बुधवार, 6 मई 2020

वायरस

अजीब अफ़रा तफ़री का माहौल था चारो ओर। तक़रीबन कर्फ्यू जैसे हालात थे शहर में। हर एक अंतराल पे बाहर से CRPF के कदम ताल की आवाज़ आ जाती। वजह यह नहीं की दंगे फैले थे, बल्कि ये की बाहर एक अनजानी बीमारी का ख़ौफ़  बरपा था।  उस पर से हालात ये कि इन परिस्थितियों का कुछ फ़िरकापरस्त लोग बेजा फायदा उठाने से बाज नहीं आ रहे थे। ये हालात दोनों तरफ से हीं बनाये गए थे। बहरहाल मसला जो भी हो, पिस आम आदमी ही रहा था। दोनों तरफ के आम आदमी। 

आफरा का घर से बाहर निकलना बंद हो गया था। इतना बंद की वो बाजू के घर में अपनी पक्की सहेली नैना से भी नहीं मिल पा रही थी। उनका मोहल्ला कुछ ऐसा था कि हिन्दुओं और मुसलमानो के घर लगभग आधे आधे थे सो ऐसे हालातों का प्रभाव भी यहाँ थोड़ा ज्यादा ही होता था। मोहल्ला करीब तिसिओं साल पुराना था। तब मज़हबी फलसफां काफी निजी होता था। सालों से यहाँ के लोग साथ रहते आये थे। कई दंगों से ये मोहल्ला बेदाग निकला था। कभी यहाँ के लोग इन कट्टरवादियों के झांसे में नहीं आने पाते थे। ऐसा नहीं की प्रयास नहीं किये गए थे पर फिर भी यहाँ के मोहल्ले के लोग गंगा - जमुनी तहज़ीब को दरकिनार नहीं कर पाते थे। 

बीते कुछ सालों में मज़हब भाईचारे से काफी ऊपर निकल आया था। अचानक ही यहाँ के मुसलमान कुछ ज्यादा ही मुसलमान होने लगे थे और हिन्दू कुछ ज्यादा ही सनातनी हो रहे थे। फिर ये पीढ़ी भी दूसरी थी। वो जो पहली पीढ़ी के लोग थे जिन्होंने मोहल्ला बसाया  था,अब बूढ़े हो चले थे और उनके बाद की पीढ़ी अचानक ही धर्म की ओर थोड़ा ज्यादा अभिमुख होने लगी थे। ये और बात थी की इस पीढ़ी ने धर्म को न ज्यादा पढ़ा था, ना जाना ही था। बस कही - सुनी ही ज्यादा फैली थी यहाँ। 

आफरा के भाई ने ताक़ीद की थी कि अब इन काफ़िर हिन्दुओं से मिलने की ज़रूरत नहीं है। फिर वो हमारे पड़ोसी शर्मा जी की फैमिली ही क्यों ना हो। 
हालात नैना के घर के भी ऐसे ही थे। उसके भाइयों ने भी कह रखा था कि अब बहोत दोस्ती निभा ली। ये ना तो पहले हमारे थे ना आज ही हमारे हैं। 
इस नयी पीढ़ी की पाषाणकालीन सोंच ने धीरे - धीरे मज़हबी दिवार खड़ी करनी शुरू कर दी थी मोहल्ले में। कह नहीं सकते थे की किस ओर की गलती ज्यादा थी। बस गलती थी और भुक्तभोगी सारे थे। 

इसी माहौल में सोशल मीडिया ने भी अपनी कमान संभाल ली थी। ऐसे - ऐसे संदेश और वीडियो हर घर तक पहुंचने लगे कि घर में बेकार ही बैठे लोगों का खून यूँ ही उबाल मारने लगा था। बाहर जो वायरस फ़ैल कर भी नहीं कर पा रहा था, यह दिमागी वायरस कर दे रहा था। ये दिमागी वायरस बाहर के वायरस से भी तेज़ रफ़्तार से फैलता जा रहा था। इन सन्देश और वीडियो को पता था कि किस के लिए कौन सा मोबाइल मुक्कमल है, वो बिलकुल उन्ही मोबाइल में फ़ैल रहा था। चुन - चुन कर यह वायरस लोगों को शिकार बनाता जा रहा था। एक समय ऐसा आया की वस्तुतः इस वायरस ने घर बैठे लोगों को एक प्रछन्न बम बनाना शुरू कर दिया था। कि कब लॉक डाउन खुले और ये बाहर जा कर पुरे आवेग से फटे। 

इन स्थितियों को ना तो नैना समझ पा रही थी ना आफरा। हालाँकि उनके मोबाइल भी ऐसे चयनात्मक संदेशों से भरे पड़े थे। कई दफा दोनों को लगता सच में ये वीडियो सच के करीब ही है। कि उसकी सहेली भी जरूर अंदर ही अंदर कोई षड्यंत्र रच रही है। जैसे ही मौका मिलेगा जरूर पीठ पे छुरा भोंकेगी। पर फिर दोनों एक दूसरे का चेहरा याद कर एक अलग ही ममत्व से भर जाती... नहीं नहीं वो तो मेरी बचपन की दोस्त है। कई वक़्त हमने साथ में काटे हैं। कितनी हीं बातों के एक - दूसरे के राजदार हैं। कई हंसी साथ में हँसे हैं, कितने ही आंसुओं को हमने साथ में गिना है। नहीं वो इन सारे वीडियो से इतर है। मेरी पक्की सहेली, ज़िंदगीभर के लिए। 

ऐसी ही न जाने कितनी बातें दोनों के दिमाग में दौड़ती रहती दिन भर। इतने एकांकी दिन हो गए थे कि ऐसी बातों के लिए समय भी बहुत था सब के पास, उन दोनों के पास तो था ही। जितना ही टीवी पे समाचार सुनते उतना ही घर का विचार - मुबाहिसा गर्म होता जाता। जैसे दिमागी वायरस को और हवा मिल रही हो और वो दोनों अपने अपने घरों में रह कर भी संक्रमित हो रही हों।
बातें भी कहाँ से कहाँ जाती जा रही थी। हालाँकि बाहरी और ऊपरी तौर पर तो सब ठीक - ठाक ही दीखता पर सारे अंदर ही अंदर भरे जा रहे थे।

नैना के दिमाग में भी बातें भरती जा रही थी। कुछ यूँ कि बीते दिनों की कई बातें उसे याद आने लगी। हर बात को वो उन कुंठाओं से जोड़ने लगी। जो बातें कल तक मज़ाक हुआ करती थी, आज ऐसा प्रतित होने लगा की उन बातों के पीछे एक भितराघात छुपा होता था आफरा का।  लगा की उठे और आफरा को उसके सारे किये की सज़ा एक झटके में दे आये। सच में ना तो वो आज मेरी है ना पहले कभी मेरी थी। आज वो वक़्त आ गया है जब मैं उससे उसके और उसकी कौम के सारे कृत्यों का बदला ले लूँ। आज उसे उसकी छत पर बुलाऊंगी और उसे जहरीला केक खिला दूंगी। बस काम - तमाम। अगर उन्हें हमें सताने पर जन्नत मिलता है तो हमें भी मोक्ष मिलेगा ऐसा कर के।

***

शर्मा और खान की छतें लगभग एक ही थी, बस एक चार फिट की दिवार उन्हें एक - दूसरे से अलग करती थी। काफी समय तक लोगों को लगता कि इन दोनों घरों की छत के बीच भले ही एक दिवार है, जड़े दोनों की एक हीं है। ऐसे कई मौकों पर इन घरों के रहने वालों ने इसका आभास दुनियाँ को दिया भी था। कौन भूल सकता है जब शर्मा जी के पिता का देहांत हुआ था तो कंधे खान के भी थे उनकी अलौकिक यात्रा में जाने के लिए। उन्होंने तो दुनिया की परवाह किये बिना "राम नाम सत्य है" का उद्घोष भी किया था कन्धा देते हुए।

खान की बेटी की शादी का वो मंजर कौन भूल सकता है जब शर्मा ने पूरी बारात की सुविधाओं का ध्यान रखा था। जो कभी नॉन वेज को खाना मानते नहीं थे, उन्होंने खुद अपने हाथों से सारी बारात को मटन पुलाव परोसा था। अक्सर खान और शर्मा उन यादों को याद करके अपनी आखों में अश्कों का सैलाब समेट लेते थे। पर ये सारी बातें बीते दिनों की थी। आज के सन्दर्भ में बेमानी थी। आज युग नया है। जमीन की मिट्टी नयी है, सो जड़ें भी बदल गए हैं और उसके फल - पत्ते भी। 

