शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

अव्यक्त

प्रियतम
जानता हूँ
जिस नीलाभ को मै स्पर्श करना चाहता हूँ
वो मेरी ऊंचाई से बहुत ऊँची है;
जिस अनंत को मै प्राप्त करना चाहता हूँ
वो मेरे बूते से बाहर है;
जिस क्षितिज के पार
मै तुम्हारे साथ जाने कि कल्पना करता हूँ
वह दिवास्वप्न कि भांति है;
पर,
तेरा,
मेरे अस्पर्श आलिंगन से,
न चाह कर भी निकल जाना;
मेरे स्पर्श को
एक झिझक के साथ महसुस करना;
मेरे सानिध्य को,
सहमते हुए पाने की चाह -
बार-बार, हर बार
मुझे प्रेरित करती रहती है
अपनी मंजिल प्राप्त करने को...
तुम्हे पाने की मंजिल...!

प्रणयनी,
जानता हूँ,
जिस भविष्य को मैंने कल्पित कर रखा है
वो,
मेरी रेखाओं से परे है;
जिस राग को मै गाना चाहता हूँ
वह, संगीत का आठवां सुर है,
जो अरुनाभित वसंत मेरे मानस पटल पर है
वह यथार्थ से दूर...
बहुत दूर है
पर,
तेरी आँखें,
तेरे होठ
तेरी मुस्कराहट
तेरी जुल्फें
तेरी चंचलता
हर वक्त
मेरी चाह को और प्रबलता देती है...
तुम्हे अपनाने की चाह...!

प्रिया,
नहीं जानता,
हम दोनों एकाकार हो पाएंगे
या, यूं ही अपूर्ण बने रहेंगे
पर,
फिर भी
मुझे तुम्हारा, सिर्फ़ तुम्हारा
इंतज़ार रहेगा,
जीवन की आखरी साँस तक...!

- अमितेश

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