शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

बचपन

शाम के धुंधलके में
खिड़की से बाहर झांकते हुए
देखता हूँ बादल के मासूम टुकड़े को
आपस में अठखेलिया करते हुए।
शायद मैंने भी खेली होगी अठखेलिया ऐसे ही
अपने बचपन के दिनों में।
याद आता है बचपन, मेरा बचपन
और तलाशता हूँ अपने बचपन को
बादलों के उन मासूम से टुकडो में
खिड़की से बाहर झांकते हुए।

फूलों का भंवरो के ताल पे मटकना
चिडियों का बेबात की बातों पर चहकना
अस्त होते सूरज की किरणों का
डूबते हुए भी ना जाने क्या मेरे चहरे पर तलाशना
न जाने क्यों
खिंच ले जाता है मुझे
मेरे अतीत में।

कागज़ के नाव पर,
बरसाती पानी में
न जाने कितने जहाँ की सैर की थी मैंने
शायद समुन्दर भी न दे पाए वो रास्ता
दुनिया देखने के लिए।

सर्दी की सर्द रातों में रजाई के भीतर दुबक कर
न जाने कितनी परियो से बात की थी
झींगुरों की ताल और जुगनू की रोशनी में
न जाने कितने स्वप्न लोक घूम आया था मैं।

गर्मी की रातों में
आसमान की ओर मुँह कर के
न जाने कितने नक्षत्र लोक में गया था मैं
सितारों के साथ
चाँद की किरणों पर सवार हो कर।

वो बचपन, मेरा मासूम बचपन
तब शायद मैंने ज्यादा देखी थी दुनिया
ख्वाबो की दुनिया।

खिड़कियाँ तो आज भी मेरे घर की उधर ही खुलती हैं
पर क्यो बदल गया है मौसम
खिड़की के बाहर का!
या शायद,
वक्त के साथ मुझमे,
खिड़की के भीतर के हालातों में ही
बदलाव आ गया है!
- अमितेश

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