शुक्रवार, 29 मई 2020

Travel Bag

तुम्हे पाने की लालसा में
कई ख़ाक मैंने छाने थे
तेरी सूरत दिल में बसाये
कई सफर तेरे बिन काटे थे।

तेरी वो भोली सी छवि
मेरे मस्तिष्क पे हावी थी
तुझे पाने की सोंच भी उनदिनों
अपने आप में नवाबी थी।

कई दिन मैंने यूँ ही गुजारा
बिन तेरे भटका बन बंजारा
पाया तुझे लगा जैसे
बन गया मैं इन राहों का राजा।

कई मंजिले तेरे साथ तय की
कई रातें तुझपे सर रख सोया
तू भी इतना घूम भटक कर
कभी ना अपना आपा खोया।

जब Conveyor Belt पर तुम
यूँ बलखा मटका कर आती थी
देख तुझे सब के बीच दबे
साँसे मेरी थम सी जाती थी।

उन छोटे Overhead Bean में भी
तुम बेफाख्ता Adjust हो जाती थी
कितनी ही राहों में चल कर भी
थके बिन मेरा साथ निभाती थी।

उस पूस की सर्द अहले सुबह हीं
जब तुम तैय्यार हो जाती थी
और सावन की रिमझिम में
बाप सी छाँह बन जाती थी।

मेरे सारे ख्वाब विषाद को
तुमने तह कर के रखा था
जब चाहा उन्हें तुमसे निकाल
खुद में खुश हो जाता था।

मेरे सारे कपड़ों को माँ की तरह
तुमने संभाले रखा था
सिलवट तक ना आये उनमें
ऐसे सजाये रखा था।

मेरी Travel Bag
सच में तुझसा कोई
न मेरा संगी साथी है
हम हैं पूरक एक दूजे के
जैसे दीया और बाती हैं।

आज जो तुम आलमारी के ऊपर
यूँ गुमसुम सी बैठी हो
देख के तुझको ऐसा लगता
शायद तुम मुझसे रूठी हो।

आएगा एक दिन फिर ऐसा
जब हम फिर मुस्कायेंगे
हाथों में तेरा हाथ लिए हम
दूर कहीं, घूम के आएंगे।


- अमितेश 

बुधवार, 27 मई 2020

जानता हूँ

तेरा यूँ मुस्कराना
और मुझपे मर जाना, 
मुमकिन नहीं, जानता हूँ 
पर चलो मान लेता हूँ। 

तेरी झुकी सी नज़र में 
मेरा बस जाना 
तेरी धड़कनों में 
मेरा धड़क जाना 
मुमकिन नहीं, जानता हूँ 
पर चलो मान लेता हूँ। 

तेरी गहरी जुल्फ़ों में 
पोशीदगी से खो जाना 
तेरा मेरे लिए 
बलखाना, शरमाना 
मुमकिन नहीं, जानता हूँ 
पर चलो मान लेता हूँ। 

तेरे ख्वाबों के महल को 
मेरा सजाना 
तेरे उस महल का 
मुझसे सज जाना 
मुमकिन नहीं, जानता हूँ 
पर चलो मान लेता हूँ।

तेरी निर्मल हँसी सा 
तेरे होठों पे संचयित हो जाना 
तेरे आँखों के पोरों पे 
आँसुओं सा जम जाना 
मुमकिन नहीं, जानता हूँ 
पर चलो मान लेता हूँ।

तेरे बच्चों का मुझे 
पापा - पापा कह बुलाना 
और सकुचा कर तुम्हारा 
मुझे "अजी सुनते हो" पुकारना 
मुमकिन नहीं, जानता हूँ 
पर चलो मान लेता हूँ। 


- अमितेश 

Dear Field Work

Dear Field Work
कुछ वक़्त हुआ, तुमसे रूबरू हुए
तुम्हे महसूस किये, तुम्हे छुए हुए

कभी नाराज़ होता था तुमसे
कभी नाराज़ हो तुम्हे गले लगाता था।
जब तुम थे, तो जहाँ कुछ और था
मैं मैं था, जब मैं तेरे क़रीब था।

वो टपरी की चाय,
वो Customer की झिक झिक
वो लड़को की Low Productivity
वो उनका Visit Coverage
वो Range Selling का रोना
वो MG Coverage का कम होना

