रविवार, 11 अगस्त 2013

बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं

बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं

ना कोई राह अब ना मंज़िल है पता
सुनी सी आँखों में सुहानी यादें है बसा
तेरे होने का अब आभास भर है बचा
बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं

तलाशता हूँ बसंत अपने जीवन के पतझड़ में
शायद सूरज फिर चमकेगा
जो कल गया था गंगा की इक छोर पे डुबकी लगाने
फिर सुबह, सुबह सी चमकीली होगी
शायद फिर उन आड़ी तिरछी पगडंडियों की
सोंधी खुशबु महकेगी
फिर गुलाब अपनी शबाब पे होगा
फिर छुई मुई सी ज़िन्दगी
अपनी खोई तंद्रा पा लेगी

खुली आँखें भी अब इन सपनों पे शक़ करते हैं
हाँ जानता हूँ मैं ये की
तेरे होने का अब आभास भर है बचा
बस तुम हो और ये तन्हाईयाँ हैं.


- अमितेश 

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