रविवार, 9 अगस्त 2009

डायरी के आखरी पन्ने

आज तक भटक रहा हूँ मैं। ज़िन्दगी एक दौड़-सी बन गयी है, लम्बी-नि:स्तब्ध दौड़। मुकाम तो कई पाये है मैंने, पर मंजिल आज-तक न पा सका। एक लम्हे की कसक ने सदियों का दर्द दे डाला मुझे।
कहाँ जानता था कि हमराही बनने की चाह में मैं बस राहों पर आ जाऊँगा। कहाँ जानता था कि अपना आधा हिस्सा तुम्हे बनाने की कोशिश में मैं ही अधूरा बना रह जाऊँगा। उस एक पल, एक क्षण को तो जैसे मेरी मति ने जवाब दे डाला था। एक सैलाब आया, और हम दोनों को बहा कर ले गया, न जाने कहाँ, न जाने कब तक? हमने भी उस सैलाब पर अपनी ज़िन्दगी छोड़ दी, बह जाने के लिए।
नहीं जानता, कोई राह हमने बनाई या नही, कोई मंजिल कल्पित किया या नहीं। हम तो बस बहते चले गए, न जाने कब तक। फिर अचानक एक भंवर आया। जब तक तुम कुछ सोच पाती या मैं कुछ कर पाता, न जाने हम दोनों कौन से राह पर आ गए। एक दम ही एक दुसरे से जुदा राहों पर। आखरी बार तो मैं तुम्हें देख भी नहीं पाया-जी भर कर।
फिर तो न तुम्हारी कोई ख़बर आयी ना ही तुमसे बातें कर पाया। बस सुन जाता था किसी-किसी से कि ज़िंदा हो तुम। पर यहाँ तो मैं रोज मरने लगा। आज तक हर रोज़ एक नयी मौत मर रहा हूँ मैं।
आज मैंने तुम्हारे साथ बिताये एक-एक लम्हों को अपने ह्रदय में सांसों के ठीक नीचे तह कर के रखा है। मेरी हर साँस उन सुनहरे लम्हों को छु कर निकलता है। हर रोज उसे झाड़ता-पोंछता हूँ और गिनता हूँ कि कहीं कोई लम्हा खो तो नहीं गया। नहीं, लम्हें तो आज भी वैसे ही सहेज कर रखें हैं मैंने। वो तो नहीं खोये, खो तो बस मैं गया हूँ, इस ज़िन्दगी कि भीड़ में। खोया तो मैंने बस तुम्हे है, अपनी ज़िन्दगी से।
बस अब थक चुका हूँ। अब चाहता हूँ कि मुझे एक और मौत मिले, एक सास्वत मौत, मेरी आखरी मौत। एक उम्मीद-सी थी तुम्हे पा लेने कि, अब तो वो भी टूट गयी। पर यकीन रखो, मैं भले ही मर जाऊँ पर तुम्हारी जो यादें मैंने अपने ह्रदय में सहेज कर रखा है उसे हमेशा जिंदा रखूँगा। उसे कभी मरने नहीं दूंगा।
- अमितेश

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