बुधवार, 25 मार्च 2020

एकांकी

कब देखा था
उस नीलाभ की
नीले से भी रंग परे हैं। 

कब देखा था
सुबह की किरणें
झिर्री से रिस घर भरते हैं। 

कब देखा था
झुंड में नभचर
गाते समरस उड़ते जाते। 

नीड़ से वो झांकते खगेन्द्र वो
माँ की अपनी वाट जोहते

कब देखा था
प्रेम प्रणय में
मैना के जोड़े को लिपटे। 

आज पृथक और एकांकी हो
जब माँ की झुर्रियां गिने हो 
आज वो मौका ऐसा आया
माँ की अंक में तुम सोये हो
कब देखा था पापा ने
छत पे फूलों को सहज खिलाए
कब यूं चाय की चुस्कियों में सुने
अतित की सारी कथा कहानी। 

कब देखा था
बेटे ने तुम्हारे अक्षऱ लिखना सीख लिया है
उसकी पेन्सिल उसके बस्ते
अब वो खुद ही समेट के रखता

कब देखा था
पत्नी तुम्हारी रोटी पतली सी बनाती
थाली में अक्सर वो
तुम्हारी पसंद के व्यंजन लाती। 

आज जो यह समय मिला है
झांक के देखो खुद के अंदर
कब तुमने छोड़ा था अपने
शौक के लिए मीलों जाना
वो कोने में जो गिटार पड़ा है
ले आओ कोई धुन बजाओ
अरसे से जो नहीं लगाया
आज फिर वो मल्हार लगाओ।

वो जो कविता अधूरी छोड़ी थी
आज उसे पूरा कर जाओ
उस अधूरी कहानी के किरदारों को
आज मंजिल तक उनकी पहुँचाओ

आज पृथक और एकांकी हो
जो छोड़ा था, सब कर जाओ। 


- अमितेश









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