बुधवार, 17 अगस्त 2016

किन्चे

आज फिर वो किन्चे मेरे पैर के अंगूठे में चुभ गयी. एक छोटा चमकीला किन्चा. बड़ा अजीब लगता था जब वो कुछ किन्चे अनायास ही घर के किसी हिस्से में चमक उठते थे. मैं चिढ़ जाया करता था उन से. तुम अक्सर मुझे चिढ़ा देख कर और भी चिढ़ा देती - देखना ये किन्चे हमेशा हुम्हे मेरी याद दिलाती रहेंगी. ये किन्चे तो आस पास दिख जायेंगे तुम्हे पर मैं नहीं रहूंगी आस पास. फिर देखती हूँ किसपे चिढ़ते हो. 

मैं अगूंठे में चुभी उन किन्चो को निकाल कर बालकॉनी से इतनी जोड़ से फेंकता की कभी गलती से भी वापस घर में ना आ जाये. 

तुम्हे इन किन्चे  - सितारों वाली साड़ियाँ कितनी पसंद थी. मैं अक्सर कहता की कुछ और भी तो एथनिक वेअर हैं, वो क्यों नहीं लेती. तुम बस हँस कर यही कहती - साड़ी से ज्यादा एथनिक वेयर और क्या हो सकता है मिo कश्यप. 
मैं बिना जवाब दिए बिल देने चला जाता. 

जाने क्या बदल गया इतने दिनों में की आज किन्चे तो आसपास मिल जाती है पर दूर दूर तक देखनें पर भी तुम नज़र नहीं आती. तुम कहीं खो गयी हो. घर की हर चीज़ में तुम्हारा अहसास मिल जाता है बस तुम कहीं खो गयी हो. 

हम साथ थे क्योंकि हम एक जैसे थे. चीजो को देखने का नज़रिया एक था. विचार एक से थे, शौक एक से थे. याद है ना तुम्हें जब घंटो मिंटो की कहानियों पे Discussion करते, जब साथ में मन्ना डे के गाने गाता. जब बात समाज के बदलते मूल्यों की होती कितनी दफा किसी एक ही शब्द को दोनों एक साथ में बोलते और तुम न जाने क्या आँखे बंद कर बुदबुदाती और मैं तुम्हे देखता रह जाता. तुम्हारे लॉजिक भी अजीब होते कभी कभी - जब दो लोग एक ही शब्द एक साथ बोले तो भगवान से कुछ मांग लेना चाहिए, इच्छा पूरी हो जाती है. सच बताना हर बार तुम मुझे ही मांगती थी ना भगवान से. 

छुट्टियाँ तो तुममें न जाने कहाँ से इतनी ऊर्जा भर देती की उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता था. वही छुट्टी मुझ में सौ वर्षों की सुस्ती ला देती थी. लगता बस अज़गर की तरह एक जगह पे ही पड़ा रहूँ. तब तक ना उठूं जब तक छुट्टियां खत्म ना हो जाए. और तुम मुझे देख कर कितना गुस्सा होती ऐसे में. क्या नहीं करती तुम मुझे उठाने के लिए अपनी जगह से - सोना आज तुम्हारे हाथ की कॉफ़ी पीनी है, चलो ना कोई मूवी देख कर आते हैं - मैं स्पॉन्सर करुँगी, अच्छा चलो अब नास्ता तो कर लो - तुम्हारी पसंद का चिला बनाया है... 
और मैं बस ऐसे ही झूठमूठ के सोने का नाटक कर के तुम्हारी बात अनसुनी कर देता. 

कितना तो प्यार था हममें. फिर क्या बदल गया की तुम वापस लखनऊ चली गयी. ऐसी कौन सी बात तुम्हे नापसंद आ गयी - इस कदर नापसंद की उसके एवज में रिश्ता ही तोड़ लिया. क्या सचमुच रिश्ता तोड़ लिया या बस वैसे ही झूठमुठ का रूठी हो जैसे मैं बहाने बनाता था. 

याद है ना जब मैंने एक बार रोटी बनाने की कोशिश की थी और मेरी बनायी रोटी का आकर देख कर तुम्हारी हँसी रुक ही नहीं पा रही थी. तब मैंने कहा था कि रोटी गोल नहीं दिल के आकार का बनाया है - मेरे दिल के आकार का. तब तुमने गौर से देखा था रोटी के आकार को. कितना कस कर लिपटी थी तुम तब मुझसे. लगा की मेरी सांस रुक जाएगी. जब तुमने मुझे छोड़ा तो मेरे कंधे भींगे हुए थे. जब मैंने पूछा कहीं नाक तो नहीं पोंछ लिए तुमने मेरे कंधे पर, कैसे तुम फ़क्क से हंस दी थी. आँखे तो तुम्हारी तब भी नम ही थी. न जाने उस एक पल में ऐसी कौन सी भावनाएं तुम्हारी आँखों से पिघली थी. 

तो फिर अब क्या हो गया की तुमनें मुझे एकदम ही एकांगी छोड़ दिया है. क्या अब कोई भावना मुझे लेकर नहीं बची है तुममे, क्या अब वो तुम्हारी आँखों से पिघलती नहीं हैं. क्या हम सच में इतने अंजाने हो गए हैं एक दूसरे से. 

सज़ा तो सुना दिया तुमने, पर अपराध तो बताया ही नहीं मेरा. सज़ा दी भी तो ज़िन्दगी भर की दे दी. क्या मेरी ये गलती थी की मैंने तुम्हे बेइंतेहा प्यार किया था या ये की तुम्हारी साड़ी से टूट कर घर में बिखरे किन्चे मुझे पसंद नहीं थे. या शायद ये कि मैं इस साथ रहने के रिश्ते को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार कुछ नाम देना चाहता था. हाँ शायद यही अपराध हो गया था मुझसे. तुम अभी स्वतंत्र रहना चाहती थी. किसी भी परिभाषित बंधन में बंधना नहीं चाहती थी. बंधन, ये बंधन तो कतई नहीं होता. क्या बदल जाता इसके बाद या शायद तुमने भविष्य में कुछ बड़े बदलाव की अपेक्षा रखी हुई थी. 

रोज एक पत्र लिखता हूँ तुम्हे. इन्हें लिखने के बाद घंटो घूरता रहता हु लेकिन कुछ पढ़ नहीं पाता. रख देता हूँ तुम्हारे बिस्तर के सिरहाने. शायद वापस आओगी कभी और पढ़ लोगी इन सारे पत्रों को. 
और हाँ, अब तो मुझे वो किन्चे भी अच्छे लगने लगे हैं. चुभते नहीं अब वो मुझे. हाँ पैरों में लगते ही कुछ भावनाएं पिघल जाती हैं और आँखों का रास्ता पकड़ लेती हैं. 


- अमितेश

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