रविवार, 26 जुलाई 2020

लाल हिन्द

"जब तक तुम लोग संगठित हो कर इन पूंजीपतियों को पीछे की ओर नहीं ढकेलोगे, ये तुम्हारी छाती पर पैर रख कर अपने मनसूबों के महल बनाते रहेंगे। तुम्हारे खून - पसीने की कीमत कौड़ियों में लगा कर ये उसको करोड़ों में बेचेंगे। तुम सब यूं ही और गरीब होते जाओगे और ये पूंजीपति और भी अमीरी हासिल करते रहेंगे। अरे हमने तो रूस और चीन की सामंतवादी गिद्धों को भी नहीं छोड़ा। ये कौन लोग हैं?" किशनलाल एक सुर में उन पांच - सात रिक्शेवालों के बीच खड़ा हो कर बोले जा रहा है। उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता की उसका बोलना उन्हें समझ में आ भी रहा था या नहीं। कल ही तो कागज के उस फटे टुकड़े पर यह भाषण पढ़ा था। उसे लगा यह जगह सही है चिपकाने के लिए। तो इन बेचारे अनपढ़ रिक्शेवालों को रूस और चीन घुमा रहा था। सारे रिक्शेवाले मुँह खोले उसे सुन रहे थे। उनके पल्ले तो कुछ नहीं पड़ रहा था पर मजा बहुत आ रहा था। लग रहा था कि किसी पोलित ब्यूरो की मीटिंग चल रहे है और एक बड़ा कामरेड लोगों में कम्युनिज्म की गंगा बहा रहा है। किशनलाल की बातें सुन कर उन सारे रिक्शेवालों को लगने लगा था कि उनकी इस परिस्थितियों का कारण सरकार और हर एक पूंजीपति है। उनलोगों ने ही उनसे बेहतर जीवन जीने का अधिकार छीन लिया है और अब परिवर्तन का समय आ गया है। और परिवर्तन क्रांति से ही आती है।  और ये क्रांति खून मांग रही है। 

"लाल बाग़ चलोगे?"

"जी, पंद्रह रुपये लगेंगे।"

"दस में चलना है तो बोल वर्ना बहुत मरे पड़े हैं यहाँ पर दस - दस में ले जाने के लिए।"

"तो जो मरे पड़े हैं उनके रिक्शे पर ही बैठ कर जाओ।" कह कर मंगत उस मीटिंग का फिर से हिस्सा बन गया था। आखिर क्रांति भी तो लानी थी। हालाँकि मंगत की जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जो उसे चुभे। जितना काम करता उतने पैसे बना लेता। घर का रासन, बेटे की पढाई और रिक्शे के भाड़े के बाद भी देशी के लिए थोड़े पैसे बच जाते। पर क्रांति तो जरुरी है। और क्रांति केवल खून मांगती है, वजह नहीं। 

थोड़ी देर में हरीआ और इस्माइल चुपके से उस मीटिंग से सरक लेते हैं, उस सवारी को पकड़ने के लिए जो अभी मंगत की बेरुखी को झेल गया था। अब दस में जाने में हर्ज क्या है। ऐसे भी यहाँ बैठे बेगारी ही तो कर रहे थे। 

सभा स्थगित कर दी गई थी। किशनलाल अपने पैबंद लगे झोले को उठाए चल पड़ा था अगली सभा को सम्बोधित करने के लिए। 

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किशनलाल कहने को तो छठी जमात पास था पर कहीं बड़ी उम्मीदें पाल रखी थी जीवन में। किशोरावस्था में कही किसी कम्युनिस्ट नेता की सभा में चला गया था। बड़ा प्रभावित हुआ था उस नेताजी से। उसके भाषण की एक एक लाइन किशन के खून को खौला रहा था। हालाँकि जब उसने भी पहली बार नेताजी का भाषण सुना था तो उसके पल्ले कुछ ज्यादा पड़ा नहीं था। लेकिन वो रोज रोज उस भाषण और विचारधारा को घिसने लगा। 

आज परिस्थितियाँ ऐसी की कसबे के उस इलाके में लोग उसे "लाल हिन्द" के नाम से जानते थे। हालाँकि ये नाम उसे मोहल्ले के लोगों ने मजाक बनाने के लिए दिया था,  बेचारा किशन उसे यूँ समझ बैठा कि वो भी माओ -त्से-तुंग बनता जा रहा है। अक्सर उसे मोहल्ले के बड़े - बुजुर्ग "लाल हिन्द" कह कर पुकारते और फिस्स कर हंस देते। वो बेचारा "लाल हिन्द" सुनते ही छाती थोड़ी और निकाल कर चलने लगता। 

