बुधवार, 21 जून 2017

A Date With Indian Railway

So it is not so often happens to travel in Train. Mostly once or twice a quarter kind of experience I get these days. It came this time a little early. Was traveling to Howrah from Jamalpur station. Jamalpur is one very beautiful city in India, with world class infrastructure and ITC's state of the art cigarette factory. The city have another industry that makes world class gun and sell it to the world. The climate is no less than any city of Switzerland. Duh, I don't know how much lie a man can speak when it comes to explaining his "In Laws" place.

So the context here is not date with same old young Wife but with ageing and growing beautiful Indian Railways.

How it feels when you see a station cleaner than even thought off is beyond the explanation. My marriage is as old as this "Nationalist" government and so is the time I am traveling to Jamalpur. Every time I have seen this station and its platform, it is getting cleaner than last time. What behavioural changes observed in these time is shift of Rail Employees thought to justify what they are meant for. Cleaning was happening in Platform on a very pattern based frequency. What hasn't changed was every time they broom, they collect lots of garbage. Means the garbage box was used mostly by Rail Employees and not so often by the passengers. What if the station has not been clean and passengers would have to jump over garbage to catch the train. I think the civilised Citizen of India would have thrashed the government and the Railways Ministry so bad that would even has raised brow on government making money from our taxes by doing corruption and not service. Irrespective whether they pay taxes or not.

Out of that "Keeda" in me, I met the Station Master there and have expressed my happiness for keeping the station so very clean. He was so happy to hear, and said that I am the first person in his 2.5 year tenure in this station who came to congratulate than complain. When I asked for the comment / complaint book to write this, he said that its complaint book and not book of appreciation as we hardly get. I said that I really don't have complaints regarding the cleanliness and want to write that but at the same time have complain that ever since this government is in power, I hardly have heard train coming on time.

So after a wait of around 3 hour, my train came. I went to my designated berth. To my surprise, the compartment was filled with unauthorized occupants, so called "Local Passengers" traveling till Bhagalpur or so. Somehow I managed to atleast sit till their destination arrives. What next was usage of social media to kill time. So I opened Twitter and went to @RailMinIndia handle. Raised my concern regarding the situation I am in. In 7 min, I got a reply on that and in the next station two uniformed person came to fix my issue and let me stretch my leg on my berth. I thanked them and felt pity about those full compartment or perhaps full bogie "Local Passengers". Even my fellow "authorised" passengers thanked me. While I have made discomfort for the local passengers, what if they were me and I was them? Perhaps would have traveled with them as second class citizen, which we at times often experience.

I thought that after all these experiences, my date with Indian Railways is now going to be smooth and memorable. Huh, but few more was planned by surprise me and write longer.
This train was coming from Gaya so the linens were being used by passengers boarded in Gaya and would have alighted in between. I asked attendant to provide me fresh linen, he said that the bed cover lying on the berths has not been used by the previous passengers for much longer period of time and why can't I use them. He gave all the irrelevant logic to let me use soiled linens. When I insisted to use fresh one, he finally gave a packed one.

I think to all these incidents during my this date with the Indian Railways, what came out very prominently is that things would not change until and unless we do not change. Government again is the bunch of people coming from within us only. If that are showing signs of changes, why can't we! How much time we require to be the change from being the problem.

Anyways my date with Railways has always been adventurous and this Journey also have lived up to the expectations, without being exception.

मंगलवार, 20 जून 2017

Archived

बाइस की उम्र तक पढ़ाई फिर नौकरी और पैंतालीस तक आते आते रिटायरमेंट। हां तब तक इतने पैसे बना लो की रिटायरमेंट वाली लाइफ बिना किसी उलझन के बीते। हसरतें पूरी करने के लिए कई दफा सोचना ना पड़े. नाही हसरतों को Replace करना पड़े किसी अन्य हसरत से. 

सब कुछ वैसे ही Planned Way में हो रहा था प्रवीर की लाइफ में. पहले IIT कानपुर  फिर IIM कोलकाता और 23 - 24 की उम्र तक एक MNC में नौकरी हो गयी थी. 35 तक तो वो उस कंपनी का GM बन गया था और 40 तक Global GM. करियर के इस पड़ाव तक आते प्रवीर अरबपति बन चुका था. अब वो अपना रिटायरमेंट प्लान कर सकता था सो जैसा सोचा वैसा किया. 45 की उम्र में उसने VRS ले लिया था. उसकी कंपनी ने ससम्मान उसे रिटायरमेंट दे दिया था. अब आगे जो था वो अपनी बीबी के साथ समय बिताना और अपने बेटे के लिए हर वो सुविधाएँ जमा करना जो उसे उससे भी बेहतर भविष्य दे पाए. प्रवीर अपनी जिम्मेदारियों से कभी भागा नहीं. हर वो बात जो ज़रूरी थी, किया। रिटायरमेंट का पहला साल तो कब निकला पता भी नहीं चला. 

पता नहीं क्यों आज वो एक छुट्टी पे जाना चाहता था... अकेले. कहाँ पता नहीं, क्यों, शायद उसका जवाब नहीं था उसके पास या जवाब वो खुद को भी नहीं देना चाहता था. रचना भी उसे समय देना चाहती थी. वो प्रवीर को उस वक़्त से जानती थी जब से उसमे ये ज़िन्दगी वाली फिलॉसोफी बन रही थी. 
कई दफा ज़िन्दगी के भाग दौड़ में हम कुछ छोटी लेकिन अहम् बातों को miss कर जाते हैं जो गाहे बगाहे ज़िन्दगी की सम्पूर्णता को मुँह चिढ़ा जाती है. रचना इस बात को भली भांति जानती थी. सो उसने प्रवीर की इस एक इच्छा को पूरी करने को तथास्तु कह दिया. शायद उसकी ज़िन्दगी की वो कुछ छोटी छोटी बातें जो miss हो गई थी प्रवीर समेटना चाहता था. 

***

बाहर का मौसम जैसे भीतर सिहरन पैदा कर रही थी. बाहर झक सफ़ेद बर्फ की चादर फैली थी. पूरा हिमालयन रेंज जैसे सफ़ेद चादर ओढ़े सुस्ता रहा था. एयरलाइन्स वालों ने लेह जाने के लिए ATR उपलब्ध करवाया था. सो ज्यादा ऊंचाई पर नहीं उड़ने की वजह से जैसे प्रवीर उन हिमालयन रेंज का एक अविभाज्य हिस्सा बना हुआ था पुरे रस्ते. जैसे वो हर नॉटिकल माइल्स के साथ inseparable होता जा रहा था उस आदि हिमालय से. 