Dear Field Work
तुम बड़ा याद आते हो।

वो सिगरेट पे चर्चा,
वो Visitor Market बनाना
वो वक़्त बेवक़्त Boss का Call
और Urgent कोई Update मंगाना। 

वो Weekend पे यारों संग Beer
वो Boss का मजाक बनाना
वो Itinerary का Updation
वो Travel Plan का Deviation

Dear Field Work
तुम बड़ा याद आते हो।

आज बर्तनों की सफाई
और Stock के लिए लड़ाई में
Work - Life Balance बना रहा हूँ।
आज बच्चो को थोड़ा ज्यादा
खुद को थोड़ा कम वक़्त दे पा रहा हूँ।
Wife को Help करते - करते
New Normal में Adjust करता जा रहा हूँ।
हाँ बस इन सब में,
मैं कहीं खोता जा रहा हूँ।

मेरा होना भी तुमसे है
मेरा खो जाना भी तुमसे है
जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ,
मैं असल में मैं होता हूँ।

Dear Field Work
तुम बड़ा याद आते हो।

कई दौर कटे हैं, ये दौर भी कट जायेगा
हाँ, तुम्हारा आलिंगन मुझे फिर मिल जायेगा।

शायद ये वक़्त जरुरी था
तेरे मेरे दरमियाँ,
कि समझ सकें एक दूजे को
जो बनी है हममें ये दूरियां
हाँ ये दौर भी कट जायेगा
हमदोनो का प्यार, कुछ और निखर जायेगा

Dear Field Work


- अमितेश

रविवार, 17 मई 2020

नर्मदा नंदलाल

जैसे विभाजन के मंजर चारो ओर तिर आये थे। जहाँ देखो लोग अपने जानोंमाल संभाले भागे जा रहे थे। अपना खुशहाल आशियाना उजाड़ नए नीड़ की तलाश में चले जा रहे थे। कि नया घोंसला शायद ज़िन्दगी से ज्यादा रूमानी हो। हालाँकि भीड़ कुछ ज्यादा नहीं थी। पर फिर भी भीड़ सा लग रहा था। जिन खेतों में कभी ये काम के पौधे थे, आज खर - पतवार सी ज़िन्दगी जीने पर मजबूर थे। जिस शहर की इमारतों की ईंटों पर कभी अपने पसीने की इबारतें लिखी थी, आज वो ही उन्हें नाकारा कर गए थे। जहाँ की फ़ैक्टरिओं के हर कल पुर्जों में उनके हाथों की छाप थी, आज जैसे सारे निशान मिटा दिए गए थे। जिस शहर को अपनाये बैठे थे आज वो ही उन्हें बेगाना कर गया था। 

ऐसा नहीं की सरकार ने मदद करने कि कोशिश नहीं की थी इन लोगों की पर उतना ही कर पायी जितना उस छन्नी से छन कर आ पाया जिसकी हर छेद को भ्रष्टाचार की मिट्टी ने भर रखा था। इनके पेट तो खाली रह  गए, गरचा उनके पेट के कुएँ राहत पा कर और गहरे, गुलज़ार हो गए। 

***

कहते हैं कि बाहर एक ऐसी बीमारी ने अपना आधिपत्य जमाया है कि प्रकृति की सबसे अप्रतिम रचना, मानव भी असहाय बना फिर रहा है। आज शहर - सड़के वीरान अपने अनजाने पथिक की बाट जोहे जा रही है। और ये अप्रतिम रचना बेबस सा घरों में रहने को मजबूर हो आया है। पर वो तो फिर भी रह सकते थे अपने घरों में जिनके रहने के दरमियान एक घर की चारदीवारी और छत मयस्सर थी, कुछ जमापूंजी थी। ये लोग जो सड़को पे बदहवास से चले जा रहे हैं, ये जैसे शहर के किरायेदार भर थे, जिनकी छतें और चारदीवारी पे भी उनका अख़्तियार न था। जमापूँजी भी इतनी कि हफ्ते के सात दिन ना गिन पाए। और अब तो दो हफ्ते निकल आये थे। 

