रविवार, 26 जुलाई 2009

आत्म मंथन

जब फासले तय करते करते
पैर लम्हों में उलझने से लगते हैं
जब दूर क्षितिज को छूते-छूते
आंखों में पानी सागर से उमड़ने लगते हैं
जब अपरिचितों से मिलते-मिलते
रिश्ते अपनी पहचान खोने लगते हैं,
मैं थका-सा महसूस करता हूँ
अपनी ज़िन्दगी से।

जब आंखों के नीर
सैलाब बन उमड़ने लगते हैं
जब ह्रदय की शिराये
संकुचित हो सिमटने लगते हैं
जब सांसों की रफ़्तार
चलते-चलते बहकने लगते हैं
मैं थका-सा महसूस करता हूँ
अपनी ही ज़िन्दगी से।

जब मेरी अपनी अभिलाषाएं
अपनी मर्यादा का उल्लंघन करने लगती हैं
जब मेरे अपने सपने
मेरी सोंच का दामन झटकने लगती हैं
जब मेरी भावनाएं
मेरे पहलू से बिखरने लगती है
मैं जमा सा महसूस करता हूँ
अपनी ही ज़िन्दगी में।

नहीं जानता क्या कहते हैं इस अवस्था को
जानता तो हूँ बस यही
की यह अवस्था है
खुद में बसे "मैं" को जानने की
अपने आप हीं से, अपने को रू-ब-रू करने की.

- अमितेश

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