लेह... यह जगह उसके Archived Mail का एक अहम् हिस्सा था. Archived Mail... हाँ ये उसकी आदत से थी की जो काम वो शायद बाद में करना चाहता था उसे Archived कर देता था. हाँ हमेशा ध्यान रखता था की Mail उसके Archive Folder में ज्यादा समय तक ना रहे. बस ये लेह वाला Mail ही कई अरसों से उसके Archive में पड़ा था... शायद 20 - 22 वर्षों से. पता नहीं क्यों वो इतने समय तक वहां पड़ा था... ना जाने ये वक़्त सही था क्या की उसे un-archive किया जाए... क्या ये सच में un-archive हो भी पायेगा... ना जाने कितनी बातें, कितने विचार उसके मन में तैर रहे थे. हर बीतते वक़्त के साथ वो उन सफ़ेद पहाड़ों में घुलता जा रहा था, उनका और भी अपना हिस्सा होता जा रहा था. वो समझ नहीं पा रहा था की वो उस Archive Mail के बारे में कुछ जयादा ही सोच रहा है या उसका मस्तिष्क शुन्य में जाता जा रहा है. उसकी यह तंद्रा Air Hostess की आवाज़ के बाद ही भंग हुई - "देविओं और सज्जनों, लेह के Kushok Bakula Rimpochee Airport में आपका हार्दिक स्वागत है. इस समय बाहर का तापमान 7 Degree Celsius है. यह एक सैनिक हवाई अड्डा है और यहाँ तस्वीरें लेना वर्जित है. जब तक कुर्सी की पेटी बांधने का संकेत बंद ना हो जाये, कृपया अपनी जगह पर बैठे रहें... "

प्रवीर अपनी तंद्राओं में ही दिल्ली से लेह पहुंच गया था. हालाँकि मानसिक तौर पर तो अब तक वह लेह में भली भांति घुल मिल भी चुका था, बस शरीर अभी पंहुचा था. एयरक्राफ्ट का दरवाज़ा खुलते ही जो सिहरन अब तक आँखों में थी, वो अच्चानक ही पुरे शरीर में फैलने  लगी थी. 

***

यह एक छोटा सा गेस्ट हाउस था मॉल रोड के एक छोर पे. हालाँकि यह गेस्ट हाउस प्रवीर की हैसियत से कहीं छोटा था. किसी भी एंगल से वो प्रवीर के स्टैण्डर्ड का नहीं था. यह सब प्रवीर को गेस्ट हाउस पहुंचने के बाद पता चला हो ऐसा भी नहीं था. यह गेस्ट हाउस खुद उसने ही Book की थी, Online App से. उसे इस गेस्ट हाउस और इसमें उपलब्ध होने वाली सुविधाओं के बारे में पहले से ही इल्म था. यहाँ रुकने का एक उद्देश्य था. इस गेस्ट हाउस के पास ही एक Cafeteria थी, जहाँ बैठ कर लोग किताबें पढ़ सकते थे, और अपने भीतर पनपते किताबों को लिख भी सकते थे. 

***

"Bookworm Cafeteria" - अजीब सा नाम था ये. असल में अजीब सी जगह भी थी ये. एक Cafeteria जो घर सा लगता था. दीवारों पर Designer Book Shelf लगे थे जिन पर करीने से हिंदी और अंग्रेजी की पुस्तकें रखी हुई थी. साहित्य, यात्रा वृतांत, इतिहास, मनोविज्ञान और न जाने क्या क्या. कई विषयों की कई किताबें. जगह - जगह कुर्सियां लगी थी, आराम कुर्सियों जैसी. कुछ ज़मीन पे गद्दे रखे थे. उनपे साफ़ सुन्दर चादर बिछी हुई थी. कहीं छोटी चटाई बिछी थी दीवारों से लग के. हर जगह एक या दो लोगों के बैठने की जगह थी. हर जगह पर लगभग एक जैसी ही Coffee Table राखी हुई थी. तिकोने Coffee Table. उस पर एक छोटा सा एक पन्ने का लैमिनेटेड मेनू कार्ड रखा था - बहुत ही सीमित मेनू थी - कॉफ़ी, चाय, निम्बू चाय, Fresh Lime Water / Soda, क्लब सैंडविच और ब्रेड बटर बस. लिहाजा आपके पास कुछ ज्यादा Choice नहीं थी खाने पीने की. अगर भूख लग जाए किताबें पढ़ते - पढ़ते तो सामने के होटल से खाना पार्सल करवा कर टेरेस पे खा सकते थे. बस साफ़ - सफाई का ध्यान आपको रखना होगा. 
कुल मिला कर यह जगह Book Worm के लिए ज्यादा और कॉफ़ी पीने वालों के लिए थोड़ी काम थी. और ये सब एक 20 - 21 साल की लड़की मैनेज कर रही थी. 

प्रवीर जब पहली बार उससे मिला तो लगा ये शायद उसी का एक हिस्सा सा है. वो एक Missing हिस्सा जो अनायास ही प्रवीर को एक पूर्णता दे गया था. 

"Hi, मेरा नाम प्रवीर है." 

"Hello Sir, welcome to Navya's Bookworm Cafeteria."

नव्या... अच्छा नाम था... आज का नाम... आधुनिक वाला नाम. वो एक नयी लड़की ही थी. 20 - 21 साल की. तक़रीबन पांच फिट लम्बी और पहाड़ी नैन नक्श. उसकी लुक में थोड़ी से उत्तर भारतीयता भी झलकती थी. वैसे भी हमारे बड़े ही Clear Sorting Mechanism हैं लोगों को ले कर. पहले देश, फिर क्षेत्र, फिर प्रान्त और फिर जाति। और इस पुरे Sorting Process में हम एक स्टेप भी miss नहीं करते. प्रवीर का मस्तिष्क ना चाहते हुए भी उस Sorting Process को Follow कर रहा था. 

"Sir..." उस एक आवाज़ ने फिर से खींच कर उसे वापस खड़ा कर दिया था इस Cafeteria में. 

"Sir, feel comfortable here. Treat this as your own house and select what you want to read today. हम सिर्फ कॉफ़ी और सैंडविच का चार्ज करते हैं. किताबें और समय एकदम फ्री है."

