रविवार, 9 अगस्त 2009

सात्विक उपस्थिति

मै अक्सर सोचता हूँ
क्या बितती है उस कली पर
जब कोई
उसकी तारीफ़ के कसीदे गढ़ता है
और
उसकी खूबसूरती को पैबंद कर देता है
अपनी कोट पर,
उसे उसके अपनों से अलग कर के।

तुम कली हो मेरे बागों की।
अफताब-सी तेरी खूबसूरती
हमेशा लुभाती है मुझे,
पर नहीं चाहता अपनी कोट पर तुझे।
चाहता हूँ
बनी रहो मेरे बाग़ में
हमेशा
अपनी खूबसूरती से मुझे लुभाते हुए।
हमेशा...!

मैं अक्सर सोंचता हूँ
क्या गुजरता है बादल के उस बिंदास टुकड़े पर
जो चाहता है
अपना खुद का वज़ूद
अपने अपनों से अलग हो कर।
पर उसके अपने उसे ख़ुद में समेत कर
लगा देते हैं एक पाबन्दी
उसके यूं बेलौस घुमने पर
और मजबूर कर देते है उसे
बिखर कर बरसने के लिए।

तुम बादल हो मेरे ख्वाबों की।
यूं बेवजह भटकना तेरा
किसी अस्पष्ट-सी मंजिल की तलाश में
जगाती है उत्सुकता मेरी
तेरे लिए...!
नहीं चाहता
की मेरे आंगन की नीम में तुम अटक जाओ
और
तेरी आवारगी को छुने के लिए
मैं तेरे बरसने की कामना करूँ।
चाहता हूँ,
बस यूं ही घूमती रहो,
भटकती रहो मेरे ख़्वाबों में,
किसी अस्पष्ट-सी मंजिल की लालसा लिए।
हमेशा...!

मै अक्सर सोंचता हूँ
क्या बितती है सूरज की उन किरणों पर
जो खिड़की की झिर्री से आकर
बताती हैं
कि दर्ज कर सकती हैं वो अपनी उपस्थिति
किसी बंद से भी कमरे में।
पर
लोग उसे पकड़ न पाने कि कुंठा में
खींच लेते हैं परदे, खिड़कियों के।

तुम किरणें हो उस सूरज की
जो मेरे ह्रदय में तिर आयी है
एक पतली लकीर की तरह,
मेरे ह्रदय के झरोखे से।
नहीं चाहता
कि समेत लूं तेरे सम्पूर्ण आकार को
अपने ह्रदय में,
खोल कर उसकी खिड़कियाँ सारी।
चाहता हूँ
बस यूँ ही
तिरी रहो मेरे ह्रदय में
रोशनी की रुपहली लकीर बन कर
और
मै आजन्म
करता रहूँ चेष्टा
अपनी मुट्ठियों में तुझे भरने की।
हमेशा...!

-अमितेश

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