रविवार, 17 मई 2020

नर्मदा नंदलाल

जैसे विभाजन के मंजर चारो ओर तिर आये थे। जहाँ देखो लोग अपने जानोंमाल संभाले भागे जा रहे थे। अपना खुशहाल आशियाना उजाड़ नए नीड़ की तलाश में चले जा रहे थे। कि नया घोंसला शायद ज़िन्दगी से ज्यादा रूमानी हो। हालाँकि भीड़ कुछ ज्यादा नहीं थी। पर फिर भी भीड़ सा लग रहा था। जिन खेतों में कभी ये काम के पौधे थे, आज खर - पतवार सी ज़िन्दगी जीने पर मजबूर थे। जिस शहर की इमारतों की ईंटों पर कभी अपने पसीने की इबारतें लिखी थी, आज वो ही उन्हें नाकारा कर गए थे। जहाँ की फ़ैक्टरिओं के हर कल पुर्जों में उनके हाथों की छाप थी, आज जैसे सारे निशान मिटा दिए गए थे। जिस शहर को अपनाये बैठे थे आज वो ही उन्हें बेगाना कर गया था। 

ऐसा नहीं की सरकार ने मदद करने कि कोशिश नहीं की थी इन लोगों की पर उतना ही कर पायी जितना उस छन्नी से छन कर आ पाया जिसकी हर छेद को भ्रष्टाचार की मिट्टी ने भर रखा था। इनके पेट तो खाली रह  गए, गरचा उनके पेट के कुएँ राहत पा कर और गहरे, गुलज़ार हो गए। 

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कहते हैं कि बाहर एक ऐसी बीमारी ने अपना आधिपत्य जमाया है कि प्रकृति की सबसे अप्रतिम रचना, मानव भी असहाय बना फिर रहा है। आज शहर - सड़के वीरान अपने अनजाने पथिक की बाट जोहे जा रही है। और ये अप्रतिम रचना बेबस सा घरों में रहने को मजबूर हो आया है। पर वो तो फिर भी रह सकते थे अपने घरों में जिनके रहने के दरमियान एक घर की चारदीवारी और छत मयस्सर थी, कुछ जमापूंजी थी। ये लोग जो सड़को पे बदहवास से चले जा रहे हैं, ये जैसे शहर के किरायेदार भर थे, जिनकी छतें और चारदीवारी पे भी उनका अख़्तियार न था। जमापूँजी भी इतनी कि हफ्ते के सात दिन ना गिन पाए। और अब तो दो हफ्ते निकल आये थे। 

इन्हीं लोगों की भीड़ में एक बिसेसर भी था। कई सपनों को अपनी बैग में भर कर इस महानगर में आया था। कुछ पूरे भी हुए। कुछ और शायद पूरे हो भी जाते जो ये महामारी ना फैलती। कभी सोंचा नहीं था बिसेसर ने कि वो अपने दादाजी की जिंदगी जियेगा। उसके दादाजी अक्सर प्लेग के बारे में बताते रहते की कैसे इस महामारी ने गांव के गांव लील लिया था। कैसे इंसान जिंदगी बचाने की जद्दोजदह में खपे जाते थे। कैसे महीनों लोग बिना ख़ुशी और मुस्कराहट के जीते थे। कई कहानियां सुनते हुए बड़ा हुआ था वो उस दौर की। आज जैसे वो अपने दादाजी की जिंदगी ही जी रहा था। शहर के शहर तबाह हो रहे थे और बिसेसर की कहानियों के पिटारे में कुछ किस्से जुड़ते जा रहे थे। इस बीमारी ने गावों को तो अभी बख़्स रखा है, शहर ही वीरान किये जा रहा था।