कल तक जो दोस्ती इतनी गाढ़ी थी कि लगता दोनों एक दूजे की रंग में सराबोर हैं, आज वो ही नैना आफरा की केक में ज़हर मिलाने चली थी। शायद दिमागी वायरस का जहर सारे जहन में फ़ैल चूका था नैना के। बड़ी जतन से उसने आफरा का पसंदीदा वनीला केक बनाया था, वैसा ही जैसा वायरस ने उससे बनवाया था। उसे फ़ोन कर के छत पर बुलाया कि बड़े दिन हो गए हैं इत्मीनान और कैफ़ियत से बात किये हुए। और हां मै तुम्हारे लिए वनीला केक भी बना रही हूँ। आओगी ना।

नियत समय पर दोनों अपने घर वालों की नज़र बचा कर छत पर पहुंची। लगा जैसे अरसे बाद मिल रहे हों। घर के अंदर फैल रहा वायरस बाहर निकलते ही जैसे कपूर हो गया था। दोनों वैसे ही बातों में मशगूल हो गए जैसे पहले किया करती थी, वही बातें करने लगी जो पहले करती थी। वही मुस्कान, वही चुहलबाजी उस चार फिट की दिवार के दोनों ओर फ़ैल रही थी। उस गोधूलि को दोनों की खिलखिलाहट ने रौशन कर दिया था।
नैना भले ही बातों में आफरा के साथ थी, उसका ध्यान अपने हाथ में पड़े उस वनीला केक के  टुकड़े पर केंद्रित था, जिसे ख़ास आफरा के लिए ही उसने बनाये थे, ख़ास रेसिपी के साथ, उसकी पूरी कौम से बदला लेने के लिए। इन कुछ पल की बातों ने वापस वो छूटा हुआ तार जोड़ दिया था। वापस वो आफरा से वैसा ही जुड़ाव महसूस कर रही थी जैसा पहले था, बाहरी वायरस के आने से पहले। लगा वो अपनी आत्मा मारने जा रही है और अगर ऐसा हुआ तो बचा शरीर ले कर वो क्या कर लेगी। लगा जैसे बहुत बड़ा अनर्थ करने जा रही थी वो।

अभी भी उसने आफरा की नज़रो से केक के उस टुकड़े को छुपा रखा था। आहिस्ता आहिस्ता अपने हाथों से उसे तोड़ने लगी और उसके टुकड़े को उस चार फ़ीट की दिवार के किनारे बिखेरने लगी, आफरा की नज़रों से बचा कर। दोनों बातें करती रहीं और खुशियां सुगंध की तरह चारो ओर फैलती रही। जैसे ये सुगंध पूरी जहाँ को महका रहा था।

तभी आफरा ने पूछ ही लिया, "क्यों री, कहाँ है मेरा केक? बड़ा दिन हो गया है तेरे हाथ का कुछ भी खाये हुए!"

"अम्म्म... वो... मैं तो बना ही नहीं पाई! वनीला एसेंसे ही नहीं मिला।" उसे लगा वो इससे ज्यादा झूठ अपनी पक्की सहेली से नहीं बोल सकती है।

"अच्छा, कोई बात नहीं। फिर कभी खा लेंगे। कौन सा अभी कोई ज़लज़ला आ रहा है। हाँ पर मैंने जरूर तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद की केशर सेवइयां बनाई है। खुब सारा ड्राई फ्रूट्स डाला है। ये लो।"

आफरा ने सच में नैना को अचंभित कर डाला था।

"अरे वाह। मुझे तुमसे अच्छा कोई नहीं जान सकता है। आज सच में मेरा बहुत दिल कर रहा था सेवइयां खाने को। आज तो तुमने मेरा दिन ही बना दिया है।" नैना बोलती जा रही थी और वो लज़ीज़ सेवइयां खाती जा रही थी।
आफरा उसे सेवइयां खाते देख रही थी। एक बार उसके दिल में आया भी कि उसे रोक दे उन सेवइयों को खाने से, पर ना जानें क्यों उसे रोक नहीं पायी। लगा उससे बहुत बड़ा गुनाह हो रहा है आज। शायद उसे आजन्म आत्मग्लानि में जीना पड़े।
नैना इन सारी आत्ममंथन से अनजान सेवइयां खाती जा रही थी और जहाँ को अपनी मुस्कान से रोशन करती जा रही थी।
शायद दिमागी वायरस दिवार के उस पार की चारदीवारी में भी फैला था। 


- अमितेश

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