रविवार, 23 अगस्त 2009

Wheel of Revolution

23rd August, 2009 (Sunday)
Raipur

Sometimes we see things and derive some thoughts out of it. Sometimes we hear thoughts and the related cases and agree with that. And there are cases wherein we hear some thought and start conglomerating incidences around it to support that thought.


I was going through a book and came across those famous lines of Fidel Castro, “The important thing is the revolution, the revolutionary cause, revolutionary ideas, revolutionary objectives, revolutionary sentiments, revolutionary virtues”.


And I literally started collecting incidences to support these beautiful lines of Fidel Castro.
Few days back, probably on 11th August, during a course of doing some activity in school, I went to one of the village nearby Raipur. It was Mandir Hasod. A small village known for few of the industries sited here. The activity was planned in Government Girl’s Higher Secondary School. Here we were to give a presentation on Oral Hygiene. So the principle of the school had coiffured a gathering of the students during the dejeuner break. There were around 250 girls of class 8th to 10th present there. I was so happy to see the crowd. Not only because our activity was very successful, but also to see girl child studying there. When I asked the principle of the school about the socio-economic status of these students, she said, more than half of the girls belong to lower strata of economy. Also, majority of the students are from Scheduled Cast and Scheduled Tribe differentiation of society. I was diverted to know that girls coming here for the study from more than 15 nearby villages in the range of 10 – 15 Km. Yes, definitely the important thing is revolution and revolution is here. A paradigm shift in the mentality of Rural Indian of promoting their girl child. At least I am sure that the incidents of female feticides in these much villages would not be existing.
Would Pt. Nehru been alive, he would have been happy seeing this revolution. (Here his thought fits very well, “If you teach a boy, you educate an individual and if you teach a girl, you educate a family”.)

Another incident is about 2 year back story. I was traveling to a village called Bhanpura (a village in Mandsaur district of Madhya Pradesh) by bus. The bus was very crowded. But we managed to get place in the driver cabin above the engine of the bus. There 5 – 6 high school going girls were sitting. They were going to school located at Bhanpura from their respective villages. When I travel by bus, I get only two works to do. Either I play with my sub-conscious mind or observe people surrounding me. Here also, unintentionally, I started listening these girls, taciturnly. They were talking about their future ambitions! Two of these girls were having ambition of becoming Air Hostess! They were telling their friends about their plan of going to Indore after their 12th exam and their pursuance of becoming Air Hostess. Revolution…
I don’t know from which villages these girls are belonging. In Bhanpura, which is very – very small village, of the population not more than 2000, these girls are dreaming of touching sky. I was having a thought that career and future prospects are inutile words for Rural Girls (even boys). No, it is not anymore. I am very much wrong. I must have to brush up my mentality of this feebleminded thinking.
The term Revolution must have been started from some village on the earth.

Once Mao Tse-tung had said, “If there is to be revolution, there must be a revolutionary party”. Seeing these girls, I would say, for bringing any revolution we really don’t need party, what we need is only Revolutionaries… like these girls or girls of Mandir Hasod.

शनिवार, 22 अगस्त 2009

Blessings!

कहते है प्रकृति है सबसे बड़ी सहृदयी
रचित किया है जिसने सम्पूर्ण विश्व को
ये चाँद, ये तारे, ये सूरज, ये नदियाँ
सब हैं रचना इसकी
पर इस महान रचना ने
किया है अभिशप्त सबको
अभिशप्त चाँद, अभिशप्त तारे,
अभिशप्त सूरज, अभिशप्त नदियाँ।

प्रकृति की अप्रतिम रचना यह चाँद
बिखेरता है समभाव अपनी चांदनी
प्रकृति ने बनाया रात का आँगन
चाँद की चंचल अठखेलियों के लिए।
पर यही प्राकृतिक रात, काली-अंधियारी रात
एक क्रमिक अन्तराल के बाद
खा जाती है प्यारे चाँद को
छीन लेती है इसकी चमकीली चांदनी।
यह आत्मबल है अभिशप्त नन्हे चाँद का
की यह प्रकृति की रात से
करती है दो-दो हाथ, बार-बार।