"Umm, हाँ... Thank You." प्रवीर फिर वापस वहीँ चला गया था जहाँ वो कुछ क्षण पहले तक था. काफी Mechanized तरीके से वो उस Cafeteria की दिवार  दर दिवार घूमता रहा, अनायास ही एक किताब उठाई और एक कोने में बैठ गया. थोड़ी देर में एक कप कॉफ़ी आ गयी उसकी कॉफ़ी टेबल पर. उस कफ मग पर "Bookworm Cafeteria" लिखा था और एक किताब पे कुछ Silver Fish की तस्वीर भी छपी थी. प्रवीर ने जो किताब उठाई थी उसे खोल कर अपना अतीत पढ़ने लगा. लगा वो पढ़ कुछ और रहा है और उसकी आँखों के आगे चल कुछ और रहा है. कभी वो अपने IIT के दिन याद करता, कभी अपनी Archive Mail में खो जाता. क्या मालूम वो जिस Archive Mail को पिछले 20 - 22 साल से Track कर रहा था, ये वही है. क्या 20 - 22 साल पहले वीर्य दान से जन्मे बच्चे पर भी आपकी भावनाएं जागृत हो सकती हैं? क्या नव्या उसी का एक हिस्सा है? क्या सच में नव्या के प्रति उसके मन में पितृत्व की भावना है भी की नहीं. क्या यह सही है की 20 - 22 साल पहले किये गए किसी कृत्य को इस हद तक Track किया जाये?... पता नहीं क्या - क्या सोचे जा रहा था वो... न जाने कितनी ही भावनाओं के उछाह को वो महसूस कर रहा था अपने भीतर. हालाँकि कोई भावना सैलाब बन अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर रही थी. शायद उम्र हममें इतनी परिपक्वता दे जाती है कि जो अंदर चल रहा होता है उसे हम अंदर ही समेट - सहेज पाते हैं. जो बाहर निकलने की उछृंखलता नहीं दिखा पाता। 

***

कुछ दिनों तक... शायद 7 - 8 दिनों तक ऐसा ही चलता रहा. प्रवीर रोज कुछ घंटों के लिए Bookworm Cafeteria आता और किताबें चाहे कोई भी उठाता, पढ़ता अपना अतीत ही था. इतने दिनों में वो एक बात तो ज़रूर समझ गया था कि ऐसा ही Cafeteria कभी उसका एक ख्वाब हुआ करता था. शायद ऐसा Cafeteria खोलना उसका अपना Retirement Plan था. आज न जाने कैसे उसी का एक अनाम - सा या यों कहें की अनायास सा हिस्सा उसके इस चिरस्वप्न को पूरा कर रहा था. प्रवीर अपने इसी Retirement Plan को पूरा करने के लिए पिछले कई वर्षों से किताबें इकट्ठा कर रहा था. की आज विभिन्न विषयों की 3 - 4 हज़ार किताबें उसकी अपनी लाइब्रेरी में थी. तक़रीबन सभी किताबें प्रवीर ने पढ़ी हुई थी. 

***

"Hi नव्या, मैं अब वापस जा रहा हूँ जहाँ का मैं हिस्सा हूँ. हाँ मुझे तुम्हारी यह जगह बहुत  ज्यादा पसंद आयी. मैं यहाँ आया था क्योकिं कहीं न कहीं यह मेरे सपनों का मूर्त रूप है. यहाँ आ कर मुझे लगा की वर्षों से मेरे भीतर सोये से मेरे सपनों को  मुकाम मिल गया है. जाते - जाते मैं अपनी लाइब्रेरी तुम्हे भेंट करना चाहता हूँ. लोगी ना तुम... "

"क्यों नहीं सर. यह तो मेरे लिए बहुत बड़ी बात होगी. आपकी दी हुई किताबें शायद कइयों के काम आये. It would be my privilege to have your books here in my small cafeteria."

"हाँ, इतनी किताबें रखने के लिए शायद तुम्हे कुछ ज्यादा जगह चाहिए होगी. मैंने एक लिफाफा तुम्हारे टेबल पे रख छोड़ा है. शायद वो तुम्हारे इस सपने को सतरंगी करने में मदद करे."

"Thank You Sir..."

बात ख़त्म होते होते ही प्रवीर वहां से जा चुका था. 

नव्या ने अपनी टेबल पर पड़े लिफाफे को खोला तो लगा चेक पर जो Amount लिखी है वो लाइब्रेरी के एक्सटेंशन में होने वाले खर्चे से कहीं ज्यादा है. उसे समझ नहीं आ रहा था की वो अपने पास इसे रखे या वापस कर दे मिस्टर प्रवीर को. कुछ क्षण इसी उहा पोह में बिताने के बाद उसने Decide किया की वो इस चेक को बैंक में जमा नहीं करेगी... शायद किसी और से लाइब्रेरी के लिए किताबें ले लेना ही काफी है. रुपये वैसे भी नव्या की Priority List में सबसे नीचे आता है. अपने माँ - बाबा की मौत के बाद उसने अपनी देखभाल खुद ही की है. उसने खुद ही अपने घर को इस Cafeteria में convert किया था. इस जगह से इतना पैसा तो आ ही जाता है की उसकी ज़िन्दगी अच्छे से चल पाए और महीने की आखिर में कुछ पैसे और किताबें खरीदने के लिए बचा पाए. लेकिन मि. प्रवीर ने इतनी रकम और इतनी किताबें मुझे क्यों दान कर दी है? क्या हम किसी भी तरीके से एक दूसरे से जुड़े हैं या ये इंसान यूँ ही Charity कर के चला गया? समझ नहीं पा रही थी वो इन परिस्थितिओं और इसे पैदा करने वाले उस सक्स प्रवीर को. तभी उसकी Cafeteria में काम करने वाला लड़का राजू ने उसका दरवाजा खटखटाया और नव्या को सवालों के समुन्दर से बाहर निखला... कुछ और नए सवालों के थपेड़े देने के लिए. 

"दीदी, बाहर एक ट्रक खड़ा है. बोल रहा है आपके नाम से प्रवीर साहब ने कुछ किताबें भेजी हैं... चलो देखो तो... ढेर सारी किताबें हैं... ट्रक भर के..."

"अरे, इतनी जल्दी किताबें भी आ गयी. इसका मतलब मि. प्रवीर ने ये सब पहले से ही प्लान कर रखा था. पर क्यों..."

