गुरुवार, 30 जुलाई 2009

मूल्यांकन

जब जब करता हूँ अपना मूल्यांकन,
पाता हूँ अपने-आप को
समुन्द्र के किनारे पड़े
शैल की तरह।
आती हैं लहरें बार-बार,
और मेरी कठोरता पर
करती हैं अट्टाहास।
जानता हूँ
एक दिन रेत में तब्दील हो जाऊँगा मैं
इन बेलौस लहरों से टकराकर।
लेकिन मैं ये कैसे भूल जाऊँ
की ऊंची लहरें मुझसे टकरा कर
अपनी शक्ति क्षीण कर जाती हैं
बार-बार।

जब-जब करता हूँ अपना मूल्यांकन
पाता हूँ अपने-आप को
एक निर्जन टापू पर खड़े
पेड़ की तरह।
हर दुसरे पल आता है
समुंद्री तूफ़ान
और
मुझे घुटनें टेकने पर मजबूर कर
चला जाता है।
जानता हूँ,
एक दिन,
इन तूफानों से टकरा कर
अपने-आप को मिट्टी में मिला पाऊँगा।
लेकिन
मैं ये कैसे भूल जाऊँ
की
बार-बार आता तूफ़ान
मेरे पैरों को
और मजबूती दे जाता है
और
हर बार
लौट जाता है तूफ़ान
मेरी मजबूती देख कर।

जब-जब करता हूँ अपना मूल्यांकन
पाता हूँ अपने-आप को
नीलाभ की तरह।
एक क्रमिक अंतराल के बाद
सात घोड़ों पर सवार सूरज
छीन लेता है मेरी नीली चमक
और
दे जाता है मुझे
नि:स्तब्ध कालिमा।
लेकिन
मैं ये कैसे भूल जाऊँ
की
एक क्रमिक अंतराल के बाद ही
अपनी आत्मबल के बूते
मैं फिर पा लेता हूँ
अपनी नीली चमक।

सदियों से,
मुझे काल-कवलित करने का प्रयत्न
करती आ रही है प्रकृति
और बार-बार
अपनी सारी शक्ति बटोर
मैं देता आ रहा हूँ चुनौती
इन प्राकृतिक झंझावातों को।

-अमितेश

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