गुरुवार, 20 अगस्त 2009

अभिशाप

बाहर के दृष्य बहुत तेजी से बदलते जा रहे थे। बड़े-बड़े पेड़ों के बीच अचानक धान के विस्तृत खेत आ जाते। कभी बीच में उग आए नारियल और नीम के लंबे पेड़ तो कहीं-कहीं ज़मीन से पेड़ों के साथ ही उग आयी कुछ झोपडियां। कई दफा पेड़ की झुरमुटों से कुछ चेहरे झांक जाते। जैसे मुझे बता रहे हो की हम तुम्हारी कहानी के पात्र हैं। छोटे छोटे घटनाक्रम में हमें फिट करो और उन्हें जोड़ कर एक पूरी कहानी का प्लाट बना लो। एक अमर कहानी। मैं भी उन्हें देख कर मुस्कुरा देता। नहीं, अभी कोई कहानी लिखने का वक्त नही है। पहले मुझे प्रकृति के बनाये पात्रों को समझ तो लेने दो, फिर लिखूंगा कोई अमर कहानी। अभी तो बिल्कुल नहीं।
हाँ, सच ही तो है। यह प्रकृति है जो कई पात्र बना उन्हें आपके आस-पास बिखेर देती है। हम-आप तो बस उन्हीं में से कुछ पात्र चुन कर उसके इर्द-गिर्द बतकही का एक ताना-बाना बुन देते हैं। लो हो गए कहानी तैयार। मैं भीतर-ही-भीतर मुस्कुरा दिया इस विचार पर।
बस अपनी समानुपातिक रफ्तार से चली जा रही थी। खुली खिड़की से हवाएं अन्दर आती हुई मुझे थपकियाँ दे रही थे। जैसे इन थपकियों और अपनी सायं-सायं की लोरी सुना हवा मुझे अपनी आगोश में सुलाना चाह रही हो। एक बेफिक्र नींद। नहीं-नहीं, मुझे तो पेड़ की झुरमुट से झांकते प्रकृति के उन पात्रों को समझना है। तभी तो मैं अपनी कहानी लिख पाऊंगा। नींद को आंखों से झटक मैं फिर से बाहर के बिखरे पात्रों से रु-ब-रु होने लगा, उन्हें समझने की चेष्टा में।
एक तेज़ सडांध से ही फिर अपना चेहरा फेर सका उन भागते दृश्यों से। शायद किसी ने अपने पालतू जानवर को मरने के बाद लावारिस बना हाईवे पर फेक दिया था। भगवान का शुक्र है की मैं इंसान पैदा हुआ। मरने के बाद शायद मैं तो लावारिस नहीं कहलाऊंगा इन पालतू जानवर की तरह। शायद।
उसकी उम्र 15-16 की रही होगी। पक्का सांवला रंग। घुटनों तक बंधी साड़ी। हाथ में लोहे की चूडियों के साथ दो-तीन कांच की चुडियाँ। पेट उसकी गोलाइयों तक उभरी हुई। जैसे एक उबड़-खाबड़ पठारी मैदान का आभास दे रही थी। संथाली लड़की। रिजू थॉमस नाम था उसका शायद, हां यही नाम तो बताया था उसने। पास के ही सीट पर अपनी माँ के साथ बैठी थी वो। माँ, बिल्कुल माँ जैसी ही। नाक में रंग बिरंगे नथ। उलझे से खिचड़ी बाल, पुरानी सी सफ़ेद और नीली बॉर्डर वाली सूती साड़ी, घुटनों तक बंधी हुई, पैरों में रबर के चप्पल। रह रह कर वह रिजू को कोस रही थी। "एक तो गरीबी कम थी जो ये पाप लिए फिर रही है। गांववालों को पता चलेगा तो कौन सा मुँह ले कर उनसे नज़र मिला पाऊँगी। ऐसी ही आग लगी थी जवानी को तो जलती लकडी ठूंस लेती जांघों के बीच।" वह बस मद्धिम आवाज़ में बडबडाती जा रही थी और रिजू जैसे उसकी बात पर ध्यान ही न दे रही हो। वो भी शायद मेरी तरह बाहर के दीखते-छुपते पात्रों में अपने पात्र, अपनी कहानी तैयार कर रही थी।
"बित्ते भर कि छोकरी और ऐसे कारनामे। अब क्या होगा तुम्हारी ज़िन्दगी का। उस हरामजादे ने भी तो तुम्हे अपनाने से इनकार कर दिया है। तेरी एक हरकत ने हमारे पुरे परिवार को नकटा बना दिया। ऐसी कौन सी बूटी खिला दी थी उसने की तू अपने आप को उसके हवाले कर आयी। हे प्रभु, धरती की छाती खोल कर हमें अपने में समा ले या मेरे पुरे गाँव को लील जा। आज तक सर उठा कर जिया है, ज़लालत में मरना नहीं चाहती।"
रिजू अब भी बेअसर बाहर के दृश्यों को निहारती रही। इतनी देर में मैं उब चुका था बुढ़िया कि बक-बक सुन कर। पुरा माजरा भी समझ में आने लगा था। अब तो मैं भी प्रभु से प्रार्थना करने लगा- बुढ़िया कि समस्याओं के निदान के लिए नही। इसलिए की रिजू कुछ बोल और चुप करा इस बुढ़िया को। मैं अपने-आप को केंद्रित नहीं कर पा रहा हूँ बाहर के लुका-छिपी खेलते पात्रों पर। कुछ तो बोल रिजू।
जैसे रिजू ने मेरी बात सुन ली हो। बोल दिया - "येशु भी तो ऐसे ही पैदा हुए थे न माँ। मरियम भी तो बिन ब्याही माँ थी। है न माँ। फिर वो भगवान क्यो है और हम पापी क्यो! क्यो फादर ने इस येशु को गिराने को कहा है उस येशु की प्रार्थना करते हुए! बोल न माँ।"
ऐसा लगा जैसे बुढियां की जुबान मुँह में चोकलेट कैंडी की तरह पिघल गयी हो। बाहर के मेरे सारे पात्र न जाने कैसे गायब हो गए। बस एक मुस्कुराते बच्चे का प्रतिबिम्ब दिख रहा था दूर क्षितिज में, सूरज के ठीक नीचे।
-अमितेश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें