मंगलवार, 16 अगस्त 2016

Integration King

बार बार एक ही आवाज़ कानों में गूंज रही थी - उसे Integration King बोलते हैं लोग उसके Institute में। जितना ही मैं अपने कानों पर जोर लगा कर हथेली रखता उतनी ही तेज आवाज़ में Integration King वाली आवाज सुनाई देती। 
आखिर आजिज़ आकर घर से बाहर निकल आया. कहाँ जाना था, क्या करना कुछ नहीं मालूम. बस अपनी क़दमों का गुलाम बन कर निकल पड़ा कहीं भी. दिमाग अभी भी एक अजीब उलझन में था. जैसे कुछ जाले लग गए हों और हम उससे निकलने की कोशिश कर रहे हों. एक दम Maze Game जैसा. 

अनायास नजर उठा कर देखा तो लगा जैसे उलझन और बढ़ गयी. जिससे भाग रहा था वही अचानक सामने आ खड़ा हुआ हो।   
                                                           भवानी किराना
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कदम ठिठक गए वहाँ पर जैसे. अब तक जो दिमाग में गूंज रहा था लगा अब चारो ओर से आवाज आने लगी - Integration King... Integration King. इस आवाज को पकड़ कर जैसे मैं अतित की ओर डूबता चला गया. 

***

तब मैं भी Medical Entrance की तैयारी कर रहा था. वो वक़्त यूं था कि लोग कम होते तो जानकारियाँ और उसके स्रोत भी सीमित ही होते थे. तब गूगल बाबा की खोज नहीं हुई थी. सो तब लोग डॉक्टर - इंजिनीअर नहीं - Cardiologist, IITians जैसे लक्ष्य रखा करते थे. मैं कौन सा अलग था. तो मैं भी Medical Entrance की तैयारी नहीं बल्कि Cardiologist बनने की तैयारी कर रहा था. औसत छात्र था सो तैयारी भी औसत ही स्तर पर हो रही थी. माँ - पापा ने तो कुछ ख़ास अपेक्षाएं नहीं रखी थी लेकिन खुद की ही अपेक्षाएं बहुत थीं. फिर भी पढ़ाई उतनी ही करता जितनी क्षमता थी. ऐसे में जब मुहल्ले के कोई अंकल अपनें बेटे की तारीफ़ कर देते तो लगता जैसे उल्टे पाँव घर लौटूं और किताबें खोल लूँ।  पढ़ु या ना पढ़ु पर तसल्ली तो हो की मैंने उस एक उत्प्रेरणा के क्षण को जाया नहीं होने दिया. 

कुछ ऐसे ही थे गुप्ता जी. कभी किसान थे लेकिन बेटे को साहब बनाने की ख्वाहिस में पटना आ गए थे. वैसे भी किसानी अब उतना बेहतर व्यवसाय तो रह नहीं गया था. व्यवसाय तो ये पहले भी बेहतर नहीं था. जब किसान की जरूरतें बढ़ जाती हैं तो किसानी अपनी अक्षमता दिखा देती हैं. तब रबी और खरीफ़ के बीच ज़िन्दगी जमीन पे बिता पाना थोड़ा कठिन ही हो जाता है. सो जमीन बेच दी और पटना में दूकान खोल लिया. हालाँकि परिस्थितियां फिर भी ना बदली. हाँ जाते - जाते भले ही जमीन गुप्ता जी के बचत खाते में कुछ रुपये जोड़ गयी. 

शहर वो इसलिए नहीं नहीं आये थे की किसानी में लाभ नहीं था पर इसलिए आये थे कि एक दूसरी फसल को बेहतर करना था - हरीश गुप्ता. गुप्ता जी का एकलौता बेटा. गाँव की पाठशाला में बेहतर कर रहा था और आगे चल कर सुपरिटेंडिंग इंजीनियर बनना चाहता था - सिंचाई विभाग के श्रीवास्तव जी जैसा. मैट्रिक की परीक्षा के दौरान देखा था उन्हें जब मधेपुरा आया था अपने Examination Center पर. 

गुप्ता जी को भी लगा कि बेटा पढ़ने में ठीक ही है. इंटर की पढ़ाई के लिए पटना चले जायेंगे फिर किसी कॉलेज से इंजीनियर बन कर सुपरिटेंडिंग इंजीनियर बन जायेगा. 

जब जानकारियां कम होती है तो चीज़े ज्यादा आसान दिखती हैं - चुटकियों में होने जैसा. कुछ ऐसा ही हाल गुप्ता जी और उनके बेटे का था. फिर क्या था, हरीश के अपरिपक़्व दिमाग़ और गुप्ता जी के अनभिज्ञ मस्तिष्क ने यह निर्णय ले लिया की अब बस पटना जाना है. 

यह जमीन जो खुद अपना भविष्य नहीं जानती, हमें क्या बेहतर भविष्य दे पायेगी. सो जो थोड़ी सी जमीन थी उसे भारी मन से ही सही, बेच कर निकल दिए हरीश के सपनों की तलाश में. 

