रविवार, 22 जुलाई 2012

लाल सलाम

मंजीरे की खड़ताल और ढोल की थाप हमेशा उसमे ऊर्जा का संचार कर जाती थी. संगीत की एक हल्की सी आवाज़ से ही उसका शरीर झूमने लगता और वो नृत्य की मुद्रा में आ जाता। जैसे - जैसे संगीत की आवाज़ बढ़ती जाती, उसकी मस्ती पराकाष्ठा की ओर उन्मत होती जाती. एक क्षण ऐसा भी आता जब वो किसी अलग ही जहाँ में चला जाता। देखने वाले अक्सर उसमे और ख़ुदा में फर्क नहीं कर पाते, जैसे लगता वो प्रभु की शरण में चला गया हो। उसकी ये भाव - भंगिमा जैसे उसके आस - पास के लोगों को भी उन्मत कर जाती। संगीत सचमुच कई आत्माओं को एक - दुसरे से जोड़ जाती हैं और वह इंसान और ईश्वर का फर्क मिटा देती हैं। यह उसे सुनने वाले से बेहतर और कौन जान सकता था।

कान्हा कुजुर था वो। जंगल का बेटा। जो जंगल में पैदा हुआ और जंगल का ही हो गया था। दूर डाल्टनगंज के जंगलों के बीच बसे एक छोटे से गाँव कुसौली के हर एक बाशिंदे की आँखों का तारा। कहते हैं जब वो पैदा हुआ था तो उसके रोने की आवाज़ में भी एक संगीत थी। दाई ने कहा था - "मुबारक़ हो बिरेन, कान्हा पैदा हुआ है तुम्हारे घर में।"

दाई का मुबारक़  के तौर पर दिया गया नाम हीं  उसकी पहचान बन गयी।

कान्हा अपने माँ-बाप की एकलौती औलाद था। उसके माँ-बाप कृषि मज़दूर थे। गाँव के सबल किसानों की खेतों में काम करते और हर रोज़ ज़िन्दगी जीने की ज़द्दोज़हद करते। यह भी एक विडंबना ही है कि जो मजदूर और किसान दुनिया का पेट भरने के लिए अपना खून - पसीना एक कर देता है धरती का फल प्राप्त करने की कोशिश में वो ही आधा कभी खाली पेट सोने को मजबूर होता है। उनका अपना खून - पसीना भी धरती का सीना पिघला नहीं पाता की दो वक़्त की रोटी धरती मइया उन्हें नसीब करा पाए। बिरेन अपवाद नहीं था इन परिस्थितियों का। लेकिन कभी कोई शिकवा नहीं किया बिरेन नें अपनी ज़िन्दगी से। खुश था वो अपनी परिस्थितियों से। खाली पेट और कड़ी मेहनत के बावजूद खुश रहने की कला में महारत हासिल थी उसे। उसकी अर्धांगनी भी ऐसी ही मिली थी उसे। जब घर में हर हालत में खुश और संतुष्ट रहने का माहौल हो तो कान्हा कहाँ इस गुण से अछुता रहता। वह तो यह गुण अपने खून में ले कर पैदा हुआ था। खुश रहना और  खुश रखना।

