गुरुवार, 6 सितंबर 2012

तुम में प्रकृति

उनींदी आँखों से
जब देखा दरख्तों के पार
चाँद अटका सा था
चीड़ की उन मज़बूत शाखाओं में
और सुरज बादलों से पार पाने की चेष्टा में
उलझता जा रहा था
अपनी हीं रोशनी के ताने बाने में
जब बादल उन हिमालयी ऊँचाइयों में
गुम हुआ जा रहा था
अपने बरसने की हद तक,
तुमने हंस कर बहार ला दिया था
उन गीली फिजाओं में भी।

जब ओस की बूंदें
देवदार के पत्तों से रिस कर
मिट्टी में खुशबू पैदा कर रही थी
जब शैल पर बिखरे शैवाल
उन वादियों में एक अजीब सी
उलझन पैदा कर रही थी,
तुम्हारी क़दमों की आहट ने
जीवन घोल डाला था
उन बोझिल क्षणों में भी।

जब आसमान के छौने पर फैले मुट्ठी भर तारे
अपनी रोशनी को फैला पाने की कवायद में
टिम टिमा कर दम तोड़ रहे थे
तुमने अपनी हथेली आसमान की ओर कर
शर्मिंदा कर डाला था
प्रकृति की उन अप्रतिम रचनाओं को।

गोधुली वेला में
जब तुम्हारे चेहरे को देख
शाम शर्म से सुर्ख  हो लालिमा फैला रहा था
आसमान के उन नीली-सफ़ेद गालों पे
और तुमने अपने दुपट्टे को चेहरे पे फैला कर
रात कर डाला था
उस एक क्षण में।

तुम प्रकृति की अप्रतिम रचनाओं से भी
अप्रतिम हो
शायद देव पुरुष भी
तुम्हे पाने की महत्वाकांक्षा में
कई अवरोध पैदा कर रहे हैं
हमारी तुम्हारी राहों में।

-अमितेश

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