किशनलाल वैसे करता तो कुछ नहीं था सिवाय इस नेतागिरी के। दिन भर कभी कुछ रिक्शेवाले को पकड़ लेता तो कभी किसी ठेले - खोमचे वालों में कम्युनिज्म भरता रहता। इसी में उसका गुजारा हो जाता था जब कोई कुछ सामान दे देता तो कोई पान खिला देता। कभी कभी वो लोगों को बेवकूफ बना कर कुछ पैसे भी ऐंठ लेता था, क्रांति के नाम पर। 

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"जब तुम पैदा हुए थे, तो इंसान पैदा हुए थे। इन पूंजीपतियों ने तुम्हे गरीब बनाया। उस ऊपर वाले ने फर्क नहीं की थी तुममे और उन अमीरों में। तुम्हारे पास भी उनके जितना ही हाथ - पैर - दिमाग है। पर ये जो सामंतवादी व्यवस्था सब जगह चल रही है ना, इसी ने तुम्हे गरीबी की गर्त में ढकेला है। उठो, जागो और अपने अधिकार मांगो इन अमीरों से। ना मिले तो छीन लो जिसके तुम अधिकारी हो। वर्ना ऐसे ही कीड़े - मकोड़े की जिंदगी जीते रहोगे।" 

किशन फिर कुछ सफाई कर्मचारियों के बीच अपनी नेतागिरी चमका रहा था। बेचारे वो अनपढ़ किशनलाल में अपना तारणहार देखने लगे। उन्हें लगने लगा कि उनके काम के हिसाब से उन्हें पैसे नहीं मिलते। जैसा उनका काम है उस हिसाब से तो उन्हें कमिश्नर साहब से ज्यादा पगार मिलनी चाहिए। 

समानता का अधिकार मांगने वालों का भी एक अलग ही नजरिया है। एक ओर तो ये समानता कि बात करते हैं। वहीं दूसरी ओर बहुत ही आराम से पूंजीपति को लूट कर उन्हें गरीब बनाने की बात करते हैं। 

किशनलाल ने उनके बीच भी कम्युनिज्म का अलख जगा दिया था। हालाँकि यह पहली बार नहीं था कि इन सफाई कर्मचारियों ने किशनलाल को सुना था। पर किशनलाल का भाषण बरसाती नाले की तरह था। जब तक बहता, सब कुछ बहा कर ले जाता। सारे उसमे बहते जाते। बरसात के ख़त्म होते ही वह सूखता और लोग उसको रौंदते हुए आगे बढ़ जाते। बहरहाल तब तक तो बरसात अपने गर्व से ओत - प्रोत रहता जब तक बरसाती नाला वृहत्तर रहता। ऐसा ही था किशनलाल। 

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किशनलाल एक छोटी सी खोली में रहता था। उसका किराया देने के नाम पर अक्सर मकान मालिक से बकझक हो जाया करती थी। पर अपनी वाक्पटुता का प्रयोग कर हर बार उसे टाल जाता। कपड़े पार्टी ऑफिस से उठा लाता, चाय की जिम्मेदारी मोहल्ले के रिक्शेवालों ने उठा रखी थी। खाना भी जैसे तैसे हो जाता था उसका। सो कुल जमा जिंदगी भली ही बीत रही थी। घर और जिंदगी चलाने की चिंता नहीं थी तो नेतागिरी अच्छी चल निकली थी। 

ऐसे ही एक दिन उन रिक्शेवालों को जमा कर भाषण दे रहा था। 

"भाइयों, बहुत हुआ। अब अपने समाज, गरीबों के लिए आंदोलन करने का वक़्त आ गया है। हम अगले गुरुवार को डी.एम. ऑफिस का घेराव करेंगे। हमारी मांगों को मंगवाने के लिए कोई बड़ा धमाका करना पड़ेगा, तभी इस बहरी सरकार के कान तक आवाज़ पहुंचेगी। हम डी.एम. ऑफिस में धरना देंगे। तब तक नहीं उठेंगे जब तक सरकारी तंत्र हमारी मांगों को मानने के लिए झुकती नहीं। मर जायेगे पर उठेंगे नहीं। क्या तुम सब अपने सम्मान के लिए मरने को तैयार हो?"