कुसौली गाँव का शायद ही कोई घर होगा जिसकी ख़ुशी कान्हा के बिना पूरी होती थी। उसकी संगीत में वह जादू था कि पूरे गाँव में एक सकारात्मक ऊर्जा फ़ैल जाती थी। जंगल के बीच बसे उस गाँव में जंगल भी मस्ती में लहराता था जब कान्हा अपनी राग छेड़ता था। हर जगह कान्हा का प्रभाव दिखता।
यूं  ही हँसते - खेलते वक़्त उस गाँव में कान्हा के साथ जवान हो रहा था। उम्र के साथ खुशियाँ भी बढती जा रही थी और बिरेन की जिम्मेदारियाँ भी। बिरेन बूढ़ा होता जा रहा था कान्हा की जवानी के साथ। अपने फैसले के दिन से पहले उसने कान्हा को वैवाहिक सूत्र में बाँध ही दिया था। कान्हा विवाह के बाद भी नहीं बदला। यूँ ही नाचता, गाता, खुशियाँ बांटता और बदले में कुछ पैसे, धान या कपड़े पाता। न तो उसका और उसके परिवार का पेट खाली रहता ना हृदय। यह ख़ुशी और भी दुगनी हो गयी जब उसकी पत्नी रेज़ी पेट से हो गयी। जो कान्हा दुसरे घरों की खुशियों को अपने नाच - गाने से बढ़ा दिया करता वो रोज कई नयी कहानियाँ,  नए धुन तलाशने लगा था - अपने बच्चे के जन्म पर सबसे अच्छा गाना गाना चाहता था वो।
उसे अब और भी जिम्मेदारी का आभास होने लगा था। वो अपने बच्चे को बेहतरीन भविष्य देना चाहता था - हालांकि उसका बच्चा अभी तीन महीने का गर्भ भर था। कान्हा अक्सर सोचा करता कि वो अपने अपने बच्चे को साहब बनाएगा। कि उसका बच्चा गाँव में मोटर गाड़ी पे घूमेगा। उसने तो अपने होने वाले बच्चे का नाम तक सोंच रखा था - अर्जुन - शहरों जैसा नाम। हां उसे पूरा यकीन था कि उसकी पत्नी लड़का ही जनेगी। उसके खानदान का सबसे बेहतरीन मर्द, जो अपने बाप का नाम खूब रोशन  करेगा।
हर वक़्त कान्हा अब अपनी आय बढ़ाने के बारे में सोचता रहता था। शायद सिर्फ पेट भरा होना और मन प्रशन्न 
रखना ही काफी नही था अपने अर्जुन को सुनहरा भविष्य देने के लिए। किसानी कर चार पैसे कमा पाना  संभव नहीं रह गया था अब। ज़मीनें तो उसके गाँव में आज भी उतनी ही थी पर किसानों के परिवार बढे और  ज़मीनों  पे बंटवारों  कि   लकीरें  भी। अब तो ये धरतीपुत्र भी धरती के गज भर टुकड़े के मालिक भर रह गए थे। जंगल के उत्पाद को इकठ्ठा कर बेचना भी अब आसान नहीं रह गया था। सरकार ने इन वनपुत्रों से  जंगल  का  अधिकार  भी  छीन लिया था। अब जंगल के गिरे पत्ते भी उठाने के लिए सरकार से इज़ाजत लेनी पड़ती थी। इस उहापोह में अचानक ही उसकी नज़र गाँव के पंचायत भवन की दीवारों पे पड़ी - "सरकार के मनरेगा (Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act - MNREGA)  कार्यक्रम के तहत अब गाँव - गाँव रोज़गार फैलेगा" - आँखें चमक उठी कान्हा की। वाह सरकार एक रास्ता बंद करती है तो दुसरा खोल देती है। झूम उठा कान्हा। अपना नाम भी उसने लिखवा डाला रोज़गार कार्यक्रम में। छोटी जरूरतों में गुजर करने वाले कान्हा के लिए  मनरेगा के सौ रूपये जैसे कुबेर का खजाना मिलने जैसा था। खूब मेहनत करेगा वो। अगले 6 महीने में जब उसका अर्जुन इस दुनिया में अपनी आँखें खोलेगा तो एक सुनहरा भविष्य, उसके पिता के बनाये सुनहरे  भविष्य  में  सराबोर  रहेगा। मनरेगा के तहत कान्हा को जंगल के बीच सड़क बनाने के काम में मजदूरी  मिल गयी। रोज़ वह मेहनत करता और पैसे जोड़ता अपने अर्जुन के लिए। सुपर्वाइसर साहब से छः महीने बाद पैसा लेने की बात कही जिसे सुपर्वाइसर साहब थोडा ना-नुकुर के बाद मान  गए।
धीरे धीरे सड़क की लम्बाई और कान्हा के पैसे बढ़ने के साथ साथ अर्जुन के इस दुनिया में कदम रखने का दिन भी नज़दीक आने लगा था। दिन भर मजदूरी करने के बावजूद हर शाम गाँव में उसकी तान छिड़ती थी जो उसके दिन भर की थकान को मिटा जाती और सुनने वाले भी मस्ती में झूमते रहते।

***

"कान्हा, बहुरिया कल बच्चा जनने को तैयार है। कल काम पर मत जइयो।" कान्हा की माँ ने कान्हा को रात में खाते समय बताया था।
"माई कल सुबह हम जा कर साहब से पैसे ले आयेंगे। कुछ खरीदारी भी कर आयेंगे अपने  अर्जुन  के  लिए।" अपनी ख़ुशी को लगभग छुपाते हुए कान्हा ने कहा था।

