रविवार, 26 जुलाई 2009

कहानी अभी अधूरी है...

कभी कभी अतीत के झरोखों से झाकते हुए कुछ ऐसे झरोखे दिख जाते हैं जो अपने पार कुछ सुनहरी यादों की चमकीली रोशनी दिखा जाते हैं। ऐसी रोशनी जो कभी चेहरे पर पड़ कर आंखों में चमक सी पैदा कर जाती है।
सुनहरी यादें, हां वो सुनहरे पल ही तो थे जो आज अरसे बाद मेरी आंखों में फिर से उस चमक को लौटा लाये थे।

अपनी अतीत के पन्ने पलटते हुए अचानक ही एक पन्ना मेरे हाथों में आ गया और वह पन्ना, अतीत का पन्ना साथ ले आया कुछ सुनहरी यादें। उस पन्ने में दिख गयी उस पगली की आकृति और उसके साथ गुजारे गए मेरे कुछ अच्छे पल। हां, पागल ही तो थी वो। अपनी धुन में मगन। न किसी से कुछ लेना-देना, न किसी से कोई मतलब। लेकिन उसकी उपस्थिति हर किसी के चेहरे पर एक सुनहरी मुस्कान फैला जाती। हमेशा उसके पास कोई सवाल होता जिसका जवाब तो शायद किसी के पास नहीं होता पर सोचते सभी थे उसके सवाल पर। यह जानते हुए भी की सोचने के बाद भी जवाब नहीं दे पायेंगे उसे।

अक्सर हम दोनों घंटो बैठा करते साथ-साथ। अपनी धुन में मगन वो बस पूछती रहती मुझसे और मैं मुस्कराता, खेलता रहता उसके सवालों के साथ। अक्सर कहा करती, मुझे तुम्हारे पास बैठना अच्छा लगता है। मैं भी कैसे इनकार करता की मुझे भी उसका साथ अच्छा लगता है। कह नहीं सकता की मेरे मन मैं उसके प्रति कुछ भावनाएं थी भी या नहीं। पर हां जगह तो थी उसकी मेरे मन के किसी स्याह से कोने में। उसने तो अपना पूरा विश्वास ही जैसे मुझे दे डाला था। मैंने भी कभी उसकी पवित्र आस्था के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश नहीं की थी। बस बातें करता उससे। समझने की कोशिश करता उसे। लेकिन हर बार नाकाम ही होता था। शायद तब ही जान पाया था की कितना मुश्किल है एक लड़की को समझना।

वो तब आयी थी मेरे जीवन में जब शायद मेरी ज़िन्दगी जीने की जिजीविषा ख़त्म सी हो गयी थी।आज भी याद आती है उसकी आँखे जो मुझमे ज़िंदा रहने का जज़्बा पैदा कर जाती थी। उसकी बच्चो सी हंसी जैसे मेरे जीवन के खामोश तारो में सरगम पैदा कर जाती। हंसते समय अक्सर उसकी आँखों में पानी की एक महीन परत जम जाती थी और मैं तो बस उस पानी की महीन परत में अपने आप को डूबता-सा महसूस करने लगता। कैसे कह दू की मेरे भीतर भावनाए नहीं थी उसके लिए। हां, उन भावनाओं को आज भी परिभाषित कर पाना मुश्किल है शायद।

उसके सानिध्य में जो एक लगाव, एक अपनेपन की गर्मी थी उसे शायद मैं आजन्म नहीं भूल सकता। कई दफा अनजाने में उसका छु जाना, इत्तफाकन उसकी सांसों को महसूस करना, मेरी नज़रों का अचानक ही उसके चेहरे पर जम सा जाना, आज भी याद करके पुरे शरीर मैं एक झुनझुनाहट-सी पैदा हो जाती है। उन लम्हों में उसके चेहरे पर अचानक ही बदल आते भाव मुझे एक पल को उसके और करीब आ जाने को उत्साहित कर जाते। पर नजदीकी कहीं उसे मुझसे दूर न कर दे ऐसा सोच कर मैं अदृश्य-सी मर्यादा को पार करने की चेष्टा भी नहीं कर पाता था।