सारे लोगों ने जम कर तालियां बजायी थी। सब के सर सहमति में हामी भर रहे थे। हालाँकि किसी को ये समझ नहीं आया कि उनकी मांगे क्या हैं। पर जब लाल हिन्द ने कहा है तो हमारे अच्छे के लिए ही कहा होगा। तक़रीबन सारे लोगों की आँखों में एक अनोखी चमक आ गयी थी अपने भविष्य की आकाँक्षाओं में। सब अपने भविष्य के सुहाने सपनो में खो से गए थे। सब के चेहरे पर एक हलकी मुस्कान बिखर आयी थी। 

"तो भाइयों इसके लिए हमें एक संगठन बनाना होगा और पार्टी फण्ड बनाना होगा। यह हमारे आंदोलन को मजबूत करने के लिए जरुरी है। पार्टी फंड का श्रीगणेश करने के लिए ये रहे मेरी तरफ से सौ रुपये।" कह कर किशनलाल ने एक सौ की पत्ती निकाल कर एक रिक्शे की सीट पर रख दिया।  अचानक थोड़ी झिझक फ़ैल गयी उन दस - बारह लोगों की भीड़ में। पर फिर भी हिम्मत कर लोगों ने अपने पैसे निकालने शुरू कर दिए थे। देखते - देखते डेढ़ हजार रुपये से पार्टी फंड की शुरुआत हो गयी थी। किशनलाल मन ही मन खुश था कि बस सौ रुपये की इन्वेस्टमेंट से एक अच्छी रकम जमा हो गयी है। 

यहाँ से छूटते ही उसने हरिया से कहा कि उसे अखबार के कार्यालय तक छोड़ आये। आखिर आंदोलन को आम जनमानस तक पहुंचना भी तो जरुरी है। हरिया ख़ुशी - ख़ुशी अपनी बोहनी मुफ्त में करने को तैयार था। 

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अखबार कार्यालय के पास के चाय की दूकान में अक्सर उन छोटे पत्रकारों का जमावड़ा लगा रहता जिन्हे पत्रकारिता में अपनी पहचान बनानी थी। किशनलाल को इस बात का इल्म था की इन दिनों अखबार में एक छोटी जगह में छपना कोई बड़ी बात नहीं रह गयी थी। बस सही आदमी को पकड़ना जरुरी है। 

"दादा, गुरुवार को कुछ लोग डी.एम. ऑफिस और डी.एम. साहब का घेराव करने वाले हैं। सुना है भीड़ हिंसक भी हो सकती है।" चाय का गिलास बढ़ाते हुए किशनलाल ने पत्रकार रोशन को बोला। 

रोशन इसी अखबार में काम करता था। एक बड़े पत्रकार का छोटा असिस्टेंट था। चाय का गिलास लेते हुए उसने पूछा, "तुम कौन हो? ये कौन सा संगठन घेराव कर रहा है? क्यों कर रहा है?"

"जी मेरा नाम लाल हिन्द है। मै अखिल भारतीय रिक्शाचालक संघ का संचालक हूँ। यह जानकारी अभी तक किसी के पास नहीं है, आपके लिए ये अच्छा मौका है एक्सक्लूसिव खबर बनाने का। बाकी आप देख लो।" बोलते बोलते किशनलाल वहां से निकल गया। रोशन आवाज लगाता रहा लेकिन वह रुका नहीं। वो जो करने आया था, उसने वो कर दिया था।  एक संशय का बीज रोशन के दिमाग में बो दिया था किशनलाल ने। 

***

किशनलाल जानता था की यही एक मौका है किशनलाल से लाल हिन्द बनने का।वो इसे आसानी से ज़ाया नहीं होने देना चाहता था। अब पूरी आस रिक्शेवालों और रोशन पर टिकी थी। दोनों ही धड़ो को पकड़ने के लिए उसे इस पुरे मसला को जलसा बनाना था। वह पार्टी ऑफिस से कुछ पुराने तख़्त और कागज उठा लाया था। दिन भर बैठ कर उनपर स्लोगन लिखता रहा।    

"हमारी मांगें पूरी करो, 
इंक़लाब जिंदाबाद, 
समानता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, 
सामंतवाद समाज का जोंक है, 
क्रांति हमारा नारा है" 

ना जाने कितने स्लोगन लिख डाले थे। जितना देखा, सुना था सब लिख डाला था। हरिया और इस्माइल को लोगों को जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। दोनों ही अपने अपने "समाज" में जाकर गुरूवार की क्रांति का अलख जगाने में लगे थे। जो कल तक एक विचारों की अभिव्यक्ति भर थी आज एक क्रांति का रूप लेती जा रही थी। शाम तक तो सात लोगों के बीच हुई बातचीत ने एक मुहिम का रुख ले लिया था। 