बहुत खुश था कान्हा अगले दिन, काम पर जाते समय तो मानो उसके कदम ज़मीं पे नहीं पड़ रहे थे। जैसे वो हवा की सवारी कर रहा था। बार बार एक ही खयाल उसके मन में आ रहा था, उसका अर्जुन दिखने  में  कैसा  होगा। उसकी आँखें तो ज़रूर उसकी पत्नी पे जायेगी और बाल उसके जैसे ही होंगे। लंबा - तगड़ा बांका जवान होगा वो। बस आवाज़ भी अच्छी होनी चाहिए। बड़ा हो कर वो लाट साहब ही बनेगा लेकिन गायक का बेटा है तो गाना भी अच्छा गाये तो फिर तो सोने पे सुहागा हो जाये। अपने इन्ही ख्यालों के साथ कब वो साईट पे पहुँच गया पता ही नहीं चला। उसके सुपर्वाइसर ने उसके एक बार कहने पर ही झट से उसकी छह महीनो की गाढ़ी कमाई उसके हाथ में रख दिए। आखिर तो उसकी कड़ी मेहनत और बेहतरीन आवाज़ के सुपर्वाइसर साहब भी कायल थे।
इतना रुपया तो कान्हा ने अपनी पूरी ज़िंदगी में नहीं देखी थी। उन सौ सौ के नोटों को देख कर उसकी आँखें फटी की फटी रह गयी। लगा जैसे ये रुपये मिलते ही दुनिया की सारी सल्तनत उसे दे दी गयी हो और वो दुनिया का  बेताज बादशाह बन गया हो। वो समझ नहीं पा रहा था के इतने रुपये का वो करेगा क्या, खर्च कहाँ करेगा, और कब तक खर्च करता रहेगा। जब हमारी जरूरतें जीवन को सँभालने के इर्द गिर्द ही घुमती रहे तो हमारी सोंच भी संकीर्णता की और अभिमुख हो जाती हैं। हम चाह कर भी अपनी चाहतों को इक्कठा कर उन्हें हमारी जरूरतों में तब्दील नहीं कर पाते। कुछ ऐसी ही हालत कान्हा की हो गयी थी।
वो भागा भागा अपनी पत्नी के लिए टेसू के फूलों के रंग की साड़ी खरीद लाया। हां वही तो थी जिसने कान्हा को इतनी बड़ी ख़ुशी दी थी। फिर उसने शादी के बाद इतने दिनों में अपनी पत्नी को एक चूड़ी, झुमका या आलता भी ला कर नहीं दिया था। ना ही उस बेचारी ने कभी कोई इच्छा जताई थी किसी भी चीज़ की कान्हा से। अर्जुन के लिए रंग बिरंगे कपडे मिठाइयां और खिलौने भी खरीद लिया था उसने। इतनी खरीदारी के बाद भी उसके पास काफी पैसे बचे थे। अब वह लगभग भागता हुआ सा अपने घर के रस्ते चल दिया था एक अनवरत मुस्कराहट अपने होटों पे लिए और एक सपनीली चंचलता आँखों में बसाये। आखिर आज वो अपने अर्जुन को जो देख लेगा। पिछले नौ महीने का इंतज़ार ख़तम हो रहा था उसका। वह लगातार चलता जा रहा था घर के रस्ते। ऐसा लग रहा था जैसे एक - एक कदम चलने में भी सदियाँ लग रही थी।