***
वापस जाते वक़्त फिर से ATR ही मिला था प्रवीर को. नीची ऊंचाई पे उड़ने वाला एयरक्राफ्ट. शायद जो जुड़ा था उसे वापस वहीं छोड़ देने के लिए समय ने उसे इस जहाज में डाला था. लेकिन वो जो जुड़ा था वो तो अरसे पहले जुड़ा था प्रवीर से. आज तो बस प्रवीर ने उसे और करीब से महसूस किया था. 
पता नहीं जो सिहरन यहाँ आते समय फ़ैल रही थी प्रवीर में वही सिहरन अब जैसे अपना रास्ता बदल चुकी थी. जैसे हर छूटते Nautical Miles के साथ प्रवीर का एक बड़ा हिस्सा पीछे छूटता जा रहा था. पता नहीं क्यों इस Archived Mail को un-archive कर के प्रवीर को उतना सुकून... उतनी शांति नहीं मिल रही थी. लगा जैसे ये Mail Archive Folder में ही रहता तो अच्छा होता. 

"देविओं और सज्जनों, कोलकाता के नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे में आपका स्वागत है... "


- अमितेश 

शनिवार, 3 जून 2017

मस्तमौला

बादल का वो टुकड़ा जो मुँह चिढ़ा गया 
सूरज को ढक कर उसकी अगन बढ़ा गया 

वो था बड़ा ही नटखट, वो था ज़रा मस्तमौला 
देख कर उसकी चंचलता, सूरज का ताप था खौला 

माँ ने उससे कहा था सूरज से दूर ही रहना 
था वो बड़ा ही शरारती, कहाँ मानता माँ का कहना 

चाह थी उसकी ढक ले सूरज की वो ऊर्जा 
इस बात से ही थी सूरज को बादल से ईर्ष्या 

गर्व नन्हे बादल का अभिमान में था बदला 
सूरज की चाह थी की मिले सबक उसे तगड़ा 

भाप का बना वो बादल भाप बन बिखर गया 
सूरज ने दिखाई जब ताकत, बादल न था वहां अब 

वो नन्हा वीर बादल यूँ ही टुकड़ों में बिखर गया था 
मिल फिर से वो अपनों में, वो सब का हो गया था 

एक दिन फिर एक नन्हा बादल अपनों से बिछड़ गया
एक और नन्हा बादल फिर मुँह चिढ़ा रहा था 
सूरज को ढक कर उसकी अगन बढ़ा रहा था 

- अमितेश 

रविवार, 7 मई 2017

The Kashmir and Kashmiriyat

"Sitting in Delhi, you guys will not understand what we are going through" this is something the most common answer you would hear if you ask any "Kashmiri" about current situation. Apparently if you ask a visiting non Kashmiri / Jammu people about this, their common reply is that everything is sponsored and staged.

To understand the issues of Kashmir what is essential is to stop and go back to 1947 - 48 and 1989. Take a look first at incidents of 1947-48. Once we got independence, we realised that it's not a country that got independence but a part of land and 557 princely states that got liberated from British crown. The biggest of the issues was making them realise that British left India as a whole and not individual states. And hence have to be together as a country rather than Princely states.
Taking the case of J&K, when things were getting worse, Patel thought once of leaving this state for Pakistan. But it was Seikh Abdulla and Nehru who thought of giving more time on this to resolve the issue. The then King Hari Singh had suggested following 4 options to resolve the issue :-

1. A general plebiscite to decide which citizenship is better for the people of J&K between the two dominions
2. State to be an independent entity with the security responsibilities to lies with both the dominions
3. A partition of state with Muslim habitat to go to Pakistan and the Hindu - Sikh part of the land to be with India
4. The India loving population and their land to be with India and those who don't should be part of Pakistan

When Lord Mountbatten suggested to take J&K case to UN, Sir Zafrullah Khan represented Pak in UN who happen to be one gifted orator had successfully proved the point that the intruders though were Pakistani but they came to India to save Muslims and was an obvious consequence of the tragic riots across Northern India in 1946-47.
This was one big mistake done by Nehru to take the issue to UN.
When the influx of Pak Intruders increased, Hari Singh asked India to help fighting with them and protecting J&K. Nehru was ready for that. Then only Mountbatten suggested to close the deal first of being the part of India. This is how we got our control on this princely state. This was one strategic failure of the diplomats of Pakistan. Though this Kashmir issue hasn't had standing on the next few years in Pakistan politics since it was more engrossed with the challenges of being a new country.

For next few decades, Pakistan kept herself engaged with poverty issue, Islamism and its milking, East Pakistan, Baluchistan etc and were hardly having any time to look upon making Kashmir their part. The maximum they did was supporting China in intruding India and the weak leadership or perhaps the leadership without much vision were indirectly supporting Pakistan in their endeavour. The India's leadership courage was one that in the subsequent decades made Pakistan believe that it now is much easy to enter into Indians life and in turn India to make them weak philosophically. The started intruding Kashmir taking advantage of Article 370 and the political willingness of India in abolishing this article. They started making relationship with Kashmiri boys and Girl. This was a part of the strategy made by ISI in early 90's.
Now when we complain about Kashmiri hoisting Paki flag and stone pelting by students, we should understand that they are the product of that social intrusion. Again the issue of Pak support is restricted only to 4-5 places that are the frontier districts. Most importantly, the sleeper cell of ISI is not only among the citizens of India, but also are there in the political and intellectual fraternity of India.
So to burst the nexus and issues of Kashmir, nothing much would be achieved by gunning down the stone pelting crowd. They are designed that way and Pak took time to design them this way. What is important is to break this sleeper cells in the political and intellectual class of India that is giving fuel to the fire of Kashmir issue. And not to forget, doing more works on the ground to actively connect with these so called "Pathbhrast Yuva Kashmiri".

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

पारकर पेन

कब पापा सुपर हीरो से सुपर जीरो हो गए थे, सुकृत को पता भी नहीं चला. 

याद है ना कैसे पापा अपनी साइकिल में आगे की रॉड पे एक छोटी सीट लगा लाये थे. तब सुकृत कितना खुश हुआ था. लगा की पापा कितना ध्यान रखते हैं उसका. जब वो उस छोटी सीट पर बैठ कर शहर घूम जाता था, दोनों हाथ हवा में फैलाये, उसे लगता की उस एक पल को वो सुकृत नहीं सुपर कमांडो ध्रुव हो गया है. पापा साइकिल पर पैंडल भी जब मारते तो साइकिल हवा से बात करती. सुकृत उस छोटी सीट पर बैठ जैसे हवा में उड़ रहा होता. कभी एक हाथ से अपने उड़ते बालों को आँखों से हटाता कभी पीछे छूटते लोगों को मुँह चिढ़ाता. तब लगता पापा सच में सुपर हीरो हैं. उसके किसी भी दोस्त के पापा की साइकिल में आगे की रॉड पर छोटी सीट नहीं लगी थी. वो इस मामले में खुद को अपने सब दोस्तों से बेहतर मानता था. 

