सोमवार, 27 जुलाई 2009

अन्वेन्षण

बार-बार तलाशा मैंने,
अपने आप को तुम में,
बार-बार तुम्हारी "फेन सी सफ़ेद आंखों" से
झांका तुम्हारे दिल में,
शायद एक कोना हो मेरे लिए,
शायद अपनी सारी दुनिया को समेटे अपने आप में,
मिल जाऊ,
तुम्हारे दिल के किसी स्याह-से कोने में।
पर तुमने अपनी आँखें भींच लिए।
शायद मुझे छुपाना चाहती थी,
मेरी ख़ुद की नजरो से,
शायद!

समय की मुट्ठी से वक्त का एक टुकड़ा छिटका
मुझे तुम्हारी फेन-सी सफ़ेद आंखों में
दिखा एक मरीचिका
कुछ-कुछ मुझसे मिलता-सा,
या शायद मैं ही था
तुम्हारी फेन-सी सफ़ेद आंखों में।
तुमने फिर अपनी आँखें भींच लिए
कस कर,
तुम्हारा यह प्रयास,
मुझे अपने में छुपाने का था
या
मुझे मुझसे ही चुराने का,
नहीं जानता।
पर,
मुझे अपने-आप में समेट लेने की
तुम्हारी कोशिश
बार-बार मेरे वजूद को बताती है
तुम्हारे भीतर।
मैं शायद
हूँ तुममे कहीं तुम्हारे भीतर।
पर क्यों
मैं ढूंढ़ नहीं पा रहा
अपने-आप को तुममें,
क्यों!!
क्यों, अपने-आप को छुपाती हो मुझसे,
क्यों मुझे छुपाती हो, अपने-आप से!
क्यों नहीं देखने देती,
अपने ह्रदय के भीतर
अपनी फेन-सी सफ़ेद आंखों से।

चाहता हूँ तुम्हारा एक हिस्सा बनू,
नितांत तुम्हारा हिस्सा!
चाहता हूँ लोग तुझ में मुझे,
मुझ में तुम्हें तलाशें।
चाहता हूँ एकाकार हो जाएँ
तुम-हम, हम-तुम

क्यों चुप हैं
तुम्हारी फेन-सी सफ़ेद आँखें,
क्यों कुछ प्रतिक्रिया नहीं देती,
कुछ बोलती क्यों नहीं
तुम्हारी फेन-सी सफ़ेद आँखें!

-अमितेश

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