रविवार, 9 अगस्त 2009

यादें

गुलमोहर के दरख्तों तले
तुम्हारे करीब बैठ कर
बुने थे हमने कई हसीन
ख्वाबों के ताने-बाने।
ख्वाबों-सा शहर, ख्वाबों की गलियां
ख्वाबों के घर और ख्वाबों सी खिड़कियाँ।
हर ख्वाब में हुआ करते थे सिर्फ़ दो शख्स
तुम और हम।

सर्दी की सर्द सुबह में
गीली-सी खुशबू सर्दी की
और दरख्तों से टपकती
ओस की बूंदों के बीच
बसाई थी हमने अपनी दुनिया
अपने एकाकार ख्वाबों में।

वो बेवजह छु जाना तेरे हाथों का,
मेरे हाथों से,
इत्तफाकन महसूस करना तेरी सांसों को,
तेरे बालों से आती अपनेपन की खुशबू
ख्वाबों सा अहसास दिलाती थी मुझे।

यकीनन महसुस तो तुमने भी किया हर पल
साथ के दिनों की गर्मी को
पर हमेशा,
एक स्वाभाविक झिझक में
छोड़ देती थी वक्त को
अपनी हथेलियों से
यूँ ही आवारगी से बहने के लिए
मेरे सानिध्य में।

जानता हूँ
चाहती तुम भी थी वक्त का
लम्हों में ठहर जाना,
जब हुआ करती थी तुम
मेरी बाहों के घेरे में।

उन कुहरों भरी सर्दी में भी
महसूस करते थे एक गर्म एहसास
दिल के महफूज से किसी कोने में
हम दोनों।

मेरे बालों पर जम आए ओस
कुहरों के कारण,
हमेशा फैलाती थी तुम्हारे चेहरे पर
एक प्यारी सी मुस्कान
और उनके सूखने का इंतज़ार किए बगैर
पोछ देती थी तुम उन्हें
अपने दुपट्टे के कोने से।

प्रिया,
आज भी आते है मुझे सपने
अपने बीते दिनों के,
साथ के दिनों के।
बस फर्क आ गया है भावनाओं में।
कल तक जो रूहानी ख्वाब
होठों पे मुस्कान फेर जाते थे
आज आंखों से बरबस बह जाते है।

तेरे साथ लम्हों के रिश्ते ने
अरसों का फासला तय कर लिया है आज,
जो साथ तुम्हारा कभी दिल में फैला करता था
आज आँखों से रिसा करता है।

हाँ, आज वक्त ठहर-सा गया है मेरे लिए
बस दुनिया बही जा रही है वक्त के साथ
मुझे ठहराव दे कर!

-अमितेश


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