जब स्कूल में Attendance लगाई जाती और उसका नाम "सुकृत" पुकारा जाता तो कितना गर्व से खड़ा हो कर वो "Present Miss" बोलता. गर्व क्योंकि उसका नाम क्लास में सबसे अलग था और शायद सबसे बेहतर भी, कम से कम वो तो यही सोचता था. यह नाम भी उसके पापा ने ही दिया था - सुकृत. उस दौर में जब सबके नाम प्रसून, मिथिलेश, रामेश्वर होता था, उसके पापा ने कितना नया नाम रखा था... एकदम Unique, कितने अलग थे ना उसके पापा. सबसे अलग, सबसे अच्छे. 

सबसे अच्छा तो उसे तब लगता जब नयी क्लास में जाने पर उसकी सारी कॉपी क़िताब नयी होती और एक Sunday को बैठ कर पापा उसकी सारी कॉपी क़िताब पे रंग बिरंगे जिल्द लगाते थे. पता नहीं कहाँ कहाँ से रंग बिरंगे मोटे कागज पापा खरीद कर लाते थे, जिल्द लगाने के लिए. एक Subject की कॉपी - किताब पे एक रंग का ही कवर लगाते थे. फिर उस पर सलीके से Name Plate चिपकाते और सब पर स्केच पेन से उसका नाम, स्कूल का नाम, कक्षा  और सब्जेक्ट लिखते थे. कितनी अच्छी Handwriting थी पापा की. फिर उस कवर के ऊपर सैलोपिन पेपर का कवर लगाते कि कवर समय के साथ गंदा ना हो जाये. तीन तीन के सेट बन जाते थे रंग बिरंगे कॉपी किताबों की - एक CW, एक HW और एक उस सब्जेक्ट के किताब की. फिर उसे सिर्फ सब्जेक्ट के कवर का कलर याद रखना होता था - और झट से वो कॉपी बैग से बाहर. बार बार उसे कॉपी निकाल निकाल कर खोल कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी की सही सब्जेक्ट की कॉपी निकाली है या नहीं. कितने अलग थे ना पापा. शायद सुपर हीरो से भी बेहतर. उसकी देखा देखी उसके कुछ दोस्तों ने भी Colorful कवर लगानी शुरू कर दी थी अपनी पुस्तकों पर. लेकिन वो कवर ख़ुद लगाते थे उनके पापा नहीं और फिर उनमे वो बात भी नहीं होती थी जो सुकृत की पुस्तकों में होती थी.

फिर उसके पास मार्बल पेन्सिल थी जो पापा ने ला कर दिया था - वो भी Colorful - Orange, Yellow, Green कलर की. उसके पीछे Eraser भी लगा था. कितना ध्यान रखते थे वो उसका. सुकृत भी पापा से चिपके बिना सो नहीं पाता था. उसे लगता की एक दिन वो भी पापा की तरह ही सुपर हीरो बनेगा. सबका ख्याल रखने वाला. हर चीज को अलग ढंग से करने वाला.

आज भी याद है उसे जब पापा ने Second Hand Scooter ख़रीदा था. Bajaj का Scooter. हालाँकि तब तक उसके कुछ दोस्तों के पिता ने भी Scooter खरीद लिया था लेकिन उसके पापा का Scooter सबसे Best था.
वो एक समय था जब पापा की हर बात अलग लगती थी, निराली लगती थी. और आज वो समय है जब लगता है की व्यर्थ ही पापा को सुपर हीरो समझते रहे थे. पापा सुपर हीरो बिलकुल नहीं हैं. वो एक आम इंसान हैं. सड़क पे चलते किसी भी इंसान की तरह. पापा की साइकिल पे तेजी से चलते समय पीछे जाते किसी भी इंसान की तरह... जिसका वज़ूद उतनी ही देर तक रहता है जितनी देर तक नज़र उस पर टिकी रहती है. मेरे पापा सच में एक Ordinary Man हैं. कोई सुपर हीरो नहीं हैं. बेकार ही उन्हें इतना Importance देता रहा था मैं.

पता नहीं ऐसी कितनी बातें सुकृत के दिमाग में चल रही थी. वो अपनी काले पीले रंग वाली Street Cat Cycle पे पैंडल मारता हुआ तेजी से घर की तरफ जा रहा था.
Street Cat Cycle भी तो पापा ने ही खरीद कर दी थी ना उसे. जब ये साइकिल घर आयी थी तो जैसे वो सातवें आसमान पे था. कितने शान से पापा ने कहा था - "अब तुम हाई स्कूल में आ गए हो, तो अब इस साइकिल से स्कूल जाना."
सुकृत तो अचानक ही अपने स्कूल में सबसे अलग लोगों में शामिल हो गया था. कुछ ही बच्चे थे स्कूल में जिनके पास सीधी हैंडल वाली साइकिल थी और उनमे से भी दो - एक लड़कों के पास Street Cat Cycle. उन दो - एक लड़कों में वो एक हो गया था. रोज वो सुबह सुबह अपनी साइकिल को ग्रीस से चमकाता था. और स्कूल जाने से पहले भी एक बार साफ़ करता था. हालाँकि उसे उस वक़्त ये समझ में नहीं आया की घर में साइकिल आते ही पापा का स्कूटर क्यों घर से बाहर नहीं निकलने लगा था. क्यों स्कूटर की थोड़ी सी Servicing का काम पापा ताल रहे थे? क्यों पापा अब ऑफिस आधा घंटा पहले निकलने लगे थे. असल में वो अब कोई सुपर हीरो नहीं थे, शायद इसलिए.

क्या माँगा था उसने पापा से - एक पारकर पेन ही ना. कौन सी दौलत मांग ली थी उसने पापा से. सौ रुपये की भी नहीं थी वो पेन. सिर्फ 99 रुपये की थी. पिछले एक महीने से टाल रहे थे - अच्छा कल ले आऊंगा, परसों मैं पैसे देता हूँ तुम खुद खरीद लेना.