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बिसेसर को बचपन से ही किस्से कहानियों में मन लगता था। कुछ सुनता, कुछ पढ़ता, तो कई जीता था। दिनकर, प्रसाद, महादेवी, रेणु, शुक्ल और ना जाने कितने ही साहित्यकारों को पढ़ा - समझा था। बस जो पढ़ना था वही नहीं पढ़ा था। मैट्रिक पास करते - करते तो जैसे उसकी सांसे उखड़ने लगी थी। घरवालों ने कहा कि कुछ रोज़गार कर ले। जिंदगी कट जाएगी। मजदूरी करना नहीं चाहता था की मैट्रिक पास है, और कुछ आता नहीं था कि ताउम्र किस्सागोई ही की थी। अब जो कर सकता था वो वही जो उसका पुश्तैनी था - नाई का काम। वो तो सीखने की ज़रूरत भी नहीं थी उसे, ये कला तो उसके खून में थी। बचपन से उसने अपने बाप दादाओं को यही करते देखा था, कैंची की कच - कच उसके कानों में मधुर मल्हार बिखेरती थी। फिर उसकी किस्सागोई तो इस व्यवसाय में गरम मसाले की तरह थी। कुछ अच्छा करना था सो इस महानगर में आ गया। कुछ पूँजी लगा कर एक सैलून खोला भाड़े की जगह ले कर और जुत गया इस जिंदगी की कोल्हू में। ठीक ही पैसे बनाने लगा था वो। इतना की बाइज्जत शादी कर सकता था। किया भी। बिसेसर परिणयनित हो गौरी को इस महानगर की चकाचौंध में ले कर आ गया। सब ठीक चल रहा था। गौरी ने बिसेसर के घरवालों को पहले साल में ही खुशखबरी सुना दी। बड़ा सुघड़ नंदलाल पैदा किया था उसने। बिसेसर ने नंदलाल ही रखा था उसका नाम। उन्हें लगा कि नंदलाल का आगमन उनकी जीवन में नयी ऊँचाइयाँ, नयी खुशियां लाएगा। पर लाया कुछ और ही - दूर देश की बीमारी। 

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बिसेसर जीने की जद्दोजदह में अपने परिवार के लिए रोज मर रहा था। परिस्थितियां इतनी विकट की सारी जमापूंजी इस बीमारी के नाम भेट हो गयी। आय के सारे स्रोत बंद हो गए थे, व्यय के रस्ते नंदलाल ने बढ़ा दिए थे। जो कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया था वो आज घंटो सरकारी राशन की दूकान के सामने खड़ा रहता। दूकान का बाबू लोगों को झिड़क के ऐसे सामान देता जैसे सरकार से ज्यादा इनका अहसान आमलोगों पर ज्यादा हो। जैसे ये अनाज इनके बाप दादाओं की जायदाद से जा रहा हो। 

नमक भात खाते - खाते एक दिन बिसेसर ने ठाना कि गांव वापस चले जाते हैं। वो अपनी मिट्टी है, अपनों का क़द्र जरूर करेगी। इस शहर ने आजतक बेगाना ही कर रखा है। वहीं जा कर जिंदगी फिर से शुरू करेंगे। वहाँ की खेत, वहाँ का चौपाल, वहाँ के लोग और वहां की खुशियों में क्षणभंगुरता तो नहीं होगी। भले दो पैसे कम मिले, खुशियां तो आह्लादित करती रहेंगी। नंदलाल की परवरिस भी ज्यादा बेहतर हो जाएगी। 
यही सोंचते सोंचते वो ट्रांसपोर्ट नगर पहुंच गया था। चारो ओर कई ट्रक बेतरतीबी से बिखरे पड़े थे और उनसे भी ज्यादा लोग थे जो शायद बिसेसर की सोंच लिए यहाँ तक पहुंचे थे। 