इन्हीं लोगों की भीड़ में एक बिसेसर भी था। कई सपनों को अपनी बैग में भर कर इस महानगर में आया था। कुछ पूरे भी हुए। कुछ और शायद पूरे हो भी जाते जो ये महामारी ना फैलती। कभी सोंचा नहीं था बिसेसर ने कि वो अपने दादाजी की जिंदगी जियेगा। उसके दादाजी अक्सर प्लेग के बारे में बताते रहते की कैसे इस महामारी ने गांव के गांव लील लिया था। कैसे इंसान जिंदगी बचाने की जद्दोजदह में खपे जाते थे। कैसे महीनों लोग बिना ख़ुशी और मुस्कराहट के जीते थे। कई कहानियां सुनते हुए बड़ा हुआ था वो उस दौर की। आज जैसे वो अपने दादाजी की जिंदगी ही जी रहा था। शहर के शहर तबाह हो रहे थे और बिसेसर की कहानियों के पिटारे में कुछ किस्से जुड़ते जा रहे थे। इस बीमारी ने गावों को तो अभी बख़्स रखा है, शहर ही वीरान किये जा रहा था।

***

बिसेसर को बचपन से ही किस्से कहानियों में मन लगता था। कुछ सुनता, कुछ पढ़ता, तो कई जीता था। दिनकर, प्रसाद, महादेवी, रेणु, शुक्ल और ना जाने कितने ही साहित्यकारों को पढ़ा - समझा था। बस जो पढ़ना था वही नहीं पढ़ा था। मैट्रिक पास करते - करते तो जैसे उसकी सांसे उखड़ने लगी थी। घरवालों ने कहा कि कुछ रोज़गार कर ले। जिंदगी कट जाएगी। मजदूरी करना नहीं चाहता था की मैट्रिक पास है, और कुछ आता नहीं था कि ताउम्र किस्सागोई ही की थी। अब जो कर सकता था वो वही जो उसका पुश्तैनी था - नाई का काम। वो तो सीखने की ज़रूरत भी नहीं थी उसे, ये कला तो उसके खून में थी। बचपन से उसने अपने बाप दादाओं को यही करते देखा था, कैंची की कच - कच उसके कानों में मधुर मल्हार बिखेरती थी। फिर उसकी किस्सागोई तो इस व्यवसाय में गरम मसाले की तरह थी। कुछ अच्छा करना था सो इस महानगर में आ गया। कुछ पूँजी लगा कर एक सैलून खोला भाड़े की जगह ले कर और जुत गया इस जिंदगी की कोल्हू में। ठीक ही पैसे बनाने लगा था वो। इतना की बाइज्जत शादी कर सकता था। किया भी। बिसेसर परिणयनित हो गौरी को इस महानगर की चकाचौंध में ले कर आ गया। सब ठीक चल रहा था। गौरी ने बिसेसर के घरवालों को पहले साल में ही खुशखबरी सुना दी। बड़ा सुघड़ नंदलाल पैदा किया था उसने। बिसेसर ने नंदलाल ही रखा था उसका नाम। उन्हें लगा कि नंदलाल का आगमन उनकी जीवन में नयी ऊँचाइयाँ, नयी खुशियां लाएगा। पर लाया कुछ और ही - दूर देश की बीमारी। 

***

बिसेसर जीने की जद्दोजदह में अपने परिवार के लिए रोज मर रहा था। परिस्थितियां इतनी विकट की सारी जमापूंजी इस बीमारी के नाम भेट हो गयी। आय के सारे स्रोत बंद हो गए थे, व्यय के रस्ते नंदलाल ने बढ़ा दिए थे। जो कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया था वो आज घंटो सरकारी राशन की दूकान के सामने खड़ा रहता। दूकान का बाबू लोगों को झिड़क के ऐसे सामान देता जैसे सरकार से ज्यादा इनका अहसान आमलोगों पर ज्यादा हो। जैसे ये अनाज इनके बाप दादाओं की जायदाद से जा रहा हो। 

नमक भात खाते - खाते एक दिन बिसेसर ने ठाना कि गांव वापस चले जाते हैं। वो अपनी मिट्टी है, अपनों का क़द्र जरूर करेगी। इस शहर ने आजतक बेगाना ही कर रखा है। वहीं जा कर जिंदगी फिर से शुरू करेंगे। वहाँ की खेत, वहाँ का चौपाल, वहाँ के लोग और वहां की खुशियों में क्षणभंगुरता तो नहीं होगी। भले दो पैसे कम मिले, खुशियां तो आह्लादित करती रहेंगी। नंदलाल की परवरिस भी ज्यादा बेहतर हो जाएगी। 
यही सोंचते सोंचते वो ट्रांसपोर्ट नगर पहुंच गया था। चारो ओर कई ट्रक बेतरतीबी से बिखरे पड़े थे और उनसे भी ज्यादा लोग थे जो शायद बिसेसर की सोंच लिए यहाँ तक पहुंचे थे। 

