गुरुवार, 2 जुलाई 2009

सत्ताईस सदियों का फासला

याद आता है
कुछ सदी पुरानी वो बात
वो दिन, वो रात
जब हम दोनों प्रकति की आगोश में
एक दुसरे से मिले थे
जब हवाएं भी बोझिल हो
टुकडो में बह रही थी
जब सूरज
अपनी परछाइयो से पार पाना चाह रहा था
तुमने मुझसे मेरी नजदीकी मांगी थी
इतनी नजदीकी की दूर जा पाना नामुमकिन हो
जब शाम अपने में ही शरमाई गुलाबी हुई जा रही थी
जब परिंदे आवारगी की हद तक
अपने नीड़ की तलाश में बिखरे - बिखरे उड़ रहे थे
तुमने कहा था
हमारा रिश्ता सात जन्मो का नहीं
सत्ताईस सदियों का है

तब हवाओ ने अपना रुख बदला
और सूरज अपनी परछाइयो के पार हो आया

मैं आज भी साल दर साल जी रहा हूँ
सत्ताईस सदियों तक
तुम्हारे साथ सत्ताईस सदी तक जीने की आस में.
-अमितेश

2 टिप्‍पणियां:

  1. Extremely nostalgic... this poem is the type which will remind each reader of a promise made and not yet fulfilled. of every dream abandoned because of helplessness.

    At least, in my case, it made me nostalgic AND happy.. happy because, maybe there will be 27 centuries after finishing this one life.. Amen

    thank you for giving a hope!! :)

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