प्रकृति ने बिखेरा आसमान के छौने पर
मोतियों से चमकते तारे
दिया इसे सितारों-सी चमक।
पर कर दिया दूर इतना इन्हे अपनों से
की तरसते है साथ पाने का एक-दुसरे का।
यह उष्णता है इन अभिशप्त तारों की
जो आपस में मिल न पाने पर भी
भेजते रहते हैं अपनी किरणें
एक-दुसरे के घरों में।

भेजा सूरज को प्रकृति ने
अनंत में फैलाने को उजियारा।
पर दे दी इतनी उष्णता इसे
की अभिशप्त सूरज बार-बार
डूबता है सागर में शीतलता की कामना लिए
लेकिन हर बार लौटता है बाहर
नाकामयाबी का तमगा लिए।
यह दृढ़ इच्छाशक्ति है अभिशप्त सूरज की
जो बार-बार रखता है कोशिशे जारी
शीतलता की कामना की।

प्रकृति ने बनाया जीवन-रेखा धरती की
इन चमकीली, सहिष्णु नदियों को
दे दिया इन्हे, इठलाने-बलखाने का हुनर।
पर इठलाती-बलखाती अभिशप्त नदियाँ
खो देती है अपना वजूद, असीम सागर में
सबकी तृष्णा अपनी मिठास से बुझा कर
मिलता है इन्हे खारा जल
अपनी प्यास बुझाने को।
यह हठधर्मिता है अभिशप्त नदियों की
जो यह जानकर भी की
खो देंगी अपना वजूद आगे चल कर
इठलाती-बलखाती नदियाँ चलती रहती है
बढती-रहती है, अपने जीवन की राह पर।

नहीं जानता
प्रकृति ने शापित किया है
या जीने की राह दिखायी है
अपनी इन प्राकृतिक रचनाओं को।
सहृदयी प्रकृति!

-अमितेश

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

अव्यक्त

प्रियतम
जानता हूँ
जिस नीलाभ को मै स्पर्श करना चाहता हूँ
वो मेरी ऊंचाई से बहुत ऊँची है;
जिस अनंत को मै प्राप्त करना चाहता हूँ
वो मेरे बूते से बाहर है;
जिस क्षितिज के पार
मै तुम्हारे साथ जाने कि कल्पना करता हूँ
वह दिवास्वप्न कि भांति है;
पर,
तेरा,
मेरे अस्पर्श आलिंगन से,
न चाह कर भी निकल जाना;
मेरे स्पर्श को
एक झिझक के साथ महसुस करना;
मेरे सानिध्य को,
सहमते हुए पाने की चाह -
बार-बार, हर बार
मुझे प्रेरित करती रहती है
अपनी मंजिल प्राप्त करने को...
तुम्हे पाने की मंजिल...!

प्रणयनी,
जानता हूँ,
जिस भविष्य को मैंने कल्पित कर रखा है
वो,
मेरी रेखाओं से परे है;
जिस राग को मै गाना चाहता हूँ
वह, संगीत का आठवां सुर है,
जो अरुनाभित वसंत मेरे मानस पटल पर है
वह यथार्थ से दूर...
बहुत दूर है
पर,
तेरी आँखें,
तेरे होठ
तेरी मुस्कराहट
तेरी जुल्फें
तेरी चंचलता
हर वक्त
मेरी चाह को और प्रबलता देती है...
तुम्हे अपनाने की चाह...!

प्रिया,
नहीं जानता,
हम दोनों एकाकार हो पाएंगे
या, यूं ही अपूर्ण बने रहेंगे
पर,
फिर भी
मुझे तुम्हारा, सिर्फ़ तुम्हारा
इंतज़ार रहेगा,
जीवन की आखरी साँस तक...!