बिसेसर के पास वो आखिरी के दो हज़ार बचे थे उसकी जमा पूंजी के। उसे हाथ में भींचे वहाँ चला आया था। इस शहर में शायद यह उसका आखिरी निवेश था। वहाँ कल का दिन मुक़र्रर किया गया था उसके नए सपनों को उड़ान देने के लिए। ट्रक वालों ने कहा की ट्रक में कुछ सामानों के साथ उन सब को जाना होगा। शहर की हद में ऊपर में प्लास्टिक की चादर ढंकी होंगी। हाईवे पर उसे थोड़ा हटाया जायेगा। पुलिस का पहरा बहुत है तो सावधानी बरतना अनिवार्य है। कई और लोग रहेंगे तुम्हारे साथ। ट्रक तुम्हारे जिले की हाईवे पे छोड़ देगा। उसके आगे का सफर तुम्हारा है। इन सारी शर्तों पे बिसेसर ने सर हिला कर सहमति दे दी थी। यही वो कर सकता था। आज की परिस्थितियों में जो सहूलियत दे रहा था, शर्त बनाने का अधिकार भी उनके पास था। यही ट्रक वालों ने किया। सवारी बस सहमति दे सकते थे। बिसेसर यह समझ चुका  था। 

***

                                "बेद हकीम बुलाओ कोई गोइयाँ 
                                 कोई लेओ री खबरिया मोर। 
                                 खिरकी से खिरकी ज्यों फिरकी फिरती 
                                 दुओ पिरकी उठल बड़ जोर।।"

जो ट्रक अब तक सामान ले जाने का आदी था, आज वो इंसानों को ढो रहा था ... सामान की तरह ही। सामानों के बीच इंसान सामानों के समान धंसे हुए थे। दोनों के बीच अंतर करना मुश्किल था। बिरहा गा कर ये लोग अपने गम को गीतों तक सीमित रखने की कोशिश कर रहे थे। इन्हीं लोगों के बीच बिसेसर गौरी और अपने दुधमुँहें बेटे के साथ पड़ा था। दिल में भले ही जलन थी सब कुछ पीछे छोड़ जाने की पर आँखें सुनहरे भविष्य कि आस में चमक रहे थे। ऊपर प्लास्टिक छत की तरह पसरा था। प्लास्टिक की वजह से खासी उमस भरी थी ट्रक में। सांस लेना भी थोड़ा मुश्किल हो रहा था अंदर। इस शहर में भूख लोगों को खींच लायी थी, आज भूख की वजह से पुनः विस्थापित हो रहे थे, सो साँसों की फिक्र किसे थी। पर ये विस्थापना की शर्त नंदलाल पर सम्प्रयोजित नहीं होती थी। वो तो इस जहाँ में अभी आया ही था। कम से कम इस जहाँ की हवा पर तो उसका अख्तियार था। पर आज की परिस्थितियों में वो भी उसे पूरी नसीब नहीं हो पा रहा था। बेतरतीब रोये जा रहा था। गौरी ने जैसे अपनी छाती निचोड़ डाली थी उसके लिए। काश की आज उसे अपने हिस्से की हवा दे पाती। 

***
ट्रक अपनी रफ़्तार में थी। बिरहा के धुन लगातार बहे जा रहे थे। नंदलाल अपनी पूरी सांस बटोर कर रोता जा रहा था। गौरी अपनी आंसुओं से उसे सिंचने की कोशिश कर रही थी और बिसेसर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा समझ नहीं पा रहा था कि क्या अपराध था उसका की उसकी आंच में उसका परिवार तपा जा रहा था। जो थोड़ी सी जगह छोड़ी गयी थी प्लास्टिक की चादर में वो अन्य के सांस लेने के लिए पर्याप्त हो सकता था, एक दो माह के बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं था। बच्चा थोड़ी देर रोते रोते चुप हो गया। लगा की थक कर सो गया है शायद। गौरी ने उसे अपनी छाती से लगाए रखा। बिसेसर को थोड़ी चैन आयी। 

