रविवार, 18 अक्तूबर 2009

सत्य

कोई मरता नहीं बिछड़ कर किसी से
वक्त इंसान को जीना सिखा देता है
ज़ख्म कितनी भी हो लगी दिल पे
ज़िन्दगी हर ज़ख्म पर मरहम लगा देती है।

तुमसे मिलना था इत्तफाक मेरे जीवन का
लम्हा-लम्हा जिया कई ज़िन्दगीयां संग तेरे
हर लम्हों को संजोया अपने यादों में मैंने
कि बिछड़ जाना न मकबूल कर सका तेरा।

मर तो सकता था मैं बिन तेरे
पर जी न सका एक पल मैं बिन तेरे
हुआ ये हाल मेरे जीवन का आज
कि मरता हूँ पल-पल सांसे लेते हुए।

बसती थी कभी ज़िन्दगी मेरी तेरी सांसों में
बहती थी तेरी हँसी खून बन मेरे रगों में
पर आज साँस भी लेता हूँ बिन तेरे
तो दिल में एक कसक-सी होती है।

याद नहीं कब हंसा था बिछड़ कर तुझसे
हँसता भी हूँ तो नसों में तनाव-सा आता है
तलाशता हूँ जब एक खुशी मैं तनहाइयों में
तो मयस्सर होती है छाले मेरे दिल के।

जनता हूँ जिंदा रहूँगा मैं बिछड़ कर भी तुझसे
पर क्या कहूं कि दिल नहीं मानता इसे
कतरा-कतरा मरता है दिल याद कर तुझे
रफ्ता-रफ्ता संभालता हूँ टुकड़ों को इसके।

जी तो न सका मैं खुल कर बिन तेरे
अब चाहता हूँ एक मुकम्मल मौत खुदा से अपनी
पर खुदा भी देता है दुहाई जीने कि
भूल कर अपने दिल के रिसते ज़ख्म सारे।

कोई मरता नहीं बिछड़ कर किसी से।

-अमितेश

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