शनिवार, 1 जून 2013

अविरल लम्हें

धूप में धुले वो  सुहाने दिन
और चांदनी से नहाई रातें
जब तेरी यादों की चादर ओढ़े
तेरी ख़्वाबों में खोया रहता था
जब सुबह की हवाएं सहला कर मुझे
उस अप्रतिम निंद्रा से खींच लाती
और मैं अनमना सा निकल आता
उन परीकथाओं की निंद्रा से।

जब तेरी नज़र की एक दस्तक
मेरे ह्रदय को चीर जाती
और तेरी आवाज की खनक
कई सरगम छेड़ जाती मेरे जीवन में
मैं मंत्रमुग्ध सा स्थिर हो जाता
जब अपलक निहारता रहता तुम्हे
तुम सकुचाई - सी निःशब्द हो
चूड़ियां घुमाती अपने हाथों में।

तेरी चमकीली हँसी से जब
नक्षत्र अपनी राह बनाते
बस कर तुम्हारी उन आँखों में
मैं जब कई लोक घूम आता
तेरी आँखों के बावस्ता
जब तुम मेरी राहें भर देती
अपनी पलकें बिछा कर
की कोई दू:स्वप्न ना चुभ जाए
मेरी पावों में।

काश
की ख़त्म ना हो ये अविरल लम्हें
आजन्म मेरे जीवन से।


-अमितेश