***

"अरे मेरा बच्चा... " एक तेज़ चित्कार ने नींद में डूबते उतरते लोगों को चौका दिया। सारे हड़बड़ा कर आवाज की दिशा में देखने लगे। गौरी ने नंदलाल को कस कर भींच रखा था। अनवरत रोये जा रही थी। नंदलाल का पूरा शरीर ठंढा पड़ गया था। दो माह के सुकुमार बालक के लिए इतनी लम्बी यात्रा, इतनी कम हवा झेल पाना मुश्किल था। भेड़ बकरियों की तरह की इस परिस्थिति में जीने की आदत नहीं थी उसे। वो इस उम्र में जिंदगी की जंग को ज्यादा लम्बे समय तक झेल नहीं पाया। बिसेसर पत्थर हो गया था। समझ नहीं पा रहा था कि ये क्या हो गया है उसके साथ। गौरी पुरे आवेग में रुदन कर रही थी। उसकी अवस्था पत्थर को भी पिघला कर मोम बना दे। बिसेसर बुत ही बना रहा। किसी ने झकझोर कर बिसेसर को उसकी करुण तन्द्रा से बाहर निकाला - "अरे बिसेसर बच्चा को अपने अंक में ले ले। गौरी उसे देख देख रोती रहेगी और तुम्हारे गांव आने तक तो भगवान् ना करे अनर्थ हो जायेगा।"
किसे तरह बिसेसर ने नंदलाल को अपने हाथों में ले लिया। नंदलाल का चेहरा देख बिसेसर अपने आपे में ना रह पाया। 
"हाय रे मेरा बच्चा। मेरा सुकुमार। कैसे मर गया रे तू। नहीं नहीं ये मारा नहीं है, अपने पिता के हाथों मारा गया है। इसकी हत्या हुई है। मैंने मार दिया अपने नंदलाल को। मैंने अपने हाथो अपना कुल दीपक बुझा दिया। मै हत्यारा हूँ। मेरा लाल।" ना जाने क्या क्या अनर्गल बोले जा रहा था। ट्रक में बैठे लोग और सामान, सब असीम करुणा में डूबे बैठे थे। सारे लोग अपने आसुओं पे काबू पाने के चेष्टा में थे। कुछ सफल नहीं हो पा रहे थे। जैसे आंसुओं का सैलाब इस ट्रक, ये रस्ते, इस जहाँ, सब को बहा ले जाये। 
रामसरुप ने खींच कर नंदलाल को बिसेसर की गोद से खींच लिया। उस मासूम को देख कर एक बार तो उसका ह्रदय भी फट गया। लगा वो भी चीत्कार कर के रोये। एक तो अपने गम ही कम थे जो ये भी देखना पड़े। नहीं, इस बच्चे का हत्यारा सिर्फ बिसेसर ही नहीं, हम सब हैं। किसी तरह अपने आप पे काबू पा सका रामसरुप। 
"बिसेसर अभी अपने शहर पहुँचने में तीन दिन का वक़्त और लगेगा। तब तक तो बच्चे का शरीर ख़राब हो जायेगा। देख हम अभी नर्मदा जी के ऊपर से गुजर रहे हैं। अपने नंदलाल को उनके हवाले कर दे। अब नर्मदा मैया ही इसे तर्पण देगी।"
वो एक एक शब्द बिसेसर की कानों में जहर की तरह घुल रही थी। कभी लगा की रामसरुप पगला गया है। बोलता है अपने जिगर के टुकड़े को नर्मदा में बहा दे। उसका बच्चा नहीं है ना इसलिए ये बोल रहा है। की दूसरे क्षण में लगता कि रामसरुप ठीक ही कह रहा है। अब तो नंदलाल हमारा रहा ही नहीं। कम से कम उसका अंत तो हम सुखकर रखे। करुणा के उसी आवेग में बिसेसर ने अपने नंदलाल को रामसरुप की गोद से ले लिया। उसे पागलों की तरह चूमता रहा। उसके तेजश्वी चहरे को अपलक निहारता रहा। 

"छपाक"

"नर्मदा मैया की जय। जय नंदलाल।"

ट्रक अपनी गति में बढ़ा जा रहा था। आगे के रस्ते, पेड़ सबकुछ तेजी से पीछे की ओर छूटते जा रहे थे। नंदलाल भी पीछे रह गया था अब... आगे करुणा, क्रंदन और अपने संतापित माँ बाप को छोड़ के...


