बुधवार, 25 दिसंबर 2019

वो लड़की

हाँ ये मैं हूँ। मेरा कोई भी नाम हो सकता है। अगर नाम होना अपने होने के एहसास को जीवित रखता है तो मेरा नाम कामना है। हालाँकि इन दिनों नाम को आत्मसात करने की भावना अब मर चुकी है मुझमें।  ऐसा नहीं कि ये हमेशा से था।  पर अब बस मर गई सो मर गई।  

क्यों... 

इसका जवाब नहीं है मेरे पास। मैं ढूँढना भी नहीं चाहती। पता नहीं मेरी जीवन से क्या अभिलाषा है। नहीं जानती मैं हर एक व्यक्ति से क्या चाहती हूँ। पता नहीं मेरी हर क्षण से क्या अपेक्षाएं हैं। कभी - कभी लगता है कि  मैं सच में जीवित हूँ भी या बस ऐसे हीं एक मृत शरीर और मृत मन लिए घूम रही हूँ। ऐसा लगता कि मैं अदृष्य हूँ इस जहाँ में। किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता मेरे होने और ना होने से। शायद मुझे भी फ़र्क़ नहीं पड़ता इस बात से अब। 

ऐसा भी नहीं कि मैं हमेशा एक मृत देह, मृत मन हुआ करती थी। मेरे भीतर भी जीवन था कभी। एक सतरंगी जीवन... सौ रंगों वाला जीवन। कामनाओं से भरा जीवन। कामनायें इतना कि लगता एक जीवन थोड़ा कम हीं पड़ेगा मुझे। माँ भी मुस्करा देती ये सुन कर। हाँ तब मैं बस 15 की थी। एक उम्र जो बचपन और जवानी के बीच की दहलीज़ होती है। जब लड़की अपने लड़कपन और परिपक़्वता के बीच झूलती रहती है। कई दफा अल्हड़पन में भी परिपक़्वता दिख जाती तो कभी परिपक़्वता भी अल्हड़ लगती। माँ जानती थी इस अवस्था को। अनुभव था उन्हें इस बात का। हां मैं भले नहीं समझ पाती उस समय इन बातों को।

अक्सर माँ से कहती - "माँ तुम बहुत भोली हो, बिलकुल भी नासमझ हो।"

आज समझती हूँ इस बात को जब मेरी बेटी मुझे ये सुना जाती। हाँ मैं भी अब बस मुस्करा देती उसकी इस बात पे। शायद मैं भी अब अनुभवी हो गई हूँ।

हमेशा लगता कि एक रिक्तता है मेरे जीवन में। पापा और माँ की मैं लाड़ली थी। उनकी अपनी जान से भी ज्यादा अनमोल। शायद इसी वजह से मैं उनकी अकेली संतान थी। वो अपना प्यार किसी से भी बांटना नहीं चाहते थे। ऐसा नहीं कि मुझे इस बात का इल्म नहीं था। पर पता नहीं क्यों हमेशा ऐसा लगता की मैं इससे भी कहीं ज्यादा की हकदार हूँ। शायद यही वजह थी कि मेरा नाम माँ - पापा ने कामना रखा था। हालांकि मुझे लगता है कि मेरा नाम कामना है इसलिए मैं ऐसी हूँ।

ओह ऐसी ही सारी बातें मुझे दिन भर घेरे रहती। इसका मतलब ये नहीं कि मैं पागल हूँ या पागलपन की ओर उन्मुख हूँ। बस अपेक्षाएं थोड़ी ज्यादा हैं मेरी... हर चीज से।

***

15 की उमर बड़ी खतरनाक होती है। मैं दिखने में ठीक - ठाक सी थी, सो अक्सर कॉलेज में चर्चा में रहती। मुझे चर्चा में बने रहना अच्छा भी लगता। कि मैं जहाँ से गुजरूं, हज़ारो आँखे मेरे रस्ते फूलों से भर दे। कि मैं मदमाती, लुभाती उन फूलों से भरे रस्ते पर बलखाती चलूँ। इसका मतलब ये नहीं की मैं चरित्रहीन हूँ। बस थोड़ी ज्यादा तवज्जो की चाहत थी। मिली भी।