बिसेसर के पास वो आखिरी के दो हज़ार बचे थे उसकी जमा पूंजी के। उसे हाथ में भींचे वहाँ चला आया था। इस शहर में शायद यह उसका आखिरी निवेश था। वहाँ कल का दिन मुक़र्रर किया गया था उसके नए सपनों को उड़ान देने के लिए। ट्रक वालों ने कहा की ट्रक में कुछ सामानों के साथ उन सब को जाना होगा। शहर की हद में ऊपर में प्लास्टिक की चादर ढंकी होंगी। हाईवे पर उसे थोड़ा हटाया जायेगा। पुलिस का पहरा बहुत है तो सावधानी बरतना अनिवार्य है। कई और लोग रहेंगे तुम्हारे साथ। ट्रक तुम्हारे जिले की हाईवे पे छोड़ देगा। उसके आगे का सफर तुम्हारा है। इन सारी शर्तों पे बिसेसर ने सर हिला कर सहमति दे दी थी। यही वो कर सकता था। आज की परिस्थितियों में जो सहूलियत दे रहा था, शर्त बनाने का अधिकार भी उनके पास था। यही ट्रक वालों ने किया। सवारी बस सहमति दे सकते थे। बिसेसर यह समझ चुका  था। 

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                                "बेद हकीम बुलाओ कोई गोइयाँ 
                                 कोई लेओ री खबरिया मोर। 
                                 खिरकी से खिरकी ज्यों फिरकी फिरती 
                                 दुओ पिरकी उठल बड़ जोर।।"

जो ट्रक अब तक सामान ले जाने का आदी था, आज वो इंसानों को ढो रहा था ... सामान की तरह ही। सामानों के बीच इंसान सामानों के समान धंसे हुए थे। दोनों के बीच अंतर करना मुश्किल था। बिरहा गा कर ये लोग अपने गम को गीतों तक सीमित रखने की कोशिश कर रहे थे। इन्हीं लोगों के बीच बिसेसर गौरी और अपने दुधमुँहें बेटे के साथ पड़ा था। दिल में भले ही जलन थी सब कुछ पीछे छोड़ जाने की पर आँखें सुनहरे भविष्य कि आस में चमक रहे थे। ऊपर प्लास्टिक छत की तरह पसरा था। प्लास्टिक की वजह से खासी उमस भरी थी ट्रक में। सांस लेना भी थोड़ा मुश्किल हो रहा था अंदर। इस शहर में भूख लोगों को खींच लायी थी, आज भूख की वजह से पुनः विस्थापित हो रहे थे, सो साँसों की फिक्र किसे थी। पर ये विस्थापना की शर्त नंदलाल पर सम्प्रयोजित नहीं होती थी। वो तो इस जहाँ में अभी आया ही था। कम से कम इस जहाँ की हवा पर तो उसका अख्तियार था। पर आज की परिस्थितियों में वो भी उसे पूरी नसीब नहीं हो पा रहा था। बेतरतीब रोये जा रहा था। गौरी ने जैसे अपनी छाती निचोड़ डाली थी उसके लिए। काश की आज उसे अपने हिस्से की हवा दे पाती। 

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ट्रक अपनी रफ़्तार में थी। बिरहा के धुन लगातार बहे जा रहे थे। नंदलाल अपनी पूरी सांस बटोर कर रोता जा रहा था। गौरी अपनी आंसुओं से उसे सिंचने की कोशिश कर रही थी और बिसेसर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा समझ नहीं पा रहा था कि क्या अपराध था उसका की उसकी आंच में उसका परिवार तपा जा रहा था। जो थोड़ी सी जगह छोड़ी गयी थी प्लास्टिक की चादर में वो अन्य के सांस लेने के लिए पर्याप्त हो सकता था, एक दो माह के बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं था। बच्चा थोड़ी देर रोते रोते चुप हो गया। लगा की थक कर सो गया है शायद। गौरी ने उसे अपनी छाती से लगाए रखा। बिसेसर को थोड़ी चैन आयी। 