- अमितेश

बुधवार, 6 मई 2020

वायरस

अजीब अफ़रा तफ़री का माहौल था चारो ओर। तक़रीबन कर्फ्यू जैसे हालात थे शहर में। हर एक अंतराल पे बाहर से CRPF के कदम ताल की आवाज़ आ जाती। वजह यह नहीं की दंगे फैले थे, बल्कि ये की बाहर एक अनजानी बीमारी का ख़ौफ़  बरपा था।  उस पर से हालात ये कि इन परिस्थितियों का कुछ फ़िरकापरस्त लोग बेजा फायदा उठाने से बाज नहीं आ रहे थे। ये हालात दोनों तरफ से हीं बनाये गए थे। बहरहाल मसला जो भी हो, पिस आम आदमी ही रहा था। दोनों तरफ के आम आदमी। 

आफरा का घर से बाहर निकलना बंद हो गया था। इतना बंद की वो बाजू के घर में अपनी पक्की सहेली नैना से भी नहीं मिल पा रही थी। उनका मोहल्ला कुछ ऐसा था कि हिन्दुओं और मुसलमानो के घर लगभग आधे आधे थे सो ऐसे हालातों का प्रभाव भी यहाँ थोड़ा ज्यादा ही होता था। मोहल्ला करीब तिसिओं साल पुराना था। तब मज़हबी फलसफां काफी निजी होता था। सालों से यहाँ के लोग साथ रहते आये थे। कई दंगों से ये मोहल्ला बेदाग निकला था। कभी यहाँ के लोग इन कट्टरवादियों के झांसे में नहीं आने पाते थे। ऐसा नहीं की प्रयास नहीं किये गए थे पर फिर भी यहाँ के मोहल्ले के लोग गंगा - जमुनी तहज़ीब को दरकिनार नहीं कर पाते थे। 

बीते कुछ सालों में मज़हब भाईचारे से काफी ऊपर निकल आया था। अचानक ही यहाँ के मुसलमान कुछ ज्यादा ही मुसलमान होने लगे थे और हिन्दू कुछ ज्यादा ही सनातनी हो रहे थे। फिर ये पीढ़ी भी दूसरी थी। वो जो पहली पीढ़ी के लोग थे जिन्होंने मोहल्ला बसाया  था,अब बूढ़े हो चले थे और उनके बाद की पीढ़ी अचानक ही धर्म की ओर थोड़ा ज्यादा अभिमुख होने लगी थे। ये और बात थी की इस पीढ़ी ने धर्म को न ज्यादा पढ़ा था, ना जाना ही था। बस कही - सुनी ही ज्यादा फैली थी यहाँ। 

आफरा के भाई ने ताक़ीद की थी कि अब इन काफ़िर हिन्दुओं से मिलने की ज़रूरत नहीं है। फिर वो हमारे पड़ोसी शर्मा जी की फैमिली ही क्यों ना हो। 
हालात नैना के घर के भी ऐसे ही थे। उसके भाइयों ने भी कह रखा था कि अब बहोत दोस्ती निभा ली। ये ना तो पहले हमारे थे ना आज ही हमारे हैं। 
इस नयी पीढ़ी की पाषाणकालीन सोंच ने धीरे - धीरे मज़हबी दिवार खड़ी करनी शुरू कर दी थी मोहल्ले में। कह नहीं सकते थे की किस ओर की गलती ज्यादा थी। बस गलती थी और भुक्तभोगी सारे थे। 

इसी माहौल में सोशल मीडिया ने भी अपनी कमान संभाल ली थी। ऐसे - ऐसे संदेश और वीडियो हर घर तक पहुंचने लगे कि घर में बेकार ही बैठे लोगों का खून यूँ ही उबाल मारने लगा था। बाहर जो वायरस फ़ैल कर भी नहीं कर पा रहा था, यह दिमागी वायरस कर दे रहा था। ये दिमागी वायरस बाहर के वायरस से भी तेज़ रफ़्तार से फैलता जा रहा था। इन सन्देश और वीडियो को पता था कि किस के लिए कौन सा मोबाइल मुक्कमल है, वो बिलकुल उन्ही मोबाइल में फ़ैल रहा था। चुन - चुन कर यह वायरस लोगों को शिकार बनाता जा रहा था। एक समय ऐसा आया की वस्तुतः इस वायरस ने घर बैठे लोगों को एक प्रछन्न बम बनाना शुरू कर दिया था। कि कब लॉक डाउन खुले और ये बाहर जा कर पुरे आवेग से फटे। 