***

गुप्ता जी की अम्मा का नाम भवानी था सो उनके नाम का बोर्ड लगवा लिया अपनी दुकान पर. पटना ने जैसे हरीश को पर दे दिया था. भले ही दूकान कुछ धीमी रफ़्तार से चल रही थी लेकिन हरीश की पढ़ाई बेहतर होती चली गयी. शायद इसलिए भी की जो खोना था वो तो अपने गाँव में ही खो आये थे. अब जो बचा था वो सिर्फ पाना ही बचा था. 

मेहनत से पढ़ाई कर रहा था वो. इधर मैं भी पढ़ ही रहा था. कभी कभार दुकान से कुछ लाना होता तो गुप्ता जी कुछ उत्प्रेरणा के क्षण पैदा कर देते हरीश की कहानियाँ सुना कर. 

***

हरीश को उसके इंटर कॉलेज के दोस्तों ने बताया की पटना की पढ़ाई अब वैसी नहीं रह गयी है. इतने डॉक्टर, इंजीनियर, आय ए एस दे दिए हैं की पटना की प्रतिभा पैदा करने की जमीन बंजर हो गई है. अगर IIT निकालना है तो पटना से निकलना होगा. आजकल कोटा से बड़े सारे लड़के IIT Qualify कर रहें हैं. वहीं जा कर पढ़ना उचित होगा. 

"कोटा... वो तो राजस्थान में है. फिर वहां जा कर पढ़ना रहना तो थोड़ा महंगा होगा ना. और Coaching का Fee तो अलग है." 

"हाँ, लेकिन कई Institute Coaching में Scholarship भी देते हैं. अगर लड़का अच्छा रहा तो पूरा Fee भी माफ़ कर देते है."

"हम्म्म... लेकिन फिर भी खर्च कितना आएगा?" 

"Coaching का १००% Fee है 40000 रुपये, छः महीने की कोचिंग है सो हर महीने कम से कम 3 - 4 हजार तो लगेगा ही हॉस्टल - खाना मिला कर. 70 - 75 हजार का खर्चा है वहाँ पर."

"70 - 75 हजार तो बहुत ज्यादा है. मेरे बाउजी तो Afford नहीं कर पाएंगे."

"भाई IIT निकालने की probability भी तो ज्यादा है ना."

"ठीक है. बात करता हूँ बाउजी से. हालाँकि उम्मीद कम है कि वो तैयार होंगे." 

***

हरीश ने रात में खाना खाते खाते  गुप्ता जी को सारी बात बताई. गुप्ता जी कुछ बोले नहीं. बस खाते रहे. शायद एक रोटी काम ही खाई उस रात. 

खेती की जमीन तो मिट्टी के भाव में ही बिकती है. शहरो में उसे Real Estate कहते हैं. सो वो कुछ पैसे तो यूँही ख़तम होते जा रहे थे. अब 75 हजार - लाख रुपये और कहाँ से लाए. पता नहीं सही है या नहीं लेकिन यह आखरी कदम तो उठानी ही पड़ेगी. आखिर फसल को बीच में ही तो बर्बाद होते नहीं देख सकता ना. पैसा तो जुटाना ही पड़ेगा. कैसे भी. अगर ऐसे नहीं तो यही सही. 

***

"आइये आइये. क्या लेना है."

"ये लिस्ट है गुप्ता जी. थोड़ा जल्दी कर दीजियेगा. Coaching के लिए निकलना है."

"हाँ हाँ झोला ले दीजिये."

और वो सामान निकालने लगे. 

"और पढ़ाई कैसा चल रहा है."

"ठीक ठाक" अनमने से जवाब दिया. 

"हरीश तो काफी अच्छा कर रहा है Coaching में. सब कहते हैं की IIT में होना सतप्रतिशत तय है. लोग तो उसको वहाँ Integration King कहते हैं. Integration के सवाल तो मुहजवानी बनाता हैं."

"वाह, फिर तो अच्छा है ना."

"हाँ दुःख दूर हो जायेंगे सारे. उसकी कोटा और Coaching में गाँव का घर भी बेचना पड़ गया."

वो लगातार बोलते जा रहे थे और मैं अनमना सा सुनता जा रहा था या शायद कुछ भी नहीं सुन रहा था. 
वैसे भी हम मध्यम वर्गीय लोगों की तकलीफे उसके परिवार को छोड़ कर सब को मालुम होता है. भले ही बाहर वाले इन परेशानियों को सुन कर कुछ न करे पर हम बड़ा हल्का महसूस करते हैं."

अब ये सारी बातें बोल कर भले ही गुप्ताजी अपना भारीपन कम कर रहे थे पर ये उत्प्रेरणा के क्षण मुझ पर बोझ बढ़ाते जा रहे थे. लगा जैसे सामान बाद में ले जाऊं, अभी दौड़ कर अपनी पढ़ाई में लग जाऊं. 