पापा जितना ध्यान पहले रखते थे मेरा अब नहीं रखते. परकार पेन तो सिर्फ एक चीज है. ऐसी छोटी छोटी कई चीजों को पापा टालने लगे थे. पिछली दफा जब मैंने Super Commando Dhruv और नागराज के Comics Digest की बात की थी तो भी वो टाल गए थे. अब मेरे पापा सुपर हीरो नहीं रहे थे. वो सुपर जीरो हो गए हैं.

यही सोचता सोचता कब वो अपने पापा के ऑफिस के सामने से निकल गया पता ही नहीं चला. सुकृत को पापा की ऑफिस से घर का एक शार्ट कट रास्ता पता था. सोचा चलो उस रास्ते से घर चला जाता हूँ. ऐसे तो 8 KM का रास्ता है, इधर से निकला तो लगभग 6 KM में ही पहुँच जाऊंगा. यही सोचते सोचते उसने उस रास्ते पर अपनी साइकिल घुमा ली. साइकिल अपनी रफ़्तार में चल रही थी. उसके खयाल भी उसी रफ़्तार में चल रहे थे. हर वो उदाहरण जो पापा को सुपर हीरो से सुपर जीरो साबित करे उसके दिमाग में Slides की तरह चल रहे थे. जितना ही वो सोचता उतना ही उसका विश्वास अपने पापा से उठता जाता. तभी उसे दूर एक पहचानी सी आकृति आगे जाती दिखाई दी. अरे, ये तो पापा हैं शायद. पापा ही हैं. ये पैदल कहा जा रहे हैं. अचानक सुकृत की पैरों की रफ़्तार पैंडल पे धीमी हो गयी, और साइकिल भी. वो जानना छटा था की पापा पैदल कहाँ जा रहे हैं. वो छुपता छुपाता धीरे धीरे साइकिल चलाता पापा का पीछा करने लगा. पापा घर की ओर जा रहे हैं. वो सन्न रह गया. पापा ऑफिस से घर पैदल जा रहे हैं. तो क्या पापा रोज़ ऑफिस पैदल आने जाने लगे हैं? तभी वो ऑफिस के लिए थोड़ा पहले निकलते हैं इन दिनों. रोज 6 KM सुबह, 6 KM शाम को पैदल चल रहे हैं. किसलिए, की रोज ऑटो का 14 - 15 रुपये बचा पाएं. अब तो सुकृत को काटो तो खून नहीं. पता नहीं किन परेशानियों से गुजर रहे हैं पापा. एक बार मन किया की पीछे से पापा के पास पहुँच कर बोले की पापा आ जाओ, आप मेरी साइकिल की कैरियर पे बैठ जाओ, आज मैं आपको शहर की सैर करा लाऊँ. लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो पा रही थी पापा तक जाने की. उसने घर के पास के दूसरे रास्ते से तेजी से साइकिल निकाल ली. शायद इतनी रफ़्तार से सुकृत ने कभी साइकिल नहीं चलाई थी. आँखों से झर झर आंसू बहे जा रहे थे. लगा की सारी फसाद की जड़ वही है. समझ नहीं पा रहा था क्या करे की पापा को कोई तकलीफ ना हो. उन्हें ऐसा करने पर मज़बूर ना होना पड़े. लेकिन ये परिस्थितियां भी तो उसने ही पैदा की है. उसकी मांगें इतनी बढ़ गयी है इन  दिनों की पापा को एक - एक पैसा जोड़ने के लिए आज इतना पैदल चलना पड़ रहा है. स्कूटर नहीं बनवा पा रहे हैं.
अपने आंसुओं के समुन्दर में डूबता उतरता सोचता संभलता आखिर घर पहुँच हीं गया, पापा से पहले. साइकिल लगाया और दौड़ते हुए छत पे जाने लगा. माँ ने आवाज़ भी लगाई, पर अनसुना कर भागा वो. छत पे जा कर वो फूट फूट के रोने लगा. नहीं मेरे पापा आज भी सुपर हीरो हैं. और हमेशा रहेंगे. सुपर जीरो तो मैं हूँ. कितना कष्ट दिया है मैंने पापा को और पापा ने कभी उसे अभिव्यक्त नहीं किया, कभी उसे जानने भी नहीं दिया की वो कैसे दौर से गुजर रहे हैं. आज अचानक ही उसे लगने लगा की वो बड़ा हो गया है, सचमुच का. आज वो असल में हाई स्कूल का स्टूडेंट हो गया था. अब वो हर वो काम करने की कोशिश करेगा जो उसके पापा को ख़ुशी दे, सच्ची वाली ख़ुशी.
तभी माँ की आवाज़ आई - "सुकृत नीचे आ जा बेटा, पापा बुला रहे हैं तुझे. देख तेरे लिए क्या ले कर आये हैं."
जैसे तैसे अपनी सिसकियों पे काबू पा कर सुकृत ने अपना चेहरा धोया और भारी क़दमों से नीचे आ गया.
पापा ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठे हुए थे. उनके हाथ में एक लिफाफा था. वो उसे सुकृत की और बढ़ाते हुए बोले - "देख सुकृत, कलर तो पसंद है ना तुझे. नहीं तो मैं Return करवा कर तुम्हारी पसंद वाली रंग की ले आऊंगा."
कांपते हाथों से उसने लिफाफा ले कर खोला. एक खुबसूरत प्लास्टिक बॉक्स में नीले रंग का पारकर पेन था. 99 रुपये वाला नहीं, 199 रुपये वाला. पारकर पेन देखते ही न जाने कहाँ से उसकी आँखों से अश्रु की अविरल धारा बहने लगी. वो कस के पापा से लिपट गया. लगातार रोये जा रहा था. पापा उसके सर पे हाथ रखे उसके बाल सहला रहे थे.

- अमितेश  


शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

कुबूल है... कुबूल है... कुबूल है...