उधर घर में दाई बैठी थी। कान्हा की पत्नी दर्द से कराह रही थी। दाई उसे बार - बार जोर लगाने को कह रही थी। कान्हा की माँ बार बार बाहर जा कर रास्ता देख आती - कान्हा कहाँ रह गया। अभी तक आया नहीं है। कमाने की धुन में क्या कोई अपने बच्चे को भूल जाता है भला। बार बार बुढ़िया अन्दर - बाहर कर रही थी। हर एक क्षण के साथ कान्हा की पत्नी की पीड़ा बढती जाती और साथ ही साथ कान्हा की माँ की व्यथा भी घनी होती जाती।
जब हम वक़्त को पकड़ के रखना चाहते हैं तो यह कुछ यूं जल्दबाजी में होती है कि पलक झपकते ही महीने और साल बन जाती है। पर जब हम वक़्त को निकल जाने देने को उसे खुला छोड़ देते हैं तो ऐसे में घंटे भी पलों में सिमटने लगते हैं। कुछ ऐसे ही दौर से वक़्त गुजर रहा था उस एक पल को जब कान्हा की माँ समय जल्द गुजार देने की बाट जोह रही थी और वक़्त था की अपने खेल खेले जा रहा था। दर्द के उन पलों में रेज़ी भी कान्हा की उपस्थिति की अपेक्षा कर रही थी। आखिर दर्द के उस मंज़र को पार कर अर्जुन, कान्हा के अर्जुन ने इस दुनिया में  अपना पदार्पण कर ही  डाला। बुढ़िया अभी भी बाहर ही खड़ी कान्हा का इंतज़ार कर रही थी। कुढ़ रही थी इतने बरसों में पहली  बार कान्हा की लापरवाही पर। जिद में दाई के बुलाने पर भी अन्दर नहीं गयी अपने पोते को देखने के लिए। तभी दूर से दौड़ कर आती एक परछाई दिखी और बुढ़िया को थोड़ी सांसत आयी। उस परछाई को एक टक निहारती जा रही थी। चलो थोडा देर ही सही, उसका कान्हा आ तो गया अपने अर्जुन को देखने के लिए। जैसे - जैसे वो परछाई बड़ी होती जा रही थी वैसे - वैसे बुढ़िया शब्दों का ताना - बाना बुन रही थी की अर्जुन के बारे में बताने के लिए उसके पहले शब्द क्या होंगे।
जैसे ही वो परछाई अपने पूर्ण आकर में दृष्टव्य हुई, बुढ़िया की व्यथा फिर वापस अपने रूप में आ गयी। यह बदहवास दौड़ता इंसान कान्हा नहीं, बिरजू था - कान्हा के साथ ही काम करता मनरेगा में। बिरजू भागा - भागा बुढ़िया की तरफ ही आ रहा था। उसने साड़ी, खिलौने और मिठाइयों से भरे झोले को बुढ़िया को थमाया और बिलख पड़ा। 
"अरे क्या हो गया रे बिरजू। रो क्यों रहा है? और कान्हा कहा है? उसे पता था ना कि आज उसका अर्जुन आने  वाला  है। वैसे तो रोज़ पूछता था कितना   समय लगा रहा है अर्जुन यहाँ आने में। और आज जब उसे यहाँ होना चाहिए, पता नहीं कौन सी कमाई करने गया है।"

बिरजू अपनी उखड़ती साँसे और सिसकियों से पार पाते हुए बोला - "मौसी अब कान्हा कभी नहीं आएगा। वो हम सब को छोड़ कर बहुत दूर चला गया है मौसी। अब वो कभी हमारे पास नहीं आयेगा कभी।"
एक तेज़ चमाटा जड़ा था बुढ़िया ने बिरजू को। "क्या बोल रहा है नालायक। अच्छा दिन है, शुभ - शुभ बोल। कहाँ है कान्हा? बता कहाँ है मेरा कान्हा?" 
उसने एक कागज़ का टुकड़ा बढ़ा दिया बुढ़िया की ओर. लाल रंग के बड़े - बड़े अक्षरों में लिखा था कुछ उस पर। अपने आप को संभाल पाने की चेष्टा करती हुई बुढ़िया शब्दों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी और शब्द धुंधलाते जा रहे थे - "हर वो इंसान जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार की मदद करेगा या करने की चेष्टा करेगा वो गरीबों का दुश्मन है। कान्हा ने सड़क बनाने में सरकार की मदद की जिसका उपयोग सरकार गरीबों कादमन करने और जंगल पर कब्ज़ा करने के लिए करती। इसलिए संगठन ने कान्हा को इसकी सज़ा दी है। हमें  उसके इस असामयिक निधन पे गहरा दुःख है किन्तु यह हर उस इंसान के लिए एक  सीख है जो अपनी तुक्ष लालच के लिए आपका और हमारा शत्रु बन जाता है... लाल सलाम।"

बेसुध हो बुढ़िया गिर पड़ी थी और साथ ही गिर पड़ा उसके हाथ से कान्हा के गाढे पसीने की कमाई जो हाड़ तोड़ मेहनत कर कान्हा ने पिछले छः महीने में कमाए थे। तभी भीतर से अर्जुन के रोने की आवाज़ आयी, पुरे सुर में... बस कान्हा नहीं था वहां पर अपने लाडले की इस आवाज़ को सुनने के लिए। वो शायद किसी और दुनिया में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहा था - शायद कहीं और उसकी ज्यादा ज़रूरत थी, उसके इस गाँव से भी ज्यादा। शायद उस जहाँ में खुशियों को और बढ़ाना ज्यादा जरुरी था... उसके गाँव की खुशियों की कीमत पर। शायद इस जहाँ के चंद लोग अब खुश रहने की परिभाषा बदलना चाहते थे। शायद अब किसी कान्हा की ज़रूरत नहीं रह गयी थी इस जहाँ को अपनी खुशियाँ दोगुनी करने के लिए। 


-अमितेश 

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