- अमितेश

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

अभिशाप

बाहर के दृष्य बहुत तेजी से बदलते जा रहे थे। बड़े-बड़े पेड़ों के बीच अचानक धान के विस्तृत खेत आ जाते। कभी बीच में उग आए नारियल और नीम के लंबे पेड़ तो कहीं-कहीं ज़मीन से पेड़ों के साथ ही उग आयी कुछ झोपडियां। कई दफा पेड़ की झुरमुटों से कुछ चेहरे झांक जाते। जैसे मुझे बता रहे हो की हम तुम्हारी कहानी के पात्र हैं। छोटे छोटे घटनाक्रम में हमें फिट करो और उन्हें जोड़ कर एक पूरी कहानी का प्लाट बना लो। एक अमर कहानी। मैं भी उन्हें देख कर मुस्कुरा देता। नहीं, अभी कोई कहानी लिखने का वक्त नही है। पहले मुझे प्रकृति के बनाये पात्रों को समझ तो लेने दो, फिर लिखूंगा कोई अमर कहानी। अभी तो बिल्कुल नहीं।
हाँ, सच ही तो है। यह प्रकृति है जो कई पात्र बना उन्हें आपके आस-पास बिखेर देती है। हम-आप तो बस उन्हीं में से कुछ पात्र चुन कर उसके इर्द-गिर्द बतकही का एक ताना-बाना बुन देते हैं। लो हो गए कहानी तैयार। मैं भीतर-ही-भीतर मुस्कुरा दिया इस विचार पर।
बस अपनी समानुपातिक रफ्तार से चली जा रही थी। खुली खिड़की से हवाएं अन्दर आती हुई मुझे थपकियाँ दे रही थे। जैसे इन थपकियों और अपनी सायं-सायं की लोरी सुना हवा मुझे अपनी आगोश में सुलाना चाह रही हो। एक बेफिक्र नींद। नहीं-नहीं, मुझे तो पेड़ की झुरमुट से झांकते प्रकृति के उन पात्रों को समझना है। तभी तो मैं अपनी कहानी लिख पाऊंगा। नींद को आंखों से झटक मैं फिर से बाहर के बिखरे पात्रों से रु-ब-रु होने लगा, उन्हें समझने की चेष्टा में।
एक तेज़ सडांध से ही फिर अपना चेहरा फेर सका उन भागते दृश्यों से। शायद किसी ने अपने पालतू जानवर को मरने के बाद लावारिस बना हाईवे पर फेक दिया था। भगवान का शुक्र है की मैं इंसान पैदा हुआ। मरने के बाद शायद मैं तो लावारिस नहीं कहलाऊंगा इन पालतू जानवर की तरह। शायद।
उसकी उम्र 15-16 की रही होगी। पक्का सांवला रंग। घुटनों तक बंधी साड़ी। हाथ में लोहे की चूडियों के साथ दो-तीन कांच की चुडियाँ। पेट उसकी गोलाइयों तक उभरी हुई। जैसे एक उबड़-खाबड़ पठारी मैदान का आभास दे रही थी। संथाली लड़की। रिजू थॉमस नाम था उसका शायद, हां यही नाम तो बताया था उसने। पास के ही सीट पर अपनी माँ के साथ बैठी थी वो। माँ, बिल्कुल माँ जैसी ही। नाक में रंग बिरंगे नथ। उलझे से खिचड़ी बाल, पुरानी सी सफ़ेद और नीली बॉर्डर वाली सूती साड़ी, घुटनों तक बंधी हुई, पैरों में रबर के चप्पल। रह रह कर वह रिजू को कोस रही थी। "एक तो गरीबी कम थी जो ये पाप लिए फिर रही है। गांववालों को पता चलेगा तो कौन सा मुँह ले कर उनसे नज़र मिला पाऊँगी। ऐसी ही आग लगी थी जवानी को तो जलती लकडी ठूंस लेती जांघों के बीच।" वह बस मद्धिम आवाज़ में बडबडाती जा रही थी और रिजू जैसे उसकी बात पर ध्यान ही न दे रही हो। वो भी शायद मेरी तरह बाहर के दीखते-छुपते पात्रों में अपने पात्र, अपनी कहानी तैयार कर रही थी।
"बित्ते भर कि छोकरी और ऐसे कारनामे। अब क्या होगा तुम्हारी ज़िन्दगी का। उस हरामजादे ने भी तो तुम्हे अपनाने से इनकार कर दिया है। तेरी एक हरकत ने हमारे पुरे परिवार को नकटा बना दिया। ऐसी कौन सी बूटी खिला दी थी उसने की तू अपने आप को उसके हवाले कर आयी। हे प्रभु, धरती की छाती खोल कर हमें अपने में समा ले या मेरे पुरे गाँव को लील जा। आज तक सर उठा कर जिया है, ज़लालत में मरना नहीं चाहती।"
रिजू अब भी बेअसर बाहर के दृश्यों को निहारती रही। इतनी देर में मैं उब चुका था बुढ़िया कि बक-बक सुन कर। पुरा माजरा भी समझ में आने लगा था। अब तो मैं भी प्रभु से प्रार्थना करने लगा- बुढ़िया कि समस्याओं के निदान के लिए नही। इसलिए की रिजू कुछ बोल और चुप करा इस बुढ़िया को। मैं अपने-आप को केंद्रित नहीं कर पा रहा हूँ बाहर के लुका-छिपी खेलते पात्रों पर। कुछ तो बोल रिजू।
जैसे रिजू ने मेरी बात सुन ली हो। बोल दिया - "येशु भी तो ऐसे ही पैदा हुए थे न माँ। मरियम भी तो बिन ब्याही माँ थी। है न माँ। फिर वो भगवान क्यो है और हम पापी क्यो! क्यो फादर ने इस येशु को गिराने को कहा है उस येशु की प्रार्थना करते हुए! बोल न माँ।"
ऐसा लगा जैसे बुढियां की जुबान मुँह में चोकलेट कैंडी की तरह पिघल गयी हो। बाहर के मेरे सारे पात्र न जाने कैसे गायब हो गए। बस एक मुस्कुराते बच्चे का प्रतिबिम्ब दिख रहा था दूर क्षितिज में, सूरज के ठीक नीचे।
-अमितेश