अलिका - अली की नेमत। मोहब्बत का पैग़ाम। हाँ, यही सोच कर तो नाम रखा था उसके अब्बा ने उसका - अलिका। 

होनहार लड़की जो पूर्णतया आत्मनिर्भर थी. समाज बदल रहा था, मुसलमान भी. सो उसके अब्बा ने उसे मदरसा नहीं कॉन्वेंट में भेजा था पढ़ने के लिए. सारी सुविधाएँ दी थी अपनी एकलौती औलाद को. एक मामूली सरकारी कर्मचारी होते हुए भी कभी कोई कसर नहीं छोड़ी थी अलिका के अब्बा ने उसकी परवरिस में. समाज बदल रहा था, शायद उनका समाज भी बदल रहा था. अलिका के अब्बा इन बदलावों का फायदा उठाना चाहते थे, अपनी गुड़िया के जीवन में बदलाव ला कर - एक सकारात्मक बदलाव ला कर. 
उसे और पढ़ाना चाहते थे. और बढ़ाना चाहते थे. अभी बारहवी में थी, अभी तो सिर्फ सत्रह की ही थी. अभी तो उसे और आगे जाना था - इतना आगे की किसी दिन उनकी department में Under Secretary बन जाये, B.P.S.C. निकाल ले. 
अलिका ने भी कभी निराश नहीं किया था अपने अब्बा को. खुब मेहनत कर के पढ़ती थी. उसकी दुनिया में हर चीज पढ़ाई के बाद आती थी. उसके अब्बू ने उसे बड़े ही आज़ाद माहौल में पाला था. सो क्या पहनना, कैसे रहना, किससे बात करना जैसी बंदिशें नहीं थी उस पर. हालाँकि इस आज़ादी ने उसमे और भी नम्रता, और भी शालीनता भर दी थी. 

बेटियां अक्सर वक़्त की रफ़्तार से भी तेज़ बड़ी हो जाती हैं. अलिका अपवाद नहीं थी. सत्रह की उमर तक पहुंचते - पहुंचते घर वालों के ताने मिलने शुरू हो गए थे. उनका बहनोई अपने लड़के से अलिका का निक़ाह पढ़वाने पर जोर देने लगा था. उनके बहनोई के बेटे शौफान ने बारहवी तक की पढ़ाई की थी. थोड़ी अंग्रेजी बोल लेता था. इलेक्ट्रॉनिक की दूकान कर रखी थी चांदनी चौक में. कम भी कमाता तो महीने का 25 - 30 हज़ार कमा लेता. 25 का हो गया था. सो उसके बाप को लगता की कहीं हाथ से निकल ना जाये लड़का. कही किसी ग़लत संगत में चला गया तो अच्छा न होगा. वैसे भी मुसलमानो को अपने बच्चों के ग़लत संगत में पड़ने का अंदेशा ज्यादा ही रहता है. ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी डालना ही एक तरीका है की लड़का हाथ से निकल ना पाए. 

अलिका के अब्बा उसका निक़ाह कतई इतनी जल्दी नहीं करवाना चाहते थे. अभी तो लड़की नाबालिग़ है. फिर उसके सपने भी अभी कहाँ जवां हुए हैं. लाख कोशिशों के बावजूद वो अलिका के निक़ाह को नहीं रोक पाए. शौफान के घर वाले अंततः इस्तिख़ारा करवा ही आये. न चाहते हुए भी इमाम ज़मीन की रश्म अदायगी करनी पड़ी अलिका के परिवार को. फिर मंगनी  और परिवार में शादी का माहौल. अलिका हालांकि थी तो आज की लड़की, लेकिन थी तो लड़की ही ना. हिंदुस्तान में महिलाएं भले ही पूज्यनीय हो पर बूत ही बनी रहती है. आवाज़ उनकी हमेशा दबाई ही जाती है. मुसलमानो में भले ही बुतपरस्ती न हो लेकिन उनकी धर्म ग्रन्थ की सारी रवायतें महिलाओं को ले कर और महिलाओ के लिए ही बनाये गए हैं. कितनों से लड़ती, सो अंततः हथियार डाल दिए अलिका ने. वैसे भी कोई वो पहली लड़की तो थी नहीं इस जहाँ में जिसके सपनों को परवाज़ नहीं मिल पाया. कई हैं सो वो भी है. उसके सपनों के टूटने से समाज को तो कोई फर्क पड़ता नहीं सो किसी ने परवाह की नहीं. 
मौत भले ही इंसान को क़ब्रिस्तान में ले जाये, जीते जी वो ख़ुद ही क़ब्रगाह बन कर घूमता है - जहाँ कई अरमान, कई सपने उसके अपने ही भीतर किसी कोने में दफ़न होते रहते - और ये सिलसिला उसके शरीर के अंत में क़ब्रिस्तान में जाने तक चलता रहता. 

दिन के नज़दीक आने तक बहनों - सहेलियों की चुहलबाज़ी शुरू हो गयी थी. देखते - देखते मंझा का दिन आ गया और हल्दी में लिपटा उसका सुर्ख़ शरीर पीला सा हो गया था. अब तो उसका कमरे से निकलना भी बंद हो गया. यही मंझा की रवायत थी. फिर मेहंदी और संचक की रश्में. शुरू - शुरू में तो अलिका ने प्रतिरोध किया चीजों का, पर धीरे धीरे उसे भी सब ठीक ही लगने लगा. शायद इसी वज़ह से शादी - निक़ाह की रश्मों - रिवाज़ कई दिनों के होते है की उत्सव सा माहौल सारे संताप को धो डाले और आप बस उन रश्मों रिवाज़ की गंगोत्री में बह वो अपने अतीत को भूल जाये. 

फिर पता ही न चला कब बरात आ गयी दरवाज़े पर और कब अलिका और शौफान दो अहलदा प्राणी से एक होने की राह पर चल निकले. अलिका की आँखों के सामने उसका सत्रह बरसों का अतीत और मृत सुनहरा भविष्य तैरने लगा. लगा जैसे बीच में लगी उस सितारों वाली चादर पे उसकी जीवन की फिल्म चल रही है, Sad Ending वाली फिल्म. वो समझ नहीं पा रही थी की दोनों मौलवी ख़ुतबा पढ़ रहे थे या कोई दर्द के गीत चल रहे थे. उसकी तन्द्रा तब टूटी जब मौलवी ने निक़ाह के कुबूलनामे के लिए अलिका की इज़ाज़त मांगी. 

कुबूल है... कुबूल है... कुबूल है... इस तीन बार के कुबुलनामे ने अचानक ही अलिका को एक लड़की से औरत बना दिया. बधाईयों के दौर चल रहे थे नेपथ्य में और अलिका हर बधाई के साथ परिपक़्वता लेती जा रही थी जैसे. एक अल्हड़ से उम्र में जब दिमाग़ सौ आसमान और कई तारे घूमता फिरता है, अलिका आरसी मुसाफ़ कर रही थी. वो क़ुरान - ए - पाक़ हाथ में लिए अपने धर्म और परिवार के लिए खुद को क़ुर्बान करने की कसमें खा रही थी. 