वो तो जैसे मेरे रस्ते पर अपनी निगाहों के पुष्प हमेशा से ही बिछा कर रखता था। बहुत प्यार करता था मुझे। शायद मैं भी। शायद इसलिए की ये मेरा पहला प्यार था और मैं प्यार सीख रही थी। माँ - पापा का तो आपस में स्नेह ही देखा था... प्यार नहीं।

ऐसे ही हम रोज कॉलेज में मिलते। वो मुझे खूब हँसाता। मैं भी खुब ठठा कर हंसती। लगता कि शायद ये ख़ुशी मुझे पहली बार मिली है। वो मुझे हँसते देख कर किसी और ही लोक में चला जाता। कई दफा चुप हो कर, कभी शर्मा कर उसे वापस लाती उसके स्वप्नलोक से। 

दूसरा साल आते - आते ऐसा लगने लगा कि उसकी सारी बातें पुरानी हो गयी है। उसकी हर नयी बात में मैं पुराने शब्द तलासती। अब उसकी हर हरकत पहचानी सी लगती।  यहाँ तक की उसकी आवाज़ की तरंगों तक का मिलान करने लगी पिछले साल से। वो बड़ा ही पूर्वानुमानित हो गया था मेरे लिए।

जब रिश्ते इतनी हद तक पुनरावृत्तिक लगने लगे तो उसकी गर्माहट कमजोर होती जाती है। यही वह क्षण होता है जब वो रिश्ता बस एक पहचान भर बन कर रह जाती है। सो कल का प्यार आज एक पहचान बन गया था हमारे लिए। उसे भी ये बात समझ में आने लगी थी। वो भी अब मिलने - बैठने - बातें  करने और हंसाने की आवृत्ति को कम करता गया। फिर तो उसका मिलना इतना कम हो गया कि वो अब एक अजनबी हो गया था मेरे लिए। हालाँकि मैं इस परिस्थिति से पूर्णतः सहमत थी। बस एक असहमति कचोटती थी... ख़त्म मुझे करना था, उसने कर दी।

कॉलेज के 5 सालों में भी मुझे कोई मंजिल मय्यसर नहीं हो पायी। भागी तो हर बार मैं। जैसे पूरी दुनिया रेगिस्तान बनी हो मेरे लिए और मैं अकेली हिरणी, मृगतृष्णा के पीछे भागती फिर रही थी। पता हीं न चला कि मुझे क्या चाहिए, किस मंजिल की कामना कर रही हूँ मैं।

***

यह सिलसिला आज भी बद्दस्तूर चला आ रहा है। पति तो बहुत प्यार करता है मुझे। मेरे अतीत को भी जानता है फिर भी मुझे प्यार करने में कोई कमी नहीं छोड़ता है। कई दफा... करीब - करीब हर बार मैं उसकी हर बात से असहमत होती, तब भी। पता नहीं वो कौन है जो अक्सर मुझपर हावी रहता है और मुझसे ऐसे काम करवाता रहता है। कई बार... कई कई बार लगता कि मेरी असहमति बेमानी है, अनावश्यक है, फिर भी मेरी अपेक्षाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ती।

पता नहीं मेरी ये अतृप्ति कब शांत होगी। पता नहीं मेरा ये बेचैन मन कब तक यूं हीं बेचैन रहेगा। एक अनाम मंजिल की तलाश कभी इस जन्म में पूरी हो पायेगी या ये जन्म भी व्यर्थ ही चला जायेगा।

पता नहीं ऐसी सोंच के साथ मैं अकेले ही पैदा हुई थी या कई और हैं मेरे जैसे। बस अपूर्ण जीवन जिए जा रही हूँ इन्ही जवाबों की आस में।




- अमितेश 

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