हां याद है मुझे जब मैंने उसे प्यार से "प्रीतू" कह कर पुकारा था और जैसे वह इसी एक नाम के लिए अरसे से तरस रही थी। इतना भा गया था उसे यह नाम की हमेशा वह इस इंतज़ार में रहती की मैं उसे प्रीतू कह कर पुकारू और वह उस पल को जी भर कर जी ले।
याद है मुझे जब पहली बार उसने मुझे "साहब" कह कर पुकारा था। कैसे भूल सकता हूँ उसके चहरे पर अचानक ही बदल आये भावों को जब-जब वह मुझे साहब कह कर पुकारती। जीने की तो मैं भी पुरजोर कोशिश करता था उन लम्हों को जब वह मुझे अपने दिए गए नाम से पुकारा करती।

नहीं जानता आज अचानक उसके साथ के सुनहरे पल की याद मेरे जहन में कैसे आ गयी। नही जानता उसे भी आज याद आती है या नहीं अपने अतीत की जो शायद उसके भी सुनहरे अतीत थे। पर मुझे आज भी याद है वो शाम जब शायद हम हमेशा के लिए एक-दुसरे से जुदा होने जा रहे थे, एक ही राह पर चलते हुए पर बिलकुल ही जुदा मंजिल की ओर। याद है मुझे जब वो मेरे इतने करीब बैठी थी उस शाम की उसके रोएं मेरे दिल में एक चुभन पैदा कर रही थी और मेरे दिल की धड़कने वह अपने सीने में महसूस कर रही थी।

उसकी जिन आँखों में झांकना हमेशा मुझे भाता था, आज उन्ही आँखों से नज़र मिलाने की हिम्मत मुझमे नहीं आ रही थी। जिन आँखों में अक्सर हंसते वक़्त पानी की एक महीन परत जम जाया करती थी उन्ही आँखों में उस शाम फिर मैंने पानी की एक महीन परत देखी। पर काफी झाँकने के बाद भी हंसी का नामों-निशान नहीं दिख पा रहा था। उसकी आँखों में जम आयी पानी की वो महीन परत जैसे सात जहान के समुन्दर के पानी से भी ज्यादा थे। अपने आपको जैसे सँभालते हुए उसने फिर से एक ऐसा सवाल पूछा था जिसका जवाब न शायद मेरे पास था ना ही उसके पास - "साहब क्या हम आजन्म साथ नहीं रह सकते!"
प्रीतू नहीं जानता मैं यह संभव है या नहीं, हां इतना ज़रूर कह सकता हूँ की हम आजन्म एक-दूसरे की यादों, सुनहरी यादों के साथ रह सकते हैं।
हर बार वह इसी एक सवाल को मुझसे अलग-अलग अंदाज़ में पूछती रही उस शाम और मैं एक ही लहजे में एक ही जवाब उसे दे पाया। उसके इस सवाल का जवाब न तब मेरे पास था ना आज ही मेरे पास है।
तब चुपके से उसने अपने दुपट्टे से कागज़ का एक कोरा-सा टुकड़ा निकाल कर मेरी ओर बढा दिया था और कहा था - "साहब इस पर तुम्हारी प्रीतू की सारी अवयक्त भावनाए लिखी हैं, पढ़ सकते हो तो पढ़ लेना।"

वो कोरा-सा कागज़ का टुकड़ा आज भी मेरे पास है जिसे इन अरसो में कई दफा पढने की कोशिश की मैंने। लेकिन कुछ भी पढ़ पाने में सक्षम नहीं हो पाया। हां, जब-जब पढने की चेष्टा की मैंने, मेरी आँखों में पानी की महीन परत जम आयी।
आज फिर से वही पानी की महीन परत मेरे आँखों में आ गयी और धुंधलाते से मेरे सुनहरे पल, उसके साथ के पल, बिखर से आये, मेरी आँखों के सामने...!

- अमितेश

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