एक छोटी मीटिंग बुलाई थी किशनलाल नें आज रिक्शा स्टैंड पर। कुल जमा पंद्रह लोग इक्कठा हुए। किशनलाल ने वहीं संगठन का निर्माण कर दिया था। जो लोग कल तक अपने अपने नाम से जाने जाते थे, किशनलाल ने उन्हें पद नाम दे दिया था - संगठन मंत्री, पोलित प्रमुख, शाखा सचिव और ना जाने क्या - क्या। रातों रात सभी लोगों के घरों में स्लोगन की तख्तियाँ पहुंचाई गयी। बोला गया कि सारे लोग अपना रिक्शा ले कर डी.एम. ऑफिस पहुंचेंगे फिर ऑफिस के चारो ओर रिक्शे की दिवार खड़ी की जाएगी कि किसी का आना जाना मुश्किल हो जाये। फिर अपनी मांगों के समर्थन में  बैठ जायेंगे वहीं धरने पर। सारा प्लान तैयार कर लिया गया था। सब में उत्साह पूर्ण आवेग से हिलोरे मार रहा था। किसी मुहीम को पूरा होने की बस एक शर्त होती है, की लोग उत्साह से लबरेज हों। यहाँ तो उत्साह अपने चरम पर थी। किशनलाल मन ही मन अपनी नेतृत्व क्षमता पर प्रफुल्लित हो रहा था। अपने आप को किसी भी राष्ट्रीय स्तर के नेता से कम नहीं समझ रहा था। एक आखिरी बार सारी व्यवस्थाओं को आपस में ही परीक्षित कर सारे लोग अपने अपने घर चले गए। कल ही क्रांति का गुरूवार था। कल का दिन इस बात का निर्णायक होने वाला था की ये कस्बे का हिस्सा लोगों की शाम का चर्चा का कारण बन सकता है या नहीं। कि ये चंद रिक्शा वाले एक नहीं सुबह की नीव रख पाएंगे भी की नहीं। 

***

गुरुवार... 

दिन वैसे ही निकला था जैसे रोज निकलता है। सब वैसे ही अन्यमनस्क से अपने अपने काम में लगे थे। जैसे सारे मशीनी पुतले हों और जीवन की जरूरतों ने सब में चाभी भर दी हो। डी.एम. ऑफिस में वैसे ही लोग आ जा रहे थे। कुछ लोग परेशान हो बाहर निकल रहे थे तो कुछ भरी मुस्कान और खाली जेबों के साथ। सब कुछ एक आम दिन की तरह ही था। दिन अपने परवान लिए आगे बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर में लंच ब्रेक होने वाला था। धीरे - धीरे डी.एम. कार्यालय की भीड़ भी पतली होती जा रही थी। सारे अपनी क्षुधा शांत करने के लिए आसपास के ठेले - होटलों में जाने लगे थे कि वापस आ कार्यालय के बाबुओं की भूख मिटा पाएं। 

इतने में ही लगा की चारों ओर से सैकड़ों रिक्शा कार्यालय की तरफ आने लगे हैं। थोड़ी अफरा तफरी का माहौल हो आया था वहां। ये अफरा तफरी तब थोड़ी और बढ़ गयी जब ये सारे रिक्शा ने पूरे कार्यालय को चारो ओर से घेर लिया। लगा की डी.एम. ऑफिस के चारो ओर रिक्शे की दीवार खड़ी कर दी गयी है। ये सारे रिक्शेवाले अपने अपने रिक्शे से कूदते हुए हाथों में तख्तियां लिए डी.एम. ऑफिस के काफी करीब पहुंच गए थे। सब के हाथों में नारे की तख्तियां थीं और वातावरण में नारों की गूंज। इस अचानक के परिवर्तन ने लोगों को हतप्रभ कर डाला था। जो पुलिस वाले अपनी लाठी का धौंस दिखा अपनी चाय - पान का इंतज़ाम कर रहे थे, अपनी - अपनी पैंट - लाठी संभाले डी.एम. ऑफिस की तरफ दौड़ पड़े। किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि अचानक बिना किसी जानकारी के ये लोग कहाँ से आ गए थे। 

