सोमवार, 10 जनवरी 2022

तुम

मैं सतत नीर की सलिला

तुम सैलाब उस सागर का हो

मैं अपार विस्तृत विस्मृत आकाश

तुम बेलौस उसका बादल हो

मैं उन्मुक्त खग सा उड़ता फिरता

तुम मेरे वाज का परवाज़ हो

मैं सुदृढ़ उस पर्वत सा खड़ा

तुम कलकल झरनों की आवाज हो


मेरा होना भी तुमसे ही

मिट जाना भी तुम ही से है

मेरी पहचान भी तुम से ही

मेरी अज़ान भी तुम से है


मैं सघन वृक्ष सा अटल अचल

तुम मेघशुन्य उसकी प्रतिछाया

मैं शीतल श्वास वायु सा

तुम अविरल सरस समीर हो

मैं तान भैरवी सा सुमधुर

तुम सप्तक उस संगीत के हो


मेरा वजूद भी तुमसे है

मेरी सिद्धि भी है तुमसे

मेरा मैं भी तुमसे ही

तेरा मैं भी है तुमसे


मैं सुघड़ शरीर इस यौवन का

तुम आत्मा इस जीवन का हो

मैं काया इस संसार में हूं

तुम इस काया का कारण हो

- अमितेश 

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