***

अगले दो महीनों में मुझे एक मेडिकल कॉलेज में दाख़िला मिल गया. Cardiologist बनूं या ना बनु पर डॉक्टर तो बन ही जाऊंगा अब. कुछ Scholarship भी मिल गया सो पापा को सिर्फ अपना Provident Fund ही लगाना पड़ा मेरी पढ़ाई में, घर बेचने की नौबत नहीं आयी. औसत दर्जे का Student एक औसत दर्जे के मेडिकल कॉलेज में पढ़ने चला गया. 

दिन बीतने लगे. शुरू शुरू में जहाँ घर पर हर रोज़ 10 मिनट बात हुआ करती थी अब हफ्ते में 10 मिनट बात होने लगी. इन 10 मिनटों में तो ज्यादातर खाना खाया - पैसे तो नहीं चाहिए और सब कुशल मंगल है जैसे वार्तालाप ज्यादा होते. कौन - कहाँ - क्या - कैसे जैसी बातें नहीं होती. सो धीरे धीरे मैं परिवार से तो जुड़ा रहा पर मोहल्ले से कट गया था. छुट्टियों पर भी आता तो हर रोज की 10 मिनट की जो बातें नहीं हो पाई थीं, उन्ही में निकल जाता. पापा भी मुझे ले कर रिश्तेदारों के घर ऐसे जाते जैसे कोई तमगा ले कर जा रहें हो. 

धीरे धीरे बीतते वक़्त ने मुझे डॉक्टर बना दिया. मैंने निर्णय लिया की दस बरस बाहर रहने के बाद अब तो वापस पटना आ जाना चाहिए. वहीं Practice करूँगा. MD था सो बीमारों को आकर्षित करने के लिए काफी था ये डिग्री बोर्ड पे लिखवाना. मम्मी पापा खुश थे की चलो अब हफ्ते में 10 मिनट नहीं, हर रोज बेटे से बात कर पाएंगे. अपनी आँखों से देख पाएंगे की बेटा सही ढंग से खा पी रहा है कि नहीं. मैं खुश था की मम्मी - पापा को जब शायद मेरी सबसे ज्यादा जरुरत है, तब मैं उनके पास रह सकुंगा। 

***

माँ मेरे बालों में तेल लगा रही थी. हम इधर उधर की बातें कर रहे थे उस दोपहरी. तभी अचानक ही मैंने पूछ लिया - "माँ, Integration King के क्या हाल हैं? अब तक सुपरिटेंडिंग इंजीनियर तो बन ही गया होगा. है ना?"

बालों को सहलाते सहलाते अचानक माँ के हाथ रुक गए थे. अचानक एक चुप्पी तिर आयी चारो ओर. चुप्पी अपना साम्राज्य फैलाती जा रही थी और इस हर एक पल के साथ मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. 

"माँ...!"

"हूँ..."

"क्या हुआ, क्या सोचने लगी."

"हरीश नहीं रहा..."

"क्या... क... कैसे... क्या हुआ... था..." बहुत मुश्किल से मैं कुछ बोल पाया था. अचानक उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम गया. नज़र शून्य में थी लेकिन उसका चेहरा चारो ओर नज़र आ रही थी. 

"उसने आत्महत्या कर ली..."

"ओह... क्यों... कब हुआ ये... क्यों...!" अभी भी समझ नहीं पा रहा था की ऐसे में सही सवाल क्या होने चाहिए. 

"बेटा वो इतनी उम्मीदे ले कर गया था कोटा की वही उसका काल बन गया. गुप्ता जी ने क्या नहीं किया उसको पढ़ाने के लिए. जमीन बेचीं, घर बेचा, गाँव तक को छोड़ दिया. खुद को भी गिरवी रख दिया था बेचारे ने. First Attempt में IIT में नहीं हुआ उसका. अब क्या मुँह ले कर वो अपने बाप के पास आता. जितने पैसे थे गुप्ता जी के पास वो सब तो उसकी कोचिंग में खर्च हो गए. अब Next Attempt के लिए कहां से पैसे लाते. बेचारे ने कभी भी अपने या अपनी बीबी के लिए कुछ नहीं किया. उनके सारे शौक हरीश पे ही आ कर ख़तम हो जाती थी. ऐसे में हरीश को लगा की बेहतर है की ऐसे में वो लौटे ही नहीं. अपने कमरे में ही लटक गया. नहीं रहा वो. भगवान् उसकी आत्मा को शांति दे. किसी को भी दाता ऐसे दिन ना दिखलाये. बेचारे गुप्ता जी बार बार एक ही बात दोहराते रहे... इससे अच्छा तो किसान ही था. लटकना होता तो मैं लटक जाता. मेरी पूरी फसल बर्बाद हो गयी... 
च..  च..  च...

... ... 
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... ... 

Integration King... Integration King... ना जाए कितनी देर से ये आवाज मेरे कानों में गूंज रही थी. जितना ही मैं अपने कानों पर जोर लगा कर हथेली रखता उतनी ही तेज़ आवाज़ में Integration King वाली बात सुनाई देती. 



- अमितेश 

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