शनिवार, 15 अगस्त 2009

सहारा

जब जब चलना जीवन पथ पर
और ठोकर हो गर पग-पग पर
तुम मेरा सहारा लेना।

जब-जब करने लगे समय छल
और बोझिल हो जाए प्रतिपल
तुम मेरा सहारा लेना।

जब टूट तुम्हारा ह्रदय जाए
कोई विरह गीत कोई गाये
तुम मेरा सहारा लेना।

जब अरमां आंसू में बह जाए
एक टीस-सी मन में रह जाए
तुम मेरा सहारा लेना।

जब प्यार कभी मुझ पर आए
चाहे अवसान ही जीवन का आए
तुम मेरा सहारा लेना।

-अमितेश

सपने

सपने,
रेत के महलों से सपने
सागर की लहरों से सपने
सीप की मोतियों से सपने
चमकते जुगनुओं से सपने।

सपने,
टीन की छत पर पाउस से सपने
छप्परों से लटकते बर्फ से सपने
ओस से भींगे फूलों से सपने
रिस-रिस बहते झरनों से सपने।

सपने,
पल-पल बनते से सपने
हर क्षण बिखरते से सपने
कभी आसमान छुते से सपने
कभी मिट्टी में मिलते से सपने।

सपने,
कभी मुट्ठीओं में भरते से सपने
कभी मुट्ठीओं से फिसलते से सपने
कभी पलकों में पलते से सपने
कभी पलकों में मरते से सपने।
सपने!

-अमितेश

परछाई

उस जाड़े की सहमती सुबह
जब धुंध ज़मीन पर उतर आया था
दो अनजान पथिक की तरह हमने
धुंध पर अपने पैरों के निशान बनाये थे
अनजाने में।

जब ओस की बूँदें
तुम्हारे गेसुओं में गुथ आए थे
और मैंने उन्हें पोशीदा-पोशीदा
तुम्हारी जुल्फों से हटाये थे
तुम्हारी जुल्फों की खुशबू महसूस करते हुए
शायद!

उन अमलतास की झुरमुटों की ओट में
जब हमने कई प्रेम गीत गाये थे
एक दुसरे की सुर से सुर मिला कर
तब हमारे दिल की धड़कने साज़ बन आए थे
और वक्त सजिंदा!

जब सर्द मौसम में कई लाल-पीली कलियाँ
रास्ते पर गिर आयी थी अपनी झुरमुटों से
अपने-आप में ही सर्माई-सकुचाई
हमारे रस्ते फूलों से भर देने की चाहत में
रास्ते भर!

उस जाड़े की सर्द सुबह में भी तुम
दूर धुंधलाते क्षितिज के पार जाना चाहती थी
और अपनी आगोश में तुम्हे लिए
उस धुंधलाते क्षितिज की सैर की थी
हम-दोनों ने।

क्या भूल सकती हो तुम
जाड़े की सर्द सुबह की वो खुशबू
जो आहिस्ता-आहिस्ता हमारी सांसों के रास्ते
हमारे रक्त का एक हिस्सा बन आयी थी।

तुम्हारे साथ की खुशबू
आज भी मेरी सांसों, मेरे रक्त का एक हिस्सा है
बस
तुम्हारी सांसे, तुम्हारा रक्त बदल गया है
शायद!

