बुधवार, 29 जुलाई 2009

मैं, मेरी कविता

कभी ज़र्रा कभी आफताब
कभी आसमां कभी शबाब बना
अपनी कविता में।

कभी सागर कभी साहिल
कभी क़गार कभी धार बना
अपनी कविता में।

जब-जब याद आता था तुम्हारा साथ
जब-जब सताती थी तुम्हारी याद
कभी आंसू कभी लहू
कभी नगमें कभी साज़ बना
अपनी कविता में।

यु ही घूमना सड़कों पर बेवज़ह
अनजाने में छु जाना तेरे हाथ का
लड़ना बेबात की बातों पर हमारा
याद कर हर बार
कभी कसमे कभी वादें
कभी वफ़ा कभी बेवफा बना
अपनी कविता में।

घंटों बैठे रहना आसमां को तकते
चुप बैठ कर भी बातें करना आंखों से
फिर नज़रें चुराना एक दुसरे से
और भरना आहें अकले में
कभी परिंदें कभी कलियाँ
कभी इन्सां कभी खुदा बना
अपनी कविता में।

रात भर तुम्हारी बातें करना चाँद से
निहारते रहना रस्ते तेरे घर के
खो जाना तेरी याद, तेरी सपनों में
सितारों भरे असमान के तले
यूं ही
कभी जुगुनू, कभी खुशबू
कभी नज़्म, कभी बज्म बना
अपनी कविता में।

- अमितेश

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