इन स्थितियों को ना तो नैना समझ पा रही थी ना आफरा। हालाँकि उनके मोबाइल भी ऐसे चयनात्मक संदेशों से भरे पड़े थे। कई दफा दोनों को लगता सच में ये वीडियो सच के करीब ही है। कि उसकी सहेली भी जरूर अंदर ही अंदर कोई षड्यंत्र रच रही है। जैसे ही मौका मिलेगा जरूर पीठ पे छुरा भोंकेगी। पर फिर दोनों एक दूसरे का चेहरा याद कर एक अलग ही ममत्व से भर जाती... नहीं नहीं वो तो मेरी बचपन की दोस्त है। कई वक़्त हमने साथ में काटे हैं। कितनी हीं बातों के एक - दूसरे के राजदार हैं। कई हंसी साथ में हँसे हैं, कितने ही आंसुओं को हमने साथ में गिना है। नहीं वो इन सारे वीडियो से इतर है। मेरी पक्की सहेली, ज़िंदगीभर के लिए। 

ऐसी ही न जाने कितनी बातें दोनों के दिमाग में दौड़ती रहती दिन भर। इतने एकांकी दिन हो गए थे कि ऐसी बातों के लिए समय भी बहुत था सब के पास, उन दोनों के पास तो था ही। जितना ही टीवी पे समाचार सुनते उतना ही घर का विचार - मुबाहिसा गर्म होता जाता। जैसे दिमागी वायरस को और हवा मिल रही हो और वो दोनों अपने अपने घरों में रह कर भी संक्रमित हो रही हों।
बातें भी कहाँ से कहाँ जाती जा रही थी। हालाँकि बाहरी और ऊपरी तौर पर तो सब ठीक - ठाक ही दीखता पर सारे अंदर ही अंदर भरे जा रहे थे।

नैना के दिमाग में भी बातें भरती जा रही थी। कुछ यूँ कि बीते दिनों की कई बातें उसे याद आने लगी। हर बात को वो उन कुंठाओं से जोड़ने लगी। जो बातें कल तक मज़ाक हुआ करती थी, आज ऐसा प्रतित होने लगा की उन बातों के पीछे एक भितराघात छुपा होता था आफरा का।  लगा की उठे और आफरा को उसके सारे किये की सज़ा एक झटके में दे आये। सच में ना तो वो आज मेरी है ना पहले कभी मेरी थी। आज वो वक़्त आ गया है जब मैं उससे उसके और उसकी कौम के सारे कृत्यों का बदला ले लूँ। आज उसे उसकी छत पर बुलाऊंगी और उसे जहरीला केक खिला दूंगी। बस काम - तमाम। अगर उन्हें हमें सताने पर जन्नत मिलता है तो हमें भी मोक्ष मिलेगा ऐसा कर के।

***

शर्मा और खान की छतें लगभग एक ही थी, बस एक चार फिट की दिवार उन्हें एक - दूसरे से अलग करती थी। काफी समय तक लोगों को लगता कि इन दोनों घरों की छत के बीच भले ही एक दिवार है, जड़े दोनों की एक हीं है। ऐसे कई मौकों पर इन घरों के रहने वालों ने इसका आभास दुनियाँ को दिया भी था। कौन भूल सकता है जब शर्मा जी के पिता का देहांत हुआ था तो कंधे खान के भी थे उनकी अलौकिक यात्रा में जाने के लिए। उन्होंने तो दुनिया की परवाह किये बिना "राम नाम सत्य है" का उद्घोष भी किया था कन्धा देते हुए।

खान की बेटी की शादी का वो मंजर कौन भूल सकता है जब शर्मा ने पूरी बारात की सुविधाओं का ध्यान रखा था। जो कभी नॉन वेज को खाना मानते नहीं थे, उन्होंने खुद अपने हाथों से सारी बारात को मटन पुलाव परोसा था। अक्सर खान और शर्मा उन यादों को याद करके अपनी आखों में अश्कों का सैलाब समेट लेते थे। पर ये सारी बातें बीते दिनों की थी। आज के सन्दर्भ में बेमानी थी। आज युग नया है। जमीन की मिट्टी नयी है, सो जड़ें भी बदल गए हैं और उसके फल - पत्ते भी। 