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"अरे मेरा बच्चा... " एक तेज़ चित्कार ने नींद में डूबते उतरते लोगों को चौका दिया। सारे हड़बड़ा कर आवाज की दिशा में देखने लगे। गौरी ने नंदलाल को कस कर भींच रखा था। अनवरत रोये जा रही थी। नंदलाल का पूरा शरीर ठंढा पड़ गया था। दो माह के सुकुमार बालक के लिए इतनी लम्बी यात्रा, इतनी कम हवा झेल पाना मुश्किल था। भेड़ बकरियों की तरह की इस परिस्थिति में जीने की आदत नहीं थी उसे। वो इस उम्र में जिंदगी की जंग को ज्यादा लम्बे समय तक झेल नहीं पाया। बिसेसर पत्थर हो गया था। समझ नहीं पा रहा था कि ये क्या हो गया है उसके साथ। गौरी पुरे आवेग में रुदन कर रही थी। उसकी अवस्था पत्थर को भी पिघला कर मोम बना दे। बिसेसर बुत ही बना रहा। किसी ने झकझोर कर बिसेसर को उसकी करुण तन्द्रा से बाहर निकाला - "अरे बिसेसर बच्चा को अपने अंक में ले ले। गौरी उसे देख देख रोती रहेगी और तुम्हारे गांव आने तक तो भगवान् ना करे अनर्थ हो जायेगा।"
किसे तरह बिसेसर ने नंदलाल को अपने हाथों में ले लिया। नंदलाल का चेहरा देख बिसेसर अपने आपे में ना रह पाया। 
"हाय रे मेरा बच्चा। मेरा सुकुमार। कैसे मर गया रे तू। नहीं नहीं ये मारा नहीं है, अपने पिता के हाथों मारा गया है। इसकी हत्या हुई है। मैंने मार दिया अपने नंदलाल को। मैंने अपने हाथो अपना कुल दीपक बुझा दिया। मै हत्यारा हूँ। मेरा लाल।" ना जाने क्या क्या अनर्गल बोले जा रहा था। ट्रक में बैठे लोग और सामान, सब असीम करुणा में डूबे बैठे थे। सारे लोग अपने आसुओं पे काबू पाने के चेष्टा में थे। कुछ सफल नहीं हो पा रहे थे। जैसे आंसुओं का सैलाब इस ट्रक, ये रस्ते, इस जहाँ, सब को बहा ले जाये। 
रामसरुप ने खींच कर नंदलाल को बिसेसर की गोद से खींच लिया। उस मासूम को देख कर एक बार तो उसका ह्रदय भी फट गया। लगा वो भी चीत्कार कर के रोये। एक तो अपने गम ही कम थे जो ये भी देखना पड़े। नहीं, इस बच्चे का हत्यारा सिर्फ बिसेसर ही नहीं, हम सब हैं। किसी तरह अपने आप पे काबू पा सका रामसरुप। 
"बिसेसर अभी अपने शहर पहुँचने में तीन दिन का वक़्त और लगेगा। तब तक तो बच्चे का शरीर ख़राब हो जायेगा। देख हम अभी नर्मदा जी के ऊपर से गुजर रहे हैं। अपने नंदलाल को उनके हवाले कर दे। अब नर्मदा मैया ही इसे तर्पण देगी।"
वो एक एक शब्द बिसेसर की कानों में जहर की तरह घुल रही थी। कभी लगा की रामसरुप पगला गया है। बोलता है अपने जिगर के टुकड़े को नर्मदा में बहा दे। उसका बच्चा नहीं है ना इसलिए ये बोल रहा है। की दूसरे क्षण में लगता कि रामसरुप ठीक ही कह रहा है। अब तो नंदलाल हमारा रहा ही नहीं। कम से कम उसका अंत तो हम सुखकर रखे। करुणा के उसी आवेग में बिसेसर ने अपने नंदलाल को रामसरुप की गोद से ले लिया। उसे पागलों की तरह चूमता रहा। उसके तेजश्वी चहरे को अपलक निहारता रहा। 

"छपाक"

"नर्मदा मैया की जय। जय नंदलाल।"

ट्रक अपनी गति में बढ़ा जा रहा था। आगे के रस्ते, पेड़ सबकुछ तेजी से पीछे की ओर छूटते जा रहे थे। नंदलाल भी पीछे रह गया था अब... आगे करुणा, क्रंदन और अपने संतापित माँ बाप को छोड़ के...


- अमितेश

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