शनिवार, 11 अगस्त 2012

आधी रात के सपने

चाँद की दुधिया चांदनी को ओढ़
जब मैं रात की आगोश में था
नींद जब बादलों सी अठखेलियाँ करती
सता रही थी आँखों को
कल मैंने एक सपना देखा
नींद में एक अपना सा देखा

निंद्रा के उस गहरे क्षण में
जब आँखें स्याह सागर में गोते लगा रही थी
तुम्हारी एक मुस्कान ने
सूरज सी रोशनी फैला दी थी
और मैं चाँद के उस दुधिया चादर को
अपने चेहरे तक खींच लिया था
की भंग ना हो जाए मेरी तंद्रा

जब रात ख़ामोशी की लोरियां  सुना   रही थी
और ठंडी  हवा की थपकियाँ दे सुला रही थी
तुमने खिलखिला कर भैरवी सुनाई थी
जब अर्धरात्रि की वेला में
और मैं अपनी मन्त्रमुग्धता से पार पा
ख़ामोशी की सरगम पर केन्द्रित हुआ जा रहा था

जब नींद की लुका छीपी में
मैं जीतता जा रहा था
तुम्हारी आँखों ने मुझे
नींद के पीछे छिपते ढूंड निकाला
और मैं चेष्टा करता रहा
तुम्हारी उन चपल आँखों से छुपने की
नींद के सिरहाने अपने को समेटते हुए

शायद तुमसे खुद को छुपा पाना
मेरे वश में नहीं अब
शायद सपनों के रस्ते
तुम मेरा एक हिस्सा बनती जा रही हो
मुझमे समा कर.
- अमितेश     

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