बदलते वक़्त ने अलिका को एक ठेंठ मुस्लिम औरत बना दिया दिए. था. लेकिन फिर भी उसकी दिल के किसी स्याह से कोने में आगे पढ़ने, B.P.S.C. निकालने की चाह हिलोरे मार ही देता. शौफान ने शुरू शुरू में तो अलिका की मदद की. उसे ग्रेजुएट बना दिया. लेकिन उसे यह भय था कि अलिका कहीं B.P.S.C. न निकाल ले. फिर तो समाज में शौफान की खिल्ली ही उड़ाई जाने लगेगी. ये सोच कर उसने अलिका  को कभी B.P.S.C. की परीक्षा में बैठने नहीं दिया. पहली बार जब अलिका ने B.P.S.C. का फार्म भरा, वो पेट से थी और चौथा महीना चल रहा था. लिहाजा परीक्षा में बैठ नहीं पाई. दूसरी दफा फिर शौफान ने उसी बहाने से उसका B.P.S.C. में बैठना टाल दिया. जब तीसरी बार अलिका ने फार्म भरा तो शौफान ने अपना आपा खो दिया. जम के लड़ाई हुई दोनों के बीच. इन सारी चीजों ने फिर दोनों के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहने दिए. घर में तनाव बढ़ने लगा. इतना ज्यादा की शौफान के घरवालों ने एक तरकीब निकाल ली. शौफान घर में दूसरी औरत को ले आये. वैसे भी शरीयत के तहत वो ऐसा दूसरी बार ही नहीं, चार बार कर सकता था. हालाँकि ऐसा करने के लिए कुरान - ए - पाक़ ने कुछ नियम भी रखे हैं. पर नियम से क्या लेना देना. हम तो वही करते हैं जितना हम क़ुरान को समझना - आत्मसात करना चाहते हैं. वर्ना तो क़ुरान - ए - पाक़ का अक्षरसः अनुपालन करने लगे तो हम ही ख़ुदा न बन जाये. 

दूसरी शादी, नहीं, अलिका को ये कतई गवारा नहीं था. वो अपने शौहर को किसी और के साथ बांटना नहीं चाहती थी. सो तनाव घटने की बजाय और बढ़ता चला गया दोनों के बीच. वैसे भी वैवाहिक जीवन में तनाव - मनमुटाव दलदल की तरह होते हैं. समय रहते उससे निकला नहीं गया तो निकलना मुश्किल हो जाता है. अलिका और शौफान उसी मुश्किल वाले स्तर तक पहुँच चुके थे. तनाव के उसी आलम में अनायास ही शौफान के मुँह से निकल गया - तलाक़... तलाक़... तलाक़...
इन तीन शब्दों ने जैसे अलिका के कानों में कई लीटर पिघला इस्पात डाल दिया. अचानक ही उसे लगा की उसके घुटने कमज़ोर हो गए हैं. लगा जैसे वही बैठ जाये जमीन पर, या शायद धरती फट जाये और वो समाहित हो जाये धरती में. पर वो तो मुसलमान थी ना. वहां तो हिन्दू धर्म वाली चीजें न सोची जाती है ना की जाती है. 

एक वो समय था जब क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है... की तीन शब्दों ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी थी. हालाँकि उसे तब भी क़ुबूल नहीं था ये कुबूलनामा. बेमन से उसने क़ुबूल किया था. मौलवी ने उस वक़्त समझाया था कि इस्लाम तभी किसी निक़ाह को निक़ाह मानता है जब लड़का - लड़की दोनों क़ुबूल करें. बिना दोनों के कुबुलनामे के दो लोग साथ रह कर इस्लामी रवायतों को पूरा नहीं कर सकते. कितनी तो बधाइयाँ बटी थी उस वक़्त पे. फिर आज ऐसा कैसे हो गया कि सिर्फ एक इंसान यह निर्णय ले ले की दोनों के बीच अब कोई रिश्ता नहीं रहा. आज क्यों कोई मौलवी उससे पूछता नहीं की तुम्हे भी तलाक़... तलाक़... तलाक़... बोलना चाहिए इस रिश्ते को ख़तम करने के लिए. कि सिर्फ एक इंसान का बोलना नाकाफ़ी है. कि आज वो सारे रिश्तेदार, पड़ोसी कहाँ गए जो पिछली दफ़ा के इक़रारनामे पर खुशियाँ और बधाइयां बाँट रहे थे. 

न जानें वो क्या बड़बड़ा रही थी, कब तक बड़बड़ा रही थी. उसके अब्बा का कन्धा अलिका की अश्कों के सैलाब में गीला हो चुका था. अपनी गुड़िया को सीने से लगाए न जाने शुन्य में वो क्या ढूंढने की कोशिश कर रहे थे. शायद उसका निक़ाह से पहले का सुनहरा भविष्य वो तलाश रहे थे और जो देख पा रहे थे वो तलाक़ के बाद का अँधेरा ही था. अलिका के दोनों बच्चे टुकुर - टुकुर इन दोनों को देख रहे थे कि आख़िर उसकी अम्मी रो क्यों रही है, कि नानू चुपचाप क्यों हैं, कि क्या अब अब्बा का नाम सिर्फ़ स्कूल Admission Form तक ही सीमित रह जायेगा. शायद शांति से ही सही, पर इस तलाक़ के लिए सारे लोग कुबूलनामा कर रहे थे. क़ुबूल है... क़ुबूल है... क़ुबूल है... 


- अमितेश 

रविवार, 29 जनवरी 2017

देश

वो अहले सुबह की प्रभात फेरियां
वो झण्डोत्तोलन के बाद की जलेबियाँ
वो यादों के गलियारे से निकलते राष्ट्रगान
वो झंडे की सलामियां
वो गणतंत्र दिवस का फ्लैग मार्च
वो प्लास्टिक के मेड इन चाइना तिरंगा
बच्चो के हाथों में फहरते देख
देश तुम बहुत याद आते हो.

वो पल पल बदलते सामाजिक समीकरण
वो बनते बिगड़ते मानवीय मूल्य और मंत्र
वो बदलते शिक्षक और शिक्षा के स्तर
वो एक ही ज़मीन पे खिंचती धर्म - जाति की लकीरें
वो सन्नाटे में गूंजती तुम्हारी सिसकियों को सुन
देश तुम बहुत याद आते हो.

वो सत्तर की हो चुकी स्वतंत्रता
और सत्तर को छूती गणतंत्रता
शायद तुम्हारी बढ़ती उम्र ने
तुम्हे अप्रासंगिक कर दिया है
रोज़ तुम्हे क्षण क्षण, तिल तिल मरता देख
देश तुम बहुत याद आते हो.

- अमितेश