजी और माँ की पहली प्रतिक्रिया क्या होगी जब मुझे पूरी वर्दी और इस गाड़ी में देखेंगे। मैं इस कल्पना की कल्पना से ही मंद मंद मुस्कुरा रहा था, खुश हो रहा था।

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आज अचानक ही मुझे पुलिस मुख्यालय बुलाया गया। DIG साहब के सामने बैठा था। कई अन्य अधिकारी भी वहां बैठे थे। एक काफी हाई लेवल मीटिंग थी, किसी हाई प्रोफाइल केस के सन्दर्भ में। यह एक आकस्मिक मीटिंग बुलाई गई थी। एक Brief दी गयी पुरे केस की। यह एक Political Power Broker का केस था जिसमे आज एक्शन लेना था। काफी अच्छी Leads थी हमारे पास। मेरा जुड़ाव भी था इस केस से जहाँ इसके एक हिस्से पर मैं काम कर रहा था। काफी Political - Judicial प्रेशर था हमपे इस केस को जल्द - से - जल्द चार्जशीट करने का। आज वो मौका था जब हमें इसपर Final Charge करना था। मुझे इस केस के एक मुख्य आरोपी को गिरफ्तार करने जाना था। मीटिंग में सारे प्लान होने के बाद मैंने अपनी Check List देखी की ऐन मौके पे कोई कागज कम ना पड़ जाये। ये एक हाई प्रोफाइल केस था सो हमारी एक जरा सी चूक हमारे गले का फ़ांस बन सकती थी।

मैंने Arrest Warrant मंगवाई। हिंदी में थी। यही तो मेरा क्षेत्र था। मैंने उसे देखा, तो मेरे होश पाख्ता हो गए। यह Warrant शुभ्रा अरुण के लिए था। आज तक इस केस पर काम करते ये नाम कभी नहीं आया था। सारी बातें इन्वेस्टीगेशन के दौरान हम कोड में कर रहे थे। ये पहली बार कोई नाम मेरे सामने आया था। हालाँकि मैं केस के किसी दूसरे अंश पे काम कर रहा था, सो मेरी जानकारी थोड़ी सीमित थी इस पुरे केस की। इस आरोपी की गिरफ़्तारी मेरे क्षेत्र से होना था सो इसकी जिम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी।

"शुभ्रा अरुण..." नाम पढ़ते ही मेरा पूरा अतीत मेरी आँखों के सामने से गुजर गयी। जो कुछ पुरानी भावनाएँ तह कर रखी थी, आज अचानक सारे खुल के उलझ गए। अकादेमी में ऐसी परिस्थितियों के बारे में बताया गया था की कई दफा हमारे Sub Conscious और Conscious Mind के बीच द्वन्द का सामना करना पड़ता है। वो वक़्त होता है जब आपकी विश्वनीयता दांव पर होती है। उनसे निकलना इस बात का निर्णय करता है की आप अपने कर्तव्यों पर कितना खरे हैं। पर यह स्थिति इतनी जल्दी मिल जाएगी, सोंचा नहीं था। उस वक़्त तो लगा था ये एक प्राकल्पनात्मक परिस्थिति की बात है जो शायद इतना देखने को नहीं मिलता।

अपनी उलझनों में उलझा मैं कुछ देर तक खड़ा रहा Warrant लिए। Warrant पढ़ते समय मुझे कुछ त्रुटियां नजर आयी जिसे मैंने तत्काल ठीक करवाया। अब लगा की ये Warrant एकदम शुद्ध सरकारी हिंदी में लिखी गयी है। सारी तैयारी हो गयी थी। बस अब Final Charge का इंतज़ार था। हमारे अपने Intel पूरी स्थिति पे नजर बनाये हुए थें। जैसे ही हमें सिग्नल मिले, हम पूरी तैयारी के साथ निकल पड़े केस के अपने हिस्से का दायित्व पूरा करने के लिए। मैं जींस - शर्ट और कोट पहने हुए था। झटपट मैंने बैग से वो Broch निकाला और अपने कोट पर लगा लिया। यही वो वादा था शुभ्रा दी के साथ कि जब हम मिले तो Broch पहन कर आना। वो मेरी पहली गुरु थी हिंदी की, सो वारंट तक Re-write करवाया और चल पड़ा निर्दिष्ट गंतव्य पर।

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"सार्थक, मुझे पता था कि एक दिन तुम जरूर आओगे। वर्दी में क्यों नहीं आया। मैं अपने छोटे भाई को फूल वर्दी में तो देख लेती। वैसे Broch अच्छा लग रहा है तुमपर। आओगे मिलने लेकिन ऐसे आओगे, कभी सोंचा नहीं था।"

"Miss शुभ्रा अरुण, माफ़ करियेगा मैडम पर आपको हमारे साथ चलना पड़ेगा थाने। Serious allegation है आप पर। ये वारंट है इसका।" मैंने लगभग अपनी भावनाओं पे काबू पा उनकी बातों को नजरअंदाज कर बोला।

"अरे वाह! कहाँ तो साहित्यिक हिंदी लिखते थे और कहाँ इस सरकारी हिंदी में निपुणता ले आये।"

आज शुभ्रा दी के वो अनसुलझे रहस्य परत दर परत खुल रहे थे मेरे सामने। मैं आज भी किंकर्तव्यविमूढ़ अपने आँखों के पोरों में पानी भरे देखता जा रहा था उन रहस्यों को बेपर्दा होते।

 - अमितेश