शनिवार, 15 अगस्त 2009

परछाई

उस जाड़े की सहमती सुबह
जब धुंध ज़मीन पर उतर आया था
दो अनजान पथिक की तरह हमने
धुंध पर अपने पैरों के निशान बनाये थे
अनजाने में।

जब ओस की बूँदें
तुम्हारे गेसुओं में गुथ आए थे
और मैंने उन्हें पोशीदा-पोशीदा
तुम्हारी जुल्फों से हटाये थे
तुम्हारी जुल्फों की खुशबू महसूस करते हुए
शायद!

उन अमलतास की झुरमुटों की ओट में
जब हमने कई प्रेम गीत गाये थे
एक दुसरे की सुर से सुर मिला कर
तब हमारे दिल की धड़कने साज़ बन आए थे
और वक्त सजिंदा!

जब सर्द मौसम में कई लाल-पीली कलियाँ
रास्ते पर गिर आयी थी अपनी झुरमुटों से
अपने-आप में ही सर्माई-सकुचाई
हमारे रस्ते फूलों से भर देने की चाहत में
रास्ते भर!

उस जाड़े की सर्द सुबह में भी तुम
दूर धुंधलाते क्षितिज के पार जाना चाहती थी
और अपनी आगोश में तुम्हे लिए
उस धुंधलाते क्षितिज की सैर की थी
हम-दोनों ने।

क्या भूल सकती हो तुम
जाड़े की सर्द सुबह की वो खुशबू
जो आहिस्ता-आहिस्ता हमारी सांसों के रास्ते
हमारे रक्त का एक हिस्सा बन आयी थी।

तुम्हारे साथ की खुशबू
आज भी मेरी सांसों, मेरे रक्त का एक हिस्सा है
बस
तुम्हारी सांसे, तुम्हारा रक्त बदल गया है
शायद!

-अमितेश

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