कल तक जो दोस्ती इतनी गाढ़ी थी कि लगता दोनों एक दूजे की रंग में सराबोर हैं, आज वो ही नैना आफरा की केक में ज़हर मिलाने चली थी। शायद दिमागी वायरस का जहर सारे जहन में फ़ैल चूका था नैना के। बड़ी जतन से उसने आफरा का पसंदीदा वनीला केक बनाया था, वैसा ही जैसा वायरस ने उससे बनवाया था। उसे फ़ोन कर के छत पर बुलाया कि बड़े दिन हो गए हैं इत्मीनान और कैफ़ियत से बात किये हुए। और हां मै तुम्हारे लिए वनीला केक भी बना रही हूँ। आओगी ना।

नियत समय पर दोनों अपने घर वालों की नज़र बचा कर छत पर पहुंची। लगा जैसे अरसे बाद मिल रहे हों। घर के अंदर फैल रहा वायरस बाहर निकलते ही जैसे कपूर हो गया था। दोनों वैसे ही बातों में मशगूल हो गए जैसे पहले किया करती थी, वही बातें करने लगी जो पहले करती थी। वही मुस्कान, वही चुहलबाजी उस चार फिट की दिवार के दोनों ओर फ़ैल रही थी। उस गोधूलि को दोनों की खिलखिलाहट ने रौशन कर दिया था।
नैना भले ही बातों में आफरा के साथ थी, उसका ध्यान अपने हाथ में पड़े उस वनीला केक के  टुकड़े पर केंद्रित था, जिसे ख़ास आफरा के लिए ही उसने बनाये थे, ख़ास रेसिपी के साथ, उसकी पूरी कौम से बदला लेने के लिए। इन कुछ पल की बातों ने वापस वो छूटा हुआ तार जोड़ दिया था। वापस वो आफरा से वैसा ही जुड़ाव महसूस कर रही थी जैसा पहले था, बाहरी वायरस के आने से पहले। लगा वो अपनी आत्मा मारने जा रही है और अगर ऐसा हुआ तो बचा शरीर ले कर वो क्या कर लेगी। लगा जैसे बहुत बड़ा अनर्थ करने जा रही थी वो।

अभी भी उसने आफरा की नज़रो से केक के उस टुकड़े को छुपा रखा था। आहिस्ता आहिस्ता अपने हाथों से उसे तोड़ने लगी और उसके टुकड़े को उस चार फ़ीट की दिवार के किनारे बिखेरने लगी, आफरा की नज़रों से बचा कर। दोनों बातें करती रहीं और खुशियां सुगंध की तरह चारो ओर फैलती रही। जैसे ये सुगंध पूरी जहाँ को महका रहा था।

तभी आफरा ने पूछ ही लिया, "क्यों री, कहाँ है मेरा केक? बड़ा दिन हो गया है तेरे हाथ का कुछ भी खाये हुए!"

"अम्म्म... वो... मैं तो बना ही नहीं पाई! वनीला एसेंसे ही नहीं मिला।" उसे लगा वो इससे ज्यादा झूठ अपनी पक्की सहेली से नहीं बोल सकती है।

"अच्छा, कोई बात नहीं। फिर कभी खा लेंगे। कौन सा अभी कोई ज़लज़ला आ रहा है। हाँ पर मैंने जरूर तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद की केशर सेवइयां बनाई है। खुब सारा ड्राई फ्रूट्स डाला है। ये लो।"

आफरा ने सच में नैना को अचंभित कर डाला था।

"अरे वाह। मुझे तुमसे अच्छा कोई नहीं जान सकता है। आज सच में मेरा बहुत दिल कर रहा था सेवइयां खाने को। आज तो तुमने मेरा दिन ही बना दिया है।" नैना बोलती जा रही थी और वो लज़ीज़ सेवइयां खाती जा रही थी।
आफरा उसे सेवइयां खाते देख रही थी। एक बार उसके दिल में आया भी कि उसे रोक दे उन सेवइयों को खाने से, पर ना जानें क्यों उसे रोक नहीं पायी। लगा उससे बहुत बड़ा गुनाह हो रहा है आज। शायद उसे आजन्म आत्मग्लानि में जीना पड़े।
नैना इन सारी आत्ममंथन से अनजान सेवइयां खाती जा रही थी और जहाँ को अपनी मुस्कान से रोशन करती जा रही थी।
शायद दिमागी वायरस दिवार के उस पार की चारदीवारी में भी फैला था। 


- अमितेश