किशनलाल उस भीड़ का नेतृत्व कर रहा था। नारों को अपनी आवाज की आखरी ऊंचाई तक जा कर बोल रहा था। रोशन अपनी राइटिंग पैड और कैमरा संभाले किशनलाल तक पहुँचने की कोशिश कर रहा था। पुलिसवाले भी किशनलाल तक पहुंचना चाह रहे थे। पुरे डी.एम. कार्यालय में खलबली मची थी। डी.एम. साहब अपने अर्दलियों से पूछ रहे थे कि कौन सा संगठन है, उनकी मांगे क्या है, उन मांगों में डी.एम. ऑफिस की क्या भूमिका है, पहले से कार्यालय को इनकी जानकारी क्यों नहीं दी गयी, वैगरह - वैगरह। 

पुरे संघर्ष के दौरान अचानक किसी ने एक पत्थर उठाया और डी.एम. ऑफिस की तरफ दे मारा। एक खिड़की की कांच टूट कर बिखरी पड़ी थी और इस एक पत्थर ने अचानक इस संघर्ष को हिंसक की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया था। किशनलाल ने इस बात की ना तो कल्पना की थी ना ही परिकल्पना। यह पत्थर उनकी प्लान का हिस्सा थी ही नहीं। शायद इस क्षण के आवेग में किसी ने पत्थर दे मारा था। 

इस एक पत्थर ने पुलिसवालों को मौका दे दिया था अपना जौहर दिखाने का। जो प्रदर्शन अपनी परवान पर भी नहीं आ पाया था उस पर पुलिस का लाठीचार्ज हो गया। पूरी भीड़ को तीतर बीतर कर दिया गया। किशनलाल को पुलिस ने घेर लिया था। उसे ढकेल कर पुलिस की गाड़ी में बिठाया जा रहा था और बैठते बैठते वो चिल्ला रहा था, "इस दमनकारी तंत्र के आगे मेरी आवाज़ दबने वाली नहीं है। मेरी सांस की आखरी उम्मीद तक यह संघर्ष जारी रहेगा। यह सरकार और सरकारी तंत्र मेरी आवाज़ को शांत नहीं कर सकती। यह आवाज़ तुम्हे हर तरफ सुनाई देगी।" जितना जानता था वो सब बोले जा रहा था। सारे लोग उसे देख कर पहचानने की कोशिश कर रहे थे कि इसकी शक्ल किस बड़े नेता से मिलती है। 

इस पुरे संघर्ष का मंजर घंटे भर का था। पर इस एक घंटे ने पुरे माहौल को बदल डाला था। 


***

"चलो साब, आपकी जमानत हो गयी है।" एक पुलिसवाले ने किशन को बताया और उसे बाइज्जत पुलिस सेल से बाहर ले कर आ गया। बाहर थानेदार के साथ देवदत्त बाबू बैठे थें। ये शहर के नामी कम्युनिस्ट नेता थें। किशन को देखते ही मुस्करा कर कहा, "आओ लाल हिन्द! बहुत उम्दा संघर्ष कर रहे हो तुम। मुझे भरोसा है कि तुम्हारा नेतृत्व हमारी पार्टी को और भी मजबूत करेगा।"

किशनलाल भौंचक था कि कल तक का किशनलाल अचानक लाल हिन्द कैसे बन गया। थानेदार साहब उसे बाअदब सामने की कुर्सी पर बिठा रहे थे। टेबल पर अखबारों के पेज बिखरे पड़े थे। हर जगह उसकी पुलिस गाड़ी में बिठाये जाते समय की तस्वीर थी। लिखा था - "लाल हिन्द का उदय, समाज के विचलित वर्ग के लिए आवाज उठाने पर पुलिस ने लाल हिन्द को हिरासत में लिया।" और ऐसे ही कई समाचार उसके लिएअलंकृत शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। 

आज अखबार को एक नयी खबर और एक नया कथा - पुरुष मिल गया था। रोशन अपने अखबार का सेलेब्रिटी पत्रकार बन गया था क्योंकि एकमात्र वही था जिसे लाल हिन्द का इल्म था और संपर्क भी। देवदत्त खुश था कि लगभग मर सी गयी उसकी पार्टी में प्राण भरने के लिए एक देव - पुरुष आ गया था। और किशनलाल... नहीं वो तो उस प्रदर्शन के ठीक पहले मर गया था, अपनी साँसे लाल हिन्द को दे कर। भारतीय राजनीति में आज लाल हिन्द का अभ्युदय हो चुका था। 

***

- अमितेश 

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