-अमितेश

रविवार, 9 अगस्त 2009

सात्विक उपस्थिति

मै अक्सर सोचता हूँ
क्या बितती है उस कली पर
जब कोई
उसकी तारीफ़ के कसीदे गढ़ता है
और
उसकी खूबसूरती को पैबंद कर देता है
अपनी कोट पर,
उसे उसके अपनों से अलग कर के।

तुम कली हो मेरे बागों की।
अफताब-सी तेरी खूबसूरती
हमेशा लुभाती है मुझे,
पर नहीं चाहता अपनी कोट पर तुझे।
चाहता हूँ
बनी रहो मेरे बाग़ में
हमेशा
अपनी खूबसूरती से मुझे लुभाते हुए।
हमेशा...!

मैं अक्सर सोंचता हूँ
क्या गुजरता है बादल के उस बिंदास टुकड़े पर
जो चाहता है
अपना खुद का वज़ूद
अपने अपनों से अलग हो कर।
पर उसके अपने उसे ख़ुद में समेत कर
लगा देते हैं एक पाबन्दी
उसके यूं बेलौस घुमने पर
और मजबूर कर देते है उसे
बिखर कर बरसने के लिए।

तुम बादल हो मेरे ख्वाबों की।
यूं बेवजह भटकना तेरा
किसी अस्पष्ट-सी मंजिल की तलाश में
जगाती है उत्सुकता मेरी
तेरे लिए...!
नहीं चाहता
की मेरे आंगन की नीम में तुम अटक जाओ
और
तेरी आवारगी को छुने के लिए
मैं तेरे बरसने की कामना करूँ।
चाहता हूँ,
बस यूं ही घूमती रहो,
भटकती रहो मेरे ख़्वाबों में,
किसी अस्पष्ट-सी मंजिल की लालसा लिए।
हमेशा...!

मै अक्सर सोंचता हूँ
क्या बितती है सूरज की उन किरणों पर
जो खिड़की की झिर्री से आकर
बताती हैं
कि दर्ज कर सकती हैं वो अपनी उपस्थिति
किसी बंद से भी कमरे में।
पर
लोग उसे पकड़ न पाने कि कुंठा में
खींच लेते हैं परदे, खिड़कियों के।

तुम किरणें हो उस सूरज की
जो मेरे ह्रदय में तिर आयी है
एक पतली लकीर की तरह,
मेरे ह्रदय के झरोखे से।
नहीं चाहता
कि समेत लूं तेरे सम्पूर्ण आकार को
अपने ह्रदय में,
खोल कर उसकी खिड़कियाँ सारी।
चाहता हूँ
बस यूँ ही
तिरी रहो मेरे ह्रदय में
रोशनी की रुपहली लकीर बन कर
और
मै आजन्म
करता रहूँ चेष्टा
अपनी मुट्ठियों में तुझे भरने की।
हमेशा...!

-अमितेश

डायरी के आखरी पन्ने

आज तक भटक रहा हूँ मैं। ज़िन्दगी एक दौड़-सी बन गयी है, लम्बी-नि:स्तब्ध दौड़। मुकाम तो कई पाये है मैंने, पर मंजिल आज-तक न पा सका। एक लम्हे की कसक ने सदियों का दर्द दे डाला मुझे।
कहाँ जानता था कि हमराही बनने की चाह में मैं बस राहों पर आ जाऊँगा। कहाँ जानता था कि अपना आधा हिस्सा तुम्हे बनाने की कोशिश में मैं ही अधूरा बना रह जाऊँगा। उस एक पल, एक क्षण को तो जैसे मेरी मति ने जवाब दे डाला था। एक सैलाब आया, और हम दोनों को बहा कर ले गया, न जाने कहाँ, न जाने कब तक? हमने भी उस सैलाब पर अपनी ज़िन्दगी छोड़ दी, बह जाने के लिए।
नहीं जानता, कोई राह हमने बनाई या नही, कोई मंजिल कल्पित किया या नहीं। हम तो बस बहते चले गए, न जाने कब तक। फिर अचानक एक भंवर आया। जब तक तुम कुछ सोच पाती या मैं कुछ कर पाता, न जाने हम दोनों कौन से राह पर आ गए। एक दम ही एक दुसरे से जुदा राहों पर। आखरी बार तो मैं तुम्हें देख भी नहीं पाया-जी भर कर।
फिर तो न तुम्हारी कोई ख़बर आयी ना ही तुमसे बातें कर पाया। बस सुन जाता था किसी-किसी से कि ज़िंदा हो तुम। पर यहाँ तो मैं रोज मरने लगा। आज तक हर रोज़ एक नयी मौत मर रहा हूँ मैं।
आज मैंने तुम्हारे साथ बिताये एक-एक लम्हों को अपने ह्रदय में सांसों के ठीक नीचे तह कर के रखा है। मेरी हर साँस उन सुनहरे लम्हों को छु कर निकलता है। हर रोज उसे झाड़ता-पोंछता हूँ और गिनता हूँ कि कहीं कोई लम्हा खो तो नहीं गया। नहीं, लम्हें तो आज भी वैसे ही सहेज कर रखें हैं मैंने। वो तो नहीं खोये, खो तो बस मैं गया हूँ, इस ज़िन्दगी कि भीड़ में। खोया तो मैंने बस तुम्हे है, अपनी ज़िन्दगी से।
बस अब थक चुका हूँ। अब चाहता हूँ कि मुझे एक और मौत मिले, एक सास्वत मौत, मेरी आखरी मौत। एक उम्मीद-सी थी तुम्हे पा लेने कि, अब तो वो भी टूट गयी। पर यकीन रखो, मैं भले ही मर जाऊँ पर तुम्हारी जो यादें मैंने अपने ह्रदय में सहेज कर रखा है उसे हमेशा जिंदा रखूँगा। उसे कभी मरने नहीं दूंगा।
- अमितेश

यादें

गुलमोहर के दरख्तों तले
तुम्हारे करीब बैठ कर
बुने थे हमने कई हसीन
ख्वाबों के ताने-बाने।
ख्वाबों-सा शहर, ख्वाबों की गलियां
ख्वाबों के घर और ख्वाबों सी खिड़कियाँ।
हर ख्वाब में हुआ करते थे सिर्फ़ दो शख्स
तुम और हम।

सर्दी की सर्द सुबह में
गीली-सी खुशबू सर्दी की
और दरख्तों से टपकती
ओस की बूंदों के बीच
बसाई थी हमने अपनी दुनिया
अपने एकाकार ख्वाबों में।

वो बेवजह छु जाना तेरे हाथों का,
मेरे हाथों से,
इत्तफाकन महसूस करना तेरी सांसों को,
तेरे बालों से आती अपनेपन की खुशबू
ख्वाबों सा अहसास दिलाती थी मुझे।

यकीनन महसुस तो तुमने भी किया हर पल
साथ के दिनों की गर्मी को
पर हमेशा,
एक स्वाभाविक झिझक में
छोड़ देती थी वक्त को
अपनी हथेलियों से
यूँ ही आवारगी से बहने के लिए
मेरे सानिध्य में।

जानता हूँ
चाहती तुम भी थी वक्त का
लम्हों में ठहर जाना,
जब हुआ करती थी तुम
मेरी बाहों के घेरे में।

उन कुहरों भरी सर्दी में भी
महसूस करते थे एक गर्म एहसास
दिल के महफूज से किसी कोने में
हम दोनों।

मेरे बालों पर जम आए ओस
कुहरों के कारण,
हमेशा फैलाती थी तुम्हारे चेहरे पर
एक प्यारी सी मुस्कान
और उनके सूखने का इंतज़ार किए बगैर
पोछ देती थी तुम उन्हें
अपने दुपट्टे के कोने से।

प्रिया,
आज भी आते है मुझे सपने
अपने बीते दिनों के,
साथ के दिनों के।
बस फर्क आ गया है भावनाओं में।
कल तक जो रूहानी ख्वाब
होठों पे मुस्कान फेर जाते थे
आज आंखों से बरबस बह जाते है।

तेरे साथ लम्हों के रिश्ते ने
अरसों का फासला तय कर लिया है आज,
जो साथ तुम्हारा कभी दिल में फैला करता था
आज आँखों से रिसा करता है।

हाँ, आज वक्त ठहर-सा गया है मेरे लिए
बस दुनिया बही जा रही है वक्त के साथ
मुझे ठहराव दे कर!

-अमितेश