सोमवार, 8 अप्रैल 2013

सुहाने दिन

 वो दिन जाने कहाँ खो गए
लड़कपन के वो प्यारे दिन
जब गर्मी की भरी दोपहरी
जीवन के गूढ़ रहस्यों का आभास होता
छेमी के दानों को पा कर
जैसे किसी खज़ाने को पा लेने का एहसास होता

जब डाकिया घर के दरवाज़े खड़का कर
चिट्ठी आयी है की आवाज़ लगता था
जब वो पंद्रह पैसे का पोस्टकार्ड
अपने अपनों के और क़रीब ले जाया करता था

जब कैरी की सौंधी खुशबू, हममे एक ऊर्जा भर जाता था
जब शाम ढले पापा के घर आने पर मन सांत्वना पता था

वो दिन जाने कहाँ खो गए
जब माँ के साथ बैठ कर चाय की चुस्कियां लिया करते थे
उसकी बातों से कभी सीखते कभी हंस दिया करते थे

जब होमवर्क की याद बड़ा सताती थी
"गुलमोहर इंग्लिश" की किताब खोलते ही
बिल्लू - पिंकी की कॉमिक्स याद आती थी

जब गेंद की ज़िद में
घंटो रूठ कर बैठ जाया करते थे
और माँ जब मनाने की ज़द्दोज़हद में
अपने हाथों से निवाला खिलाया करती थी

वो दिन जाने कहाँ खो गए
जब शाम ढले दोस्तों से लड़ कर आते थे
फिर अगली सुबह उससे नहीं मिल पाने पर
खुद पे गुस्सा कर जाया करते थे

जब लुडो को फैला कर ६ आने की प्रार्थना करते थे
और हार जाने पर खेल छोड़ कर भाग जाया करते थे

वो दिन जाने कहाँ खो गए
जब रोज़ दर्पण के के सामने खड़े हो कर मुह  बनाया करते
और कमरे में अचानक किसी के आ जाने पर
सरमाया सकुचाया करते

जब दोस्तों संग इमली के दाने खा
मुहँ आड़ी तिरछी बनाया करते
फिर उसके बीज़ को मुहँ से दूर फेक पाने के खेल में
जीत जाया करते

वो सुहाने दिन लड़कपन के
जाने कहाँ खो गए हैं
अब तो हम मानो खुद से ही बहुत दूर हो